हरिशंकर व्यास
हाल में भारत में लोकतंत्र और विकेंद्रित शासन व्यवस्था के अहम पड़ाव थे। पिछले साल आजादी के 75 साल पूरे हुए। धूमधाम से आजादी का अमृत महोत्सव मना। फिर इस अप्रैल में 24 तारीख को भारत में त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था के 40 साल पूरे हुए। इस मौके पर अखबारों में लेख आदि छपे और यह हल्ला हुआ कि किस तरह से देश में शासन आम लोगों तक पहुंचा है। मगर लोकतांत्रिक और स्थानीय शासन व्यवस्था के इन महत्वपूर्ण पड़ावों के बीच की हकीकत क्या है? यह सत्य कि पिछले नौ साल में देश में सत्ता का जैसा केंद्रीकरण हुआ है उसकी मिसाल आजाद भारत के इतिहास में कोई नहीं है।
भारत में यह जुमला सुना जाता रहा है कि पद तो सिर्फ तीन होते हैं- पीएम, सीएम और डीएम। लेकिन इस जुमले के बावजूद सत्ता का केंद्रीकरण संपूर्ण नहीं था। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री कितने भी ताकतवर रहे हों उनकी सरकारों में ऐसे मंत्री होते थे, जोखुल कर अपनी बात कहते थे। अपनी समझ से फैसला करते थे। कम से कम अपने मंत्रालय चलाने का अधिकार मंत्रियों को होता था। लेकिन अब दिल्ली से लेकर हर राज्य की राजधानी में सिर्फ एक ही कार्यालय से सारे मंत्रालय चलते हैं। इसी तरह जिला प्रशासन में कलेक्टर की सारी ताकत के बावजूद पहले दूसरे अधिकारी और चुने हुए जन प्रतिनिधियों का मतलब होता था। अब उनका कोई मतलब नहीं बचा है।
कहने को देश में 776 सांसद और करीब 43 सौ विधायक हैं। इनके अलावा पंचायती व्यवस्था में चुने हुए लाखों प्रतिनिधि हैं। लेकिन किसी का कोई मतलब नहीं है। कह सकते हैं कि एक प्रधानमंत्री, 28 मुख्यमंत्री और 766 कलेक्टर यानी देश में कुल 795 लोग हैं, जो 140 करोड़ लोगों के भाग्य विधाता हैं।
केंद्रीकरण की इस बरबादी की शुरुआत प्रधानमंत्री कार्यालय यानी पीएमओ से हुई। पहले भी पीएमओ बहुत महत्वपूर्ण होता था लेकिन उसका काम समन्वय बनाने का था। अलग अलग मंत्रालयों के मंत्री अपने विभाग से जुड़ी योजनाओं पर काम करते थे। उनको पीएमओ की ओर से उनको आगे बढ़ाने में सहायता और सहूलियत मुहैया कराई जाती थी। लेकिन अब उलटी गंगा बह रही है। अब मंत्रियों को अपने विभाग में बैठे रहना होता है। उनके पास पीएमओ या कैबिनेट सचिवालय से निर्देश आते हैं। सारी योजनाएं वहां बनती हैं, सारे फैसले वहां होते हैं, फंड का आवंटन वहां से होता है और उसके बाद उस पर अमल के लिए दस्तावेज मंत्रालयों के पास भेजे जाते हैं।
कैबिनेट की बैठक में मंत्रियों के किसी मसले पर अपनी राय जाहिर करने की बात बीते जमाने की हो गई है। अपने कामकाज की छोडि़ए ज्यादातर मंत्रियों की यह स्थिति है कि वे अपने निजी स्टाफ अपनी मर्जी से नहीं रख सकते। किस मंत्री के साथ पीएस, ओएसडी और पीए कौन होगा, इसका फैसला पीएमओ से होता है। मंत्रालय के सचिव और संयुक्त सचिव भी ऊपर से तय होते हैं। तभी वे मंत्री की बजाय ऊपर ही रिपोर्ट करते हैं। मतलब आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीअकेले सर्वज्ञ हैं। वे शताक्षी हैं, जिनकी सौ आंखें हैं। वे सहस्त्रबाहु हैं, जिनके हजार हाथ हैं। वे प्रज्ञाचक्षु हैं, जिनको हर बात का ज्ञान है। वे 18-18 घंटे काम करते हैं ताकि किसी और को काम नहीं करना पड़े। वे अकेले हर काम करने में सक्षम हैं।
उनके किसी मंत्री की जरूरत नहीं है। काम में मदद करने के लिए उनके पास अधिकारियों की फौज है। मंत्री सारे नकारे हैं लेकिन उनको इसलिए रखा गया है ताकि बताया जा सके कि सरकार में कितने ओबीसी, कितने दलित और कितने आदिवासी मंत्री हैं, जो देश के किन किन हिस्सों का प्रतिनिधित्व करते हैं। चूंकि संविधान में ऐसी व्यवस्था की गई है कि लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्या के 15 फीसदी या दोनों सदनों के सदस्यों की कुल संख्या के 10 फीसदी के बराबर मंत्री बनाने हैं तो बना दिया गया है। बाकी किसी का कोई खास मतलब नहीं है। न कामकाज में और न राजनीति में। कुछ मंत्री इसके अपवाद हो सकते हैं लेकिन आमतौर पर यह स्थिति बन गई है।
पीएमओ की गंगोत्री से यह परंपरा निकली तो राज्यों के सीएमओ तक पहुंची। किसी भी राज्य में मुख्यमंत्री ही सब कुछ करता है। उसके पास अधिकारियों की फौज के साथ एक सीएमओ है, जहां सारी योजनाएं बनती हैं और सारे फैसले होते हैं। उसमें मंत्रियों की भूमिका नहीं के बराबर रह गई है। मुख्यमंत्री सर्वोच्च है। उसके नाम पर राजनीति होती है और चुनाव जीते जाते हैं इसलिए सारे काम उसी को करने चाहिए। असली ताकत उसके पास है। बाकी सबके पास आभासी ताकत है। जैसे आसमान में चांद, सितारे सब सूर्य की रोशनी पाकर चमकते हैं उसी तरह केंद्र में प्रधानमंत्री और राज्यों में मुख्यमंत्री के पास ही सूर्य की तरह रोशनी है, जिससे सारे मंत्री, अधिकारी आदि रोशन होते हैं। उनके ताकत का स्रोत पीएम या सीएम ही है। उनकी अपनी न कोई चमक है, न कोई ताकत है और न कोई समझदारी है। वे पीएम और सीएम की कृपा से पद पर बैठे हैं और बैठे रहना उनका काम है।
इसी तरह राज्यों में डीएम या डीसी हैं, जिन्हें कलेक्टर यानी समाहर्ता या डिप्टी कमिश्नर या उपायुक्त कहा जाता है। हिंदी में इनके लिए जिलाधिकारी और कुछ जगहों पर जिलाधीश तक का विशेषण इस्तेमाल होता है। अब जिलों में कलेक्टर सिर्फ कर वसूलने वाला नहीं रह गया है, बल्कि जिलाधीश हो गया है, जो सर्वोच्च गद्दी पर बैठा है। उसके आगे किसी की नहीं चलती है। जिलाधीश सीधे राज्यों की राजधानी में 24 घंटे काम करने वाले सीएमओ के संपर्क में होता है। जिले का कोई चुना हुए प्रतिनिधि उसे निर्देश नहीं दे सकता है। केरल जैसे एकाध राज्य अपवाद हैं, जहां अधिकारियों को निर्देश दिया गया है कि वे चुने हुए प्रतिनिधियों के आने पर खड़े होकर उनका स्वागत करेंगे। बाकी कहीं कलेक्टर या उनसे नीचे के अधिकारी भी ऐसा करना जरूरी नहीं समझते हैं।
ज्यादातर जिलों में जन प्रतिनिधियों की हिम्मत नहीं होती है कि वे अधिकारी से अधिकार के साथ बात कर सकें। इन दिनों जिस व्यवस्था ने आकार लिया है उसमें उनको डर रहता है कि अधिकारी सीधे सीएमओ में शिकायत कर देगा तो जन प्रतिनिधि होने की जो नौकरी मिली है वह छिन सकती है। जन प्रतिनिधियों का यह डर दिल्ली से लेकर राज्यों की राजधानी और जिला मुख्यालय तक एक जैसा है। हर जगह अधिकारी राजनीतिक आका के सीधे संपर्क में हैं और वे बिना हैसियत के चुने गए जन प्रतिनिधियों की शिकायत आलाकमान से कर सकते हैं। जन प्रतिनिधियों को अपने आलाकमान के दर्शन कभी कभार ही होते हैं। उस समय भी कुछ कहने की उनकी हिम्मत नहीं होती है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ शासन और प्रशासन का केंद्रीकरण हुआ है।
राजनीति भी पूरी तरह से केंद्रीकृत हो गई है। भारतीय जनता पार्टी जैसी संगठन आधारित पार्टी पूर तरह से अब एक व्यक्ति केंद्रित है। एक चेहरे की सौगंध खाकर नेता राजनीति करते हैं और चुनाव लड़ते हैं। यह पिछले नौ साल में हुआ है। भारतीय जनता पार्टी अपने मूल चरित्र में कांग्रेस और दूसरी अन्य प्रादेशिक पार्टियों से अलग थी। कांग्रेस पार्टी नेहरू-गांधी परिवार की सौगंध लेकर राजनीति करती थी, हालांकि अब वहां परिपाटी बदल गई है। इसी तरह प्रादेशिक पार्टियों की सारी राजनीति एक नेता या उसके परिवार के ईर्द-गिर्द होती थी। इसके उलट भाजपा की राजनीति सामूहिक फैसले से चलती थी। कई स्तर पर चेक एंड बैलेंस की व्यवस्था थी। हर राज्य में ऐसे बड़े नेता थे, जिनको चुनाव लडऩे के लिए दिल्ली वाले चेहरे की जरूरत नहीं पड़ती थी। लेकिन अब भाजपा पंचायत से लेकर नगर निगम और विधानसभा से लेकर लोकसभा तक हर चुनाव सिर्फ एक चेहरे पर लड़ती है। अब सिंगल, डबल के बाद भाजपा ट्रिपल इंजन की सरकार बनाने के लिए चुनाव लड़ती है।