कौशल किशोर
नई दिल्ली: 18वीं लोक सभा चुनाव से ठीक पहले नीति आयोग ने बुजुर्गों के मुद्दे पर एक स्थिति पत्र प्रकाशित किया था। राजनीतिक जमात इस वर्ग के मतदाताओं की स्थिति से अनभिज्ञ नहीं है। अक्सर बीमार रहने के बावजूद भारतीय लोकतंत्र बेहतर बनाने में इनकी भूमिका को खारिज नहीं किया जा सकता है। वृद्धावस्था से जुड़े स्थिति पत्र को हिंदू मुस्लिम जनसंख्या से जुड़े दूसरे पेपर की तरह अहमियत नहीं मिली। इसे प्रो. शमिका रवि ने आयोग के कुछ अन्य सदस्यों के साथ लिखा था। स्वतंत्रता व विभाजन के बाद 65 वर्षों में जनसंख्या में हुए परिर्वतन का इसमें विश्लेषण है।
पांच साल पहले राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की ओर से सरकार को वृद्धावस्था पेंशन को 200 रुपये से बढ़ाकर 2000 रुपये करने को कहा गया था। उन्होंने स्विट्जरलैंड मॉडल को भारत के वरिष्ठ नागरिकों की सेवा हेतु लागू करने और वृद्धों की बढ़ती संख्या के अनुकुल नए वृद्धाश्रम स्थापित करने की सलाह दी थी। भारत सरकार वरिष्ठ नागरिकों की देखभाल के लिए सहकारी समिति के माध्यम से सिल्वर इकोनॉमी और टाइम बैंक जैसे प्रयास के बीच समन्वय कायम कर वृद्धावस्था की पहेलियों को बुझाने का मार्ग प्रशस्त करे।
हाल में डॉ. ओंकार मित्तल ने एक पुस्तक लिखी है, बुजुर्गों की केयर। पिछले महीने डॉ. प्रेम अग्रवाल, प्रो. गोपा जोशी, प्रो. तारकेश्वरी नेगी तथा मुदित मिश्रा के साथ इस पर एक संवाद श्रृंखला शुरू किया गया। इन विशेषज्ञों की उदारता के कारण सामने आने वाली बातों पर व्यापक फलक पर चर्चा होनी चाहिए। इस क्रम में निःस्वार्थ भाव से असहाय बुजुर्गों की सेवा करने वालों की पहचान होती है। साथ ही किफायती से लेकर धर्मार्थ सेवा गृह तक चर्चा होती है और बुजुर्ग माता पिता तथा उनकी देखभाल करने वालों की चिंताओं का संज्ञान लिया जाता है।
मां के प्रेम और प्रतीक्षा को याद करते हुए नई पीढ़ी को प्रेरित करने का भी प्रयास करते हैं।प्रतीक्षा करना ही मां की नियति है। गर्भावस्था के दौरान शिशु के जन्म का इंतजार करती है। जब बच्चा स्कूल जाता है, तो वह उसके लौटने का इंतजार करती। स्वादिष्ट भोजन के साथ। वृद्ध मां के प्रति कर्तव्य पूरा करने की भावना हवा में उड़ती जा रही है। मां के निस्वार्थ प्रेम की समझ के साथ ही मदद और साथ के लिए इंतजार की नियति भी समझ से परे नहीं रही।आज की विडंबना ही है कि अपने कर्तव्यों से भागने के बावजूद नई पीढ़ी से बुढ़ापे में सेवा की अपेक्षा कर सकते हैं।
इस संवाद प्रक्रिया में उपनिवेशवाद व पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव पर भी चर्चा होती है। राज्यों में वरिष्ठ नागरिकों के देखभाल के कार्यक्रम में नए विकल्पों की तलाश है। सरकार ने बुजुर्गों के सम्मानजनक जीवन को सुनिश्चित करने के लिए गैर सरकारी संगठनों के वित्त पोषण का काम शुरू किया। ऐसे धर्मार्थ सेवा केन्द्र को मृत्यु से पहले वरिष्ठ नागरिक को गरिमा प्रदान करने के लिए निजी क्षेत्र से भी मिलता रहा है। नीति आयोग ने अपने स्थिति पत्र में अनुमान लगाया है कि अगले 25 वर्षों में भारत की एक चौथाई आबादी बुजुर्गों की हो जाएगी। इसका मतलब है कि संयुक्त राज्य अमेरिका की कुल आबादी के बराबर भारत में बुजुर्ग लोग होंगे।
चिकित्सा विज्ञान में प्रगति ने औसत जीवन की अवधि बढ़ा दी है। लेकिन एक उम्र के बाद जीवन की गुणवत्ता में गिरावट आने लगती है। शारीरिक रूप से दैनिक जीवन को चलाने में असमर्थ महसूस करते हैं और उन्हें वास्तव में मदद की आवश्यकता होने लगती है। सिल्वर इकोनॉमी को बढ़ावा देने के अतिरिक्त नीति आयोग के स्थिति पत्र में आधुनिक तकनीक के बेहतर इस्तेमाल पर ध्यान दिया गया है।
प्राचीन भारतीय सभ्यताओं और वैदिक ग्रंथों में मानव जीवन को 4 आश्रमों में विभाजित किया गया था। इन चार में से दो वृद्धावस्था से निपटने का वर्णन करती है। गृहस्थ आश्रम के उपरांत वानप्रस्थ आश्रम में जाने की बात कही है। मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से संन्यास आश्रम की तैयारी के क्रम में इसे जरूरी माना गया है। इसके पहले पारिवारिक जिम्मेदारियों के त्याग की बात थी।
आर्यों के जीवन में वर्णाश्रम की व्यवस्था थी। गांधी चार अलग वर्ण और चार अलग आश्रमों पर आधारित व्यवस्था की बात को मानते रहे। प्राचीन भारतीय जीवन इनके इर्द-गिर्द घूमता रहा है। त्याग का मार्ग हमेशा आसान नहीं है।ऐसे में बहुत कम लोग इसमें रुचि रखते होंगे। इस प्राचीन परंपरा के अवशेष अभी भी मिलते हैं। उन्हें राज्य से सहायता की आवश्यकता है। क्योंकि आधुनिकता ने सदियों से उनके लिए उपलब्ध रहे दरवाजे बंद कर दिए हैं। हालांकि राजनीतिक दलों ने घोषणापत्र में विभिन्न वर्ग के मतदाताओं की मदद के लिए योजनाओं की जानकारी दी थी। लेकिन उनकी योजना में भी इस वर्ग के लिए कहीं कोई स्थान नहीं है। इस भिक्षुक वर्ग के जनगणना का आंकड़ा भी उपलब्ध नहीं है। लेकिन अनुमान है कि 21वीं सदी में 80 लाख से 1 करोड़ के बीच होगी।
बुजुर्ग लोग अक्सर बीमारी से पीड़ित होते हैं। इसके कारण अधिकांश मामलों में कमजोरी और व्यवहार में बदलाव की देखने को मिलता है। वृद्धावस्था में रोग के इलाज के अलावा भावनात्मक देखभाल और सहायता बहुत ही जरूरी होता है। शारीरिक कमजोरी मानसिक कमजोरी को जन्म देती है। इससे मनोभ्रंश, चिड़चिड़ापन और निराशा जैसी समस्या पैदा होती। इसके कारण कभी-कभी देखभाल कर रहे लोग भी परेशानी में पड़ जाते हैं। अनु की कहानी से यह बात साफ समझ आती है।
अनु एक संपन्न परिवार में 80 वर्षीय वृद्धा की सेवा करती थी। उनके दो बेटों में से एक कनाडा में रहता रहा और दूसरा दिल्ली में। साधन संपन्न बेटे की मां की सेवा करने की तीव्र इच्छा थी। लेकिन समय की कमी के कारण उसे विस्मृति का शिकार अपनी बीमार मां की देखभाल के लिए मदद लेनी पड़ी। मां क्रोधित होकर देखभाल करने वाले को गाली देने लगती और डंडे से पीटने लगती। फिर भी अनु पूरी सावधानी, प्रेम और सम्मान के साथ सेवा करती थी। कभी-कभी मां यह शिकायत करती कि देखभाल करने वाले ने उसे मारा है। घर में लगे सीसीटीवी से बेटे और बहू को सारी सच्चाई जान लेते थे। इस कैमरे के अभाव में स्थिति बिल्कुल अलग हो सकती थी।
आज देखभाल करना सबसे असंगठित सेवा क्षेत्रों में से एक है। यदि इन्हें शीघ्र ही संगठित नहीं किया गया तो बुजुर्ग और देखभाल करने वाले दोनों की परेशानियां और बढ़ सकती हैं। समाज और सरकार को इन कामकाजी वर्ग के देखभाल करने वालों को कौशल प्रशिक्षण व अन्य संसाधनों से मदद करना चाहिए। वरिष्ठ नागरिकों के योगदान के लिए ऐसा करने की जरुरत है।
प्रो. जोशी ने उच्च रक्तचाप के इस नए युग के सवालों का वर्णन करते हुए पूछा कि जब कोई व्यक्ति खुद तनाव में हो तो वह दूसरों को कैसे आश्वस्त कर सकता है? डॉ. प्रेम अग्रवाल किफायती वरिष्ठ देखभाल गृह के विचार को बढ़ावा देते हैं। विशेषज्ञों के बीच आम सहमति इस बात पर है कि बहुत कम लोग हैं, जिनके पास अपने बुजुर्ग माता-पिता की सेवा करने के लिए पर्याप्त समय है। संसाधन और दृढ़ इच्छाशक्ति भी। भविष्य में परिवार के सदस्य द्वारा वृद्ध माता पिता की जिम्मेदारी संभालने की संभावना बहुत कम होती जा रही है।
स्विटजरलैंड और ब्रिटेन जैसे यूरोपीय देशों में टाइम बैंक प्रणाली ने युवा पीढ़ी को आकर्षित किया है। समय का निवेश और जरूरत पड़ने पर उसे वापस पाने की गारंटी एक आकर्षक विचार है। इसे अपनाया और सुधारा जाना चाहिए। सिंगापुर जैसे एशियाई देश भी इसी तरह की योजना शुरू करने की कोशिश कर रहे हैं। पिछले साल राजस्थान सरकार बुजुर्गों की देखभाल से जुड़े कानून में सुधार करती है। हालांकि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा सरकार को सलाह अवश्य दिया गया है। पर पिछले पांच सालों में इस पर कुछ नहीं हुआ।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि तकनीकी ने कई समस्याओं का समाधान किया है। दुनिया भर में वरिष्ठ नागरिकों की देखभाल में तकनीकी की उपयोगिता को चुनौती नहीं दी जा सकती। लेकिन इसके दुष्परिणाम और इसकी सीमाओं पर कम चर्चा होती है। इसके समर्थक अपने उत्पादों के नकारात्मक प्रभावों को छिपाने की भरपूर कोशिश भी करते हैं। हमें इसकी सीमा और आस-पास के वातावरण पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में भी विचार करना चाहिए।