गौरव अवस्थी
भोपाल। इन जगहों से गुजरना तो हुआ पर जाना कभी नहीं। आचार्य जी के जीवन वृत्त से गुजरते और स्मृति संरक्षण की दिशा में की जा रही कोशिशों के बीच मन को यह बात रह-रहकर मथती थी कि जिस धरती ने उनमें साहित्य के रुचि जागृत की। जहां उन्होंने पिंगल का पाठ पढ़ा, उस धरती को नमन करने का अवसर न जाने कब मिलेगा? मिलेगा भी या नहीं।कहते हैं सच्चे मन की पुकार ऊपरवाला सुनता ही सुनता है। वही हुआ। मन की पुकार ने इस बार भोपाल पहुंचा दिया तो हरदा-हुशंगाबाद भी कभी न कभी पहुंचाएगी ही। भोपाल पहुंचाया, वह भी सामान्यत: नहीं। विशेष तौर पर, आचार्य जी की विस्मृत यादों के स्मरण के बहाने।
दरअसल, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के जीवन में मध्यप्रदेश काफी महत्वपूर्ण रहा है। मात्र 17 वर्ष की आयु में रेलवे की मुलाजिमत शुरू करने वाले आचार्य जी अजमेर-मुंबई के बाद हरदा और हुशंगाबाद रहे। फिर झांसी। अनुमानतः हरदा और हुशंगाबाद में 1890 के दशक में उनका रहना हुआ होगा। हुशंगाबाद में रहते हुए भारतेंदु हरिश्चंद्र के कविवचन सुधा और गोस्वामी राधाचरण के मासिक पत्र पढ़कर उनके कवित्त कहने के अनुराग में वृद्धि हुई। कचहरी में कार्यरत बाबू हरिश्चंद्र कुलश्रेष्ठ से उन्होंने पहले-पहल पिंगल का पाठ यहीं पढ़ा।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी स्मृति संरक्षण अभियान का रजत जयंती वर्ष धूमधाम से मनाने की तैयारी तो बड़ी थी पर तैयारियों में भोपाल नहीं था। होता भी कैसे? अपने सीमित साधन। सीमित संपर्क। पर होनी को कौन टाले..होनी थी, तो आयोजन हो गया। क्या संयोग है? रजत पर्व का मुख्य आयोजन “द्विवेदी मेला” 11-12 नवंबर 2022 को दौलतपुर-रायबरेली में धूमधाम से मना। महीना भले मई का हो पर तारीखें वहीं, जो रायबरेली वाली थीं।
रायबरेली के द्विवेदी मेले में भोपाल के आयोजन की जैसे नींव पड़ गई। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की प्रधान संपादक और वरिष्ठ साहित्यकार डॉ अमिता दुबे दौलतपुर अपनी साहित्यकार मित्र श्रीमती डॉ स्नेहलता के साथ पधारीं थीं। मेला संपन्न होने के बाद हमने डॉ अमिता दुबे से लखनऊ में मन-बेमन रजत पर्व का समापन भोपाल में आयोजित करने की इच्छा व्यक्ति की। उन्होंने सहज ही हामी भर ली और गाड़ी चल पड़ी। सप्रे संग्रहालय के संस्थापक पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर जी की भी मौखिक सहमति मिल गई।
देखते-देखते 11-12 मई आ गई। भोपाल कार्यक्रम के लिए मन ही मन लड्डू फूटने लगे। इसलिए नहीं कि श्रीधर जी ने अपन को सम्मानित करने का आदेश सुना दिया था। बल्कि इसलिए कि ढाई दशक में वह दिन आने ही वाला था जो हरदा-हुशंगाबाद की धरती के नजदीक है। याने, भोपाल। अपनी सरजमीं से 700 किलोमीटर दूर अपने मन की बात को साकार होते देखना अपने आप में क्या कम सम्मान और गर्व की बात है? फिर आचार्य जी की स्मृतियों से जुड़कर अगर आप “निर्मोही” नहीं बन पाए तो इसका मतलब है कि उनकी यादों को सहेजने का काम एक ढकोसला भर है। सच्चा अनुयाई तो वही है जो प्रशस्त पथ पर चले। इसलिए सम्मान की चाह में नहीं, कई दशकों बाद मध्यप्रदेश की धरती में आचार्य जी के नाम और काम के स्मरण के एक विशिष्ट अवसर का प्रतिभागी बनने का मौका हमारे लिए खास था। मन में उत्साह था। विद्वानों का सानिध्य मिलने का। कृती-वृती पंडित माधव राव सप्रे के जीवन को और अधिक नजदीक से जानने का।
रायबरेली रेलवे स्टेशन पर ट्रेन पकड़ते वक्त मन में बार-बार यही कह रहा था-“बिनु हरि कृपा मिलहि नहिं संता”। बिना आचार्य जी और सप्रे जी की कृपा के यह संभव कहां? मनहि मन कीन्ह प्रनाम..के भाव में डूबे ही थे कि एक अपने अध्यक्ष विनोद कुमार शुक्ल की आवाज से ध्यानावस्था टूटी-“कहीं गाड़ी लेट न हो जाए।” रेल गाड़ियों की लेटलतीफी तो जगजाहिर ही है। साथी यात्री सुनील अवस्थी रामू की राय भी विनोद की हां में हां वाली। डर दोगुना। उनका यह वाक्य कुभाग ही लगा। भोपाल में सुबह 10 बजे प्रचारित कार्यक्रम और गाड़ी के पहुंचने का समय 8:30। मन ही मन महावीर जी को याद किया। कुभाग को सुभाग में बदलने का सबसे आसान तरीका अपने आराध्य की चरण-शरण ही है। जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में..भजते हुए पतवार उन्हीं को सौंप दी।
गाड़ी डेढ़ घंटे लेट सुबह 10 ही बजे रेलवे स्टेशन पहुंची। डॉ अमिता दुबे ने बाद में साफ किया कि कार्यक्रम 10:30 से है। स्टेशन पर उतरते ही श्रीधर जी के फोन पर फोन-“कहां पहुंचे।” “ड्राइवर से कहिए तेज गाड़ी चलाए। राज्यपाल निकल चुके हैं।” बिना नहाय-खाय, जैसे-तैसे महामहिम के पहुंचने के दो-तीन मिनट पहले ही हम सब स्टेशन से सीधे संग्रहालय पहुंच पाए। धन्य भाग हमारे..हम सब राष्ट्रीय संगोष्ठी में उद्घाटन सत्र से सम्मिलित होने का सौभाग्य मिल ही गया।
सप्रे संग्रहालय में “आचार्य-सप्रे युगीन प्रवृतियां एवं सरोकार” विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में तमाम विद्वान वक्ताओं के वक्तव्यों ने मध्य प्रांत की उस विशिष्ट परंपरा के दर्शन और सानिध्य का सुअवसर वैसे ही हमें भी दिया, जैसे कभी हमारे पूर्वज आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को बाबू हरिश्चंद्र कुलश्रेष्ठ जी से मिला था।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के साथ-साथ पंडित माधव राव सप्रे, दादा माखनलाल चतुर्वेदी, पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी आदि महापुरुषों के जीवन के साथ विभिन्न ज्वलंत विषयों पर राज्यपाल महामहिम मंगु भाई पटेल, पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति श्री केजी सुरेश, श्री सुखदेव प्रसाद दुबे, श्री श्रीकांत सिंह, डॉ अमिता दुबे, वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल, वीणा मासिक पत्रिका के संपादक श्री राकेश शर्मा, डॉ मंगला अनुजा, वरिष्ठ पत्रकार श्री अजय बोकिल, डॉ विकास दवे, श्री शैलेंद्र कुमार शर्मा, श्री लाजपत आहूजा, श्रीप्रकाश हिंदुस्तानी, श्री आनंद सिन्हा, सुश्री संयुक्ता बनर्जी, श्रीमती इंदिरा दांगी और श्रीमती इंदिरा त्रिवेदी के विचारों से लाभान्वित होना कम उपलब्धि तो नहीं।
सुश्री ममता यादव, शिवकुमार विवेक और सुश्री वन्या चतुर्वेदी के सधे संचालन में संपन्न विभिन्न सत्र छात्र छात्राओं के लिए उपयोगी तो रहे ही, हम लोगों के लिए भी। फिल्म समीक्षक श्री विनोद नागर का धन्यवाद ज्ञापन भी एक तरह का प्रेरक उद्बोधन ही रहा। अग्रज डॉ कृपा शंकर चौबे की अनुपस्थिति कदम-दर-कदम सालती रही।
इस विचार गंगा में बुजुर्ग साहित्यकार श्री रत्नेश मिश्रा, बाल साहित्यकार श्री महेश सक्सेना, डॉ जवाहर कर्नावट, वरिष्ठ पत्रकार श्री सुधीर सक्सेना, श्री शैलेंद्र तिवारी, डॉ. कृपा शंकर चौबे जी के प्रतिनिधि के तौर पर वर्धा से पधारे शोध छात्र भाई चंद्रमणि, स्वतंत्र पत्रकार श्री दीपक पगारे, सुश्री मंजुलता सराठे से मिलना भी स्मृतियों की पोटली को सुखद अहसासों से भरने वाला ही रहा। ऐसे धीर-गंभीर लोग अब कम ही मिलते हैं। सप्रे संग्रहालय की साधना जी एवं कनिष्ठ वरिष्ठ जनों की निष्ठा और समर्पण और हिंदी संस्थान के भाई रामजन्म दिवाकर और अकबर जी की सक्रियता काबिल-ए-तारीफ रही।
रजत पर्व की धूम के लिए इस बार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी स्मृति न्यास एवं आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय स्मारक समिति ने मिलकर दो सांस्कृतिक कार्यक्रम विशेष रूप से तैयार किए या अनुरोध पूर्वक कराए। एक, आचार्य जी के जीवन पर केंद्रित नाटक। दो, द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ के लिए राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के भाई सियाराम शरण गुप्त द्वारा “पूजन” शीर्षक से लिखे गए गीत की नृत्य एवं संगीतमय प्रस्तुति। दौलतपुर में इन दोनों सांस्कृतिक प्रस्तुतियों ने सभी का मन मोहा था। इसलिए समापन समारोह में इनकी प्रस्तुतियों का भी खाका खींचा गया लेकिन नृत्य एवं संगीतमय प्रस्तुति कलाकारों की व्यस्तता के चलते संभव नहीं हो पाई।
समय निकालकर इप्टा-रायबरेली के रंगकर्मी कष्टसाध्य यात्रा करके श्री रमेश श्रीवास्तव, श्रीमती साधना शर्मा, श्री संतोष चौधरी, श्री रमेश यादव, श्री जनार्दन मिश्रा, श्री अमित यादव, श्री राहुल यादव एवं श्री लवकुश अपने निर्देशक श्री संतोष डे जी के नेतृत्व में सब काम धाम छोड़कर भोपाल साथ ही पहुंचे। रंग कर्मियों द्वारा प्रस्तुत नाटक “हमारे आचार्य जी” छोटे-बड़े सभी दर्शकों पर अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रहा या असफल, हम नहीं जानते। भोपाल से आ रही प्रतिक्रियाएं और व्हाट्सअप मैसेज बता रहे हैं कि प्रस्तुति अच्छी रही।
हमें और हमारे साथियों किसी को “हमारे आचार्य जी” नाटक के महत्व का कोई अंदाज नहीं था। इस महत्व से परिचित कराया भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार और राज्यसभा टेलीविजन के कार्यकारी निदेशक रह चुके श्री राजेश बादल ने। उन्होंने कहा कि अपने चार-पांच-दशक के पत्रकारीय जीवन में हमने किसी साहित्यकार के जीवन वृत्त पर केंद्रित नाटक अब तक नहीं देखा। श्री बादल खुद भी 8-10 बरस थिएटर कर चुके हैं। उनके मुताबिक, साहित्यकार के कथा-कहानी पर तो नाटक बने हैं पर उनके जीवन पर नहीं।
यह कहने के साथ श्री बादल का यह संकल्प हमें और बल देने वाला था कि हम भी पंडित माधव राव सप्रे एवं माखनलाल चतुर्वेदी के जीवन वृत्त पर नाटक इन्हीं कलाकारों (रायबरेली वाले) से तैयार कराएंगे। उनके इस वाक्य से चौगुनी हो गई कि हमारा रास्ता सही है। अगर राजेश बादल की बातों में सच्चाई है तो हमारे लिए यह संतोष की बात है कि “हमारे आचार्य जी” नाटक किसी साहित्यकार के जीवन वृत्त पर बना पहला नाटक है।
भोपाल का ताल ताल, बाकी सब तलैया..की कहावत समेटे राजा भोज की इस नगरी और यहां के प्रबुद्ध नागरिकों को नजदीक से देखने, सुनने और गुनने का जो अवसर भाग्य से अपने पास आया, वह हमारे जीवन की एक अनमोल और स्थाई संपत्ति है। स्मृति भवन में यह धरोहर हम ही नहीं हमारी पीढ़ियां सुरक्षित भी रखेंगी, ऐसा हमें विश्वास है।
भोपाल के हिंदी भवन और गांधी भवन के बड़े अहाते यह बताने के लिए काफी हैं कि मातृ और राष्ट्रभाषा के प्रति भोपाल आज से नहीं सदियों से सजग और सतर्क है। हिंदी भवन के सेवक तिवारी जी (पूरा नाम नहीं पता) एक आश्चर्य हैं। 12 तारीख की सुबह अपने हाथ की बनी चाय पिलाकर साथियों की तलब मिटाने वाले तिवारी जी ने थोड़ी ही देर में अपने अंदर के साहित्यकार से जो हम सबका परिचय कराया, वह उन्हें सेवक से साहित्यकार की श्रेणी में खड़ा करने के लिए काफी है। ईश्वर ऐसे सेवक हर संस्था, देश-प्रदेश, समाज को दें, वैसे वाले नहीं।
और हां! मध्य प्रदेश जनजातीय संग्रहालय देखना, मध्य प्रदेश के संपूर्ण आदिवासी जीवन से गुजरना है। एक परिसर में आदिवासी संस्कृति के संपूर्ण दर्शन करने हों तो जनजातीय संग्रहालय बस देख लीजिए। इस संग्रहालय की कल्पना और साकार रूप देने वाले कला मर्मज्ञ हरिचंदन सिंह भट्टी से चलते-चलते मिलना और उनकी चाय मयस्सर होना भी हमारी भोपाल यात्रा का एक बहुमूल्य उपहार है।
दिल से भोपाल के हर कण-हर क्षण को नमन है..
अथ यात्रा समाप्तम