नई दिल्ली: आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले से सियासी हलचल तेज हो गई है। सर्वोच्च अदालत ने अपने ऑर्डर में कहा कि राज्य सरकारें अनुसूचित जातियों और जनजातियों की सब-कैटेगरी कर सकती हैं, ताकि उनके बीच अवसरों का बेहतर बंटवारा हो सके। कोर्ट ने राज्यों को निर्देश दिया है कि वो अपने समाज के सबसे पिछड़े समुदायों की पहचान करें और फिर उनके लिए कोटा के अंदर कोटा का प्रावधान करें। यह फैसला समाज और राजनीति को दो तरह से प्रभावित कर सकता है। सबसे पहले, यह सामाजिक न्याय के लिए उपलब्ध संसाधनों में विविधता ला सकता है और उनका पुनर्वितरण कर सकता है। यह सामाजिक गतिशीलता और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के प्रतिनिधित्व और भागीदारी के कामकाज को नया रूप दे सकता है। दूसरे, यह नई राजनीतिक लामबंदी भी पैदा कर सकता है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले का क्या होगा असर
सामाजिक न्याय सार्वजनिक संसाधनों के निष्पक्ष और समान वितरण और वंचित वर्गों को अवसर प्रदान करने की राज्य की ओर से शुरू की गई दृष्टि के बारे में है। हालांकि, यह हमेशा अपनी राजनीति पैदा करता है। लोकतंत्र केवल मोरल और एथिकल ढांचे के बारे में नहीं है, यह दक्षिण एशियाई सोसाइटियों, विशेष रूप से भारत में व्यावहारिक चुनावी राजनीति का मामला है। हाल ही में, हमने आरक्षण के मुद्दे पर बांग्लादेश में भारी राजनीतिक हिंसा और उथल-पुथल देखी है। यही वजह है कि राज्य की ओर से दिए जाने वाले किसी भी प्रकार के रिजर्वेशन के अवसर शासन के इर्द-गिर्द बहस को जन्म देते हैं। इसके साथ ही ये राजनीतिक लामबंदी की सुविधा प्रदान करते हैं।
सियासी दलों की क्यों बढ़ेगी मुश्किल
अनुसूचित जाति आरक्षण में सब-कैटेगरी की मांग और इसके इर्द-गिर्द की राजनीति कई राज्यों में चल रही है। दिलचस्प बात यह है कि ज्यादातर मामलों में, इनका नेतृत्व दूसरे सबसे बड़े दलित समुदायों और कुछ अन्य लोगों की ओर से किया जाता है। वे शिकायत करते हैं कि नौकरियों और अन्य विकास से जुड़े अवसरों में उनका उचित हिस्सा नहीं दिया जा रहा। ऐसा इसलिए क्योंकि उनमें से अधिकांश को सबसे बड़े और सबसे सक्षम अनुसूचित जाति समुदायों की ओर से हथिया लिया जाता है। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में, इस आंदोलन का नेतृत्व माला के खिलाफ मादिगा की ओर से किया जाता है। पंजाब में, इसका नेतृत्व चमारों की सबसे बड़ी दलित जाति के प्रभुत्व का विरोध करने वाले बाल्मीकि की ओर से किया जाता है।
‘कोटे में कोटा’ पर क्या सोच रहा दलित समुदाय
बिहार में, कई छोटी दलित जातियों ने अपने हक से वंचित किए जाने के बारे में अपनी आवाज उठाई, उन्हें पासवान और चमार जैसी सक्षम और राजनीतिक रूप से प्रभावशाली जातियों के साथ आरक्षित सीटों के लिए प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है। तुलनात्मक रूप से देखें तो विरोध करने वाले इन दूसरे या तीसरे सबसे बड़े शिड्यूल कास्ट समुदायों ने अन्य छोटी अनुसूचित जातियों को लामबंद किया है। यही नहीं अपनी मांगों की ओर राजनीतिक ध्यान आकर्षित किया है। कुछ मामलों में, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दलों ने ऐसे हाशिए के समुदायों के लिए कोटे के भीतर कोटा देने की दलील दी है। इसलिए इस मांग का अपना सामाजिक और राजनीतिक आधार है, जो चुनावी राजनीति में कारगर हो सकता है।
हर राज्य में फैसले का दिखेगा असर
बिहार में नीतीश कुमार और उनकी जेडी (यू) ने गैर-प्रमुख एससी जातियों की बढ़ती राजनीतिक क्षमता का आकलन करने के लिए महादलितों की एक नई श्रेणी बनाई। तमिलनाडु में, डीएमके ने अरुंधतिय्यर समुदाय के आरक्षण को लेकर काम किया। आंध्र और तेलंगाना में, मडिगा समुदाय ने एससी को उप-वर्गीकृत करने के लिए लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक दलों को प्रभावित किया। 2023 के तेलंगाना चुनाव के दौरान, पीएम नरेंद्र मोदी ने इस दावे का समर्थन किया। हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट के फैसले का तेलंगाना और कर्नाटक के मुख्यमंत्रियों सिद्धारमैया और रेवंत रेड्डी ने तुरंत स्वागत किया। अधिकांश दल इस मुद्दे के निहितार्थों को समझते हैं और अपने-अपने तरीकों से विभिन्न समुदायों के साथ बातचीत शुरू कर दी है।
यहां एक महत्वपूर्ण सवाल उभरता है
ये दल सबसे बड़ी और सबसे प्रभावशाली एससी जातियों से कैसे जुड़ेंगे, जिन्हें अब तक आरक्षण के मुख्य लाभार्थियों के रूप में टारगेट किया जा रहा है? राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल बिहार में पासवान, उत्तर प्रदेश में जाटव और पासी, तेलंगाना में माला, महाराष्ट्र में महार और पंजाब में चमार जैसे समुदायों से कैसे निपटेंगे? हालांकि इन जातियों ने विभिन्न राजनीतिक दलों के साथ वफादारी स्थापित की है, लेकिन इस बदले हुए संदर्भ में वे उत्तर भारत में बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) जैसी अपनी राजनीतिक पार्टी के साथ एकजुटता से साथ आ सकते हैं। वे उन राजनीतिक दलों की ओर भी देखेंगे जो उप-वर्गीकरण नीति की आलोचना कर सकते हैं।
यूपी-एमपी, हरियाणा, पंजाब में फैसले का असर
कुछ समुदाय और उनके नेता इसे अनुसूचित जातियों की एकता को खंडित करने के प्रयास के रूप में भी देख सकते हैं। ये वर्ग, जो मजबूत हित समूहों के रूप में उभरे हैं, अवसरों के किसी भी विभाजन को नहीं चाहते हैं और इसके खिलाफ लामबंद होने की संभावना है। बीएसपी सुप्रीमो मायावती पहले ही इस फैसले की आलोचना कर चुकी हैं, क्योंकि जाटव बीएसपी का आधार रहे हैं। वहीं अनुसूचित जाति को लेकर राजनीतिक क्षेत्र में एक नया ध्रुवीकरण देखने को मिल सकता है। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल जैसी पार्टियों को यूपी, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब और बिहार राज्यों में कोई रुख अपनाने में मुश्किल हो सकती है। ऐसा जाटव और चमार बारादरी की बड़ी मौजूदगी और आगामी चुनावों के कारण है।
बीजेपी का क्या रहेगा रुख
बीजेपी सबसे हाशिए पर और गायब हो रही अनुसूचित जातियों के बीच आरक्षण के पुनर्वितरण का समर्थन कर सकती है। लेकिन इससे कुछ फायदा और कुछ नुकसान हो सकते हैं। राजनीतिक नैतिकता के दायरे में, सभी राजनीतिक दलों – वामपंथी, दक्षिणपंथी और मध्यमार्गी – को इस कदम का समर्थन करना चाहिए। और फिर भी, उनके जातिगत आधार और चुनावी व्यावहारिकता का दबाव कुछ लोगों को इसका विरोध करने के लिए मजबूर कर सकता है। प्रतीक्षा करें और देखें: तस्वीर जल्द ही स्पष्ट हो जाएगी।