महर्षि वाल्मीकि ने भगवान राम के चरित्र को कुछ इस तरह स्थापित किया है कि वह हमारी संस्कृति की सबसे उज्ज्वल धरोहर बन गए हैं। महर्षि वाल्मीकि ने भगवान राम के गुणों का वर्णन करने के लिए, वाल्मीकि रामायण में सौ से भी अधिक विशेषणों का प्रयोग किया है। उन्हीं में से कुछ को यहां पिरोने का प्रयास किया है।
दरअसल, जिन राम का वर्णन वाल्मीकि करते हैं वे धर्म को जानने वाले और धर्म का पालन करने वाले हैं, क्योंकि भगवान राम धर्म का साक्षात् स्वरूप हैं। (रामो विग्रहवान् धर्मः)। धर्म वह है जिसे धारण किया जाता है। पवित्र गुणों और कर्म को धारण किया जाता है।
वाल्मीकि रामायण में हर काण्ड में भगवान राम के गुणों का वर्णन किया गया है। राम उदार हैं, अच्छा बोलते हैं (वदान्य), वे पराक्रमी हैं। ताड़का का वध करने वाले राम की सब प्रशंसा करते हैं (प्रशस्य)। कैकयी के वरदान मांगने पर दशरथ राम के गुणों का वर्णन करते हुए पूछते हैं कि राम जैसे विद्वान (कृतविद्य) बेटे को वे कैसे वनवास दे सकते हैं?
वही दशरथ जिन्होंने पहले उन्हें राज्य और फिर वनवास दे दिया उनसे राम तनिक भी क्रोधित नहीं होते क्योंकि उन्होंने क्रोध को जीत लिया था। (जितक्रोध)। राम सुख हो या दुख, एक समान भाव रखते हैं। वे संवृताकार हैं। उनके धर्म की बार-बार परीक्षा ली जाती है। इधर, प्रजा उन्हें वनवास से रोकने का प्रयास करती है। कैकयी के अलावा सब दुखी हैं।
वसिष्ठ क्रोध में कैकयी से कहते हैं- “जहां के राजा राम नहीं हैं वह राज्य राज्य नहीं है। जहां राम राजा होंगे वह वन भी राज्य हो जाएगा।”
(न हि तद्भविता राष्ट्रं यत्र रामो न भूपतिः। तद्वनं भविता राष्ट्रं यत्र रामो निवत्स्यति।।)
उनके धर्म की परीक्षा भरत भी लेते हैं जो उन्हें अयोध्या वापस लाने के लिए उनके सामने धरने पर ही बैठ जाते हैं। जाबालि ऋषि एक नास्तिक की तरह बात करते हैं और वह भी राम को लौट जाने को कहते हैं।
जाबालि ऋषि और भरत दोनों को राम समझाते हैं कि सत्य ही ईश्वर है। मैं अपना वचन न लालच के कारण तोड़ूंगा, न मोह, न तम और न ही अज्ञान के कारण। इसी कारण राम को सत्यसंध कहा गया है। वन में विराध, खर-दूषण को मारने वाले राम तुरंत शक्ति प्रदर्शन करते हैं, इसलिए वे आशुविक्रम हैं। राम सभी प्राणियों के हित में रत हैं और प्रथित या प्रसिद्ध हैं। वे परम मित्र (सुहृद्) हैं। वे सुग्रीव का उपकार मानते (कृतज्ञ) हैं।
सीता की खोज में वन-वन भटकते राम कहते हैं-
संसार मुझे करुणवेदिन् (दयालु) तो समझेगा, लेकिन दुर्बल भी मानेगा।
राम शत्रुओं को मारने वाले हैं इसलिए उन्हें अरिन्दम या अरिघ्न भी कहा गया है। वे रावण को हराकर युद्ध जीतते हैं इसलिए उन्हें समितिञ्जय भी कहा गया। राम के चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता है लोकहित का विचार। लोक उनकी पूजा करते हैं। राम सहस्रनाम में उन्हें लोकवन्द्य कहा गया है।
राम लोक को सत्य से जीतते हैं, दीन-दुखियों को परोपकार से, गुरुओं को सेवा से और शत्रुओं को धनुष की शक्ति से।
(सत्येन लोकान् जयति दीनान् दानेन राघवः।
गुरूञ्छुश्रूषया वीरो धनुषा युधि शात्रवान्।।)
सच तो यह है कि राम के चरित्र को विशेषणों में, नामों में समेटना असंभव है। मैथिलीशरण गुप्त जी सही कहते हैं,
“राम, तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है। कोई कवि बन जाय, सहज संभाव्य है।”
शायद इसी कारण राम का एक नाम शब्दातिग (जो शब्दों के परे हैं) भी है।
अंतिम बात। महर्षि वाल्मीकि नहीं तुलसीदास जी के मुख से। क्योंकि आज ही के दिन तुलसीदास जी ने रामचरित मानस का शुभारम्भ किया था।
वन में जब राम वाल्मीकि से पूछते हैं कि कुटिया कहां बनाई जाए, तो वाल्मीकि उन्हें कहते हैं,
“जाति पांति धनु धरमु बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई॥
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई, तेहि के हृदयं रहहु रघुराई”
जिसने जांति-पांति, धन, धर्म, घमंड, प्रिय परिवार और सुखद घर सब छोड़ दिया है, आप उसी के हृदय में रहिए। चैत्र शुक्ल नवमी की दोपहर में जन्म लेने वाले राम हम सबके मन उज्ज्वल करें, हम सबके मन में रहें।