स्वातंत्र्यवीर सावरकर पर रणदीप हुड्डा ने बेहतरीन फिल्म बनाई है। सच कहूं तो यह फिल्म से कहीं अधिक है। सिनेमा का पर्दा जब रोशन होता है तो आपको इतिहास के उस हिस्से में ले जाता है, जिसको साजिश के तहत अंधकार में रखा गया। भारत की स्वतंत्रता के लिए हमारे नायकों ने क्या कीमत चुकाई है, यह आपको फिल्म के पहले फ्रेम से लेकर आखिरी फ्रेम तक में दिखेगा। अच्छी बात यह है कि रणदीप हुड्डा ने उन सब प्रश्नों पर भी बेबाकी से बात की है, जिनको लेकर कम्युनिस्ट तानाशाह लेनिन–स्टालिन की औलादें भारत माता के सच्चे सपूत की छवि पर आघात करती हैं। कथित माफीनामे से लेकर 60 रुपए पेंशन तक, प्रत्येक प्रश्न का उत्तर फिल्म में दिया गया है। वीर सावरकर जन्मजात देशभक्त थे। चाफेकर बंधुओं के बलिदान पर किशोरवय में ही वीर सावरकर ने अपनी कुलदेवी अष्टभुजा भवानी के सामने भारत की स्वतंत्रता का संकल्प लिया। अपने संकल्प को साकार करने के लिए किशोरवय में ही ‘मित्र मेला’ जैसा संगठन प्रारंभ किया। क्रांतिकारी संगठन ‘अभिनव भारत’ की नींव रखी। विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। अंग्रेजों को उनकी ही भाषा में उत्तर देने के लिए लंदन जाकर वकालत की पढ़ाई की। हालांकि क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण अंग्रेजों ने उन्हें डिग्री नहीं दी। ब्रिटिश शासन के घर ‘लंदन’ में किस प्रकार वीर सावरकर ने अंग्रेजों को चुनौती दी, इसकी झलक भी फिल्म में दिखाई देती है। नि:संदेह, वीर सावरकर के महान व्यक्तित्व के संबंध में फिल्म न्याय करने में सफल हुई है।
एक और अच्छी बात निर्माता–निर्देशक ने स्थापित की है कि वैचारिक या सैद्धांतिक मतभेद होने के बाद भी बड़े नेता एक–दूसरे का सम्मान करते थे। जो लोग यह स्थापित करने की कोशिश करते हैं कि वीर सावरकर महात्मा गांधी के विरोधी थे, उनको अवश्य ही यह पता होना चाहिए कि दोनों की सोच अवश्य भिन्न थी लेकिन दोनों एक–दूसरे के विरोधी नहीं थे। महात्मा गांधी ने तो यहां स्वीकार किया कि वीर सावरकर ने मुझसे कहीं पहले ब्रिटिश शासन की बुराइयों को देख लिया था। गांधीजी ने सावरकर बंधुओं को भारत माता का सपूत भी कहा और कालापानी से उनकी मुक्ति के लिए आवाज भी उठाई। वीर सावरकर भी स्पष्ट कहते हैं कि “वे गांधीजी के विरोधी नहीं, बल्कि उनकी अहिंसा की नीति के विरोधी हैं”। महात्मा गांधीजी ने अस्पृश्यता को समाप्त करने के जो प्रयत्न प्रारंभ किए, वैसे प्रयत्न प्रभावी ढंग से स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने भी किए। उस समय अछूत कहे जानेवाले बंधुओं को मंदिर में प्रवेश दिलाना, अछूत को पुजारी बनाना, सामूहिक सहभोज के आयोजन, जबरन या धूर्तता से मुस्लिम बनाए गए हिंदुओं की घर वापसी, अंधविश्वास को दूर करना और राष्ट्रीयता की भावना को पुष्ट करना, जैसे अनेक नवाचार वीर सावरकर ने कालापानी से बाहर आकर किए। इन सबकी झलक फिल्म में भी देखने को मिलती है। सरदार भगत सिंह, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, मदनलाल ढींगरा, लाला हरदयाल, मैडम भीखाजी कामा और श्यामजी कृष्ण वर्मा सहित अनेक स्वतंत्रता सेनानियों के साथ संबंधों को भी फिल्म में दिखाया गया है।
कलाकारों ने अद्भुत काम किया है। एक–एक पात्र को जीवंत किया है। विशेषकर रणदीप हुड्डा ने स्वातंत्र्यवीर सावरकर को पर्दे पर साकार कर दिया। हुड्डा अपने अभिनय से वीर सावरकर के साथ एकाकार होते हुए दिखे। कालापानी के वेदना से भरे दृश्य हों या फिर अपने घर भाईयों के साथ आत्मीय पल, सबको बखूबी दिखाया गया है। कालापानी में जब वे अपने भाई बाबाराव सावरकर (गणेश सावरकर) से मिलते हैं, तब जो भाव–भंगिमा उनके चेहरे पर दिखती है, वह दर्शकों की आंखों में आसूं लाने में सक्षम है। वीर सावरकर के बड़े भाई की भूमिका में अमित सियाल का अभिनय बहुत प्रभावी रहा है।
फिल्म ‘स्वातंत्र्यवीर सावरकर’ पहले दृश्य से लेकर आखिरी दृश्य तक दर्शकों को बांधकर रखती है। अनेक प्रश्नों के उत्तर देती है तो कई प्रश्न पैदा भी करती है। फिल्म के आखिर में वीर सावरकर कहते हैं– “जब बापू पर दस दिन पहले भी हमला हुआ था तो सरकार ने उनकी सुरक्षा के बंदोबस्त क्यों नहीं किए?” यह प्रश्न अक्सर मैं भी उठता हूं, लेकिन आज तक किसी ने इसका संतोषजनक उत्तर नहीं दिया है। वरिष्ठ पत्रकार प्रखर श्रीवास्तव की पुस्तक ‘हे राम’ पढ़कर यह प्रश्न और गहरा हो जाता है। पुस्तक से स्मरण आता है कि स्वातंत्र्यवीर सावरकर द्वारा लिखी पुस्तक ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ को क्रांतिकारी क्रांति की श्रीमद् भगवदगीता मानते थे। उस पुस्तक को नेताजी सुभाषचंद्र बोस से लेकर सरदार भगत सिंह तक ने प्रकाशित कराया और प्रसारित किया था। स्मरण रहे कि सरदार भगत सिंह तो जेल में भी वीर सावरकर के साहित्य का न केवल अध्ययन कर रहे थे अपितु उनकी पुस्तकों से नोट्स भी ले रहे थे। इस संदर्भ में उनकी जेल डायरी पढ़नी चाहिए, जिसमें वीर सावरकर की ‘हिंदू पदपदशाही’ पुस्तक के नोट्स पढ़े जा सकते हैं। वीर सावरकर की यह पुस्तक छत्रपति शिवाजी महाराज के स्वराज्य पर केंद्रित है।
बहरहाल, यह फिल्म अवश्य देखनी चाहिए। इतिहास के अनकहे किस्सों की जानकारी देने के साथ ही यह फिल्म इतिहास को देखने की नई दृष्टि भी देती है। फिल्म देखने के बाद आपको यह भी ध्यान आएगा कि क्यों सत्ता द्वारा पोषित साहित्यकारों एवं इतिहासकारों ने भारत के नायकों के साथ न्याय नहीं किया? किस हेतु से कुछ नायकों के संबंध में भ्रम खड़े करने के प्रयास किए गए। आईएमडी पर फिल्म को जबरदस्त सराहना मिली है। फिल्म समीक्षकों ने भी खुलकर ‘स्वातंत्र्यवीर सावरकर’ की प्रशंसा की है। फिल्म का निर्देशन पहले महेश मांजरेकर कर रहे थे, लेकिन रणदीप हुड्डा के साथ वैचारिक मतभेद के कारण मांजरेकर ने फिल्म निर्माण से अपने हाथ पीछे खींच लिए। यह भी कह सकते हैं कि स्वातंत्र्यवीर सावरकर नाम की आग में झुलसने का डर उनके मन में बैठ गया होगा। बहरहाल, वीर सावरकर के व्यक्तित्व का इतना गहरा प्रभाव रणदीप हुड्डा पर पड़ा कि उन्होंने स्वयं ही निर्देशक की कमान संभालकर इतिहास रचने की ठान ली। रणदीप हुड्डा की निर्देशक के रूप में भले ही यह पहली फिल्म है, लेकिन जिस भव्य तरीके और गहराई के साथ उन्होंने ‘स्वातंत्र्यवीर सावरकर’ को प्रस्तुत किया है, उसके लिए उनकी जितनी सराहना की जाए कम है।
लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं।