सृष्टि का अवलोकन करते हुए यदि सबका कोई साझा उद्देश्य समझ में आता है तो वह है अभिव्यक्ति… साहित्य यानी जीवन की अभिव्यक्ति ! देखा जाए तो साहित्य का राजनीति से सीधे कोई लेना देना नहीं।.सच्चा साहित्य स्वांत सुखाय: ही लिखा जाता है। कुछ लोग हर चीज़ को या तो व्यापार बना देते हैं या फिर हर चीज़ का लाभ उठाने के लिए प्रयास करते है।
साहित्य और राजनीति विपरीत दिशाओं में दौड़ती हुई दो धाराएं हैं। विपरीत दिशाओं में बहती हुई को जोड़ना एक मानसिक प्रयास हो सकता है, लेकिन इस प्रक्रिया में सहजता का विलुप्त हो जाना लगभग तय है। राजनीति जहां राज-समाज को एक निर्धारित व्यवस्था सुनिश्चित करने का उपक्रम करती है, वहीं…साहित्य का सम्बंध अंतरात्मा से उठती भावनाओं से है जिन्हें बन्दिशों में नही बाँधा जा सकता। साहित्य अंतरात्मा की एक उड़ान है एक साहित्यकार अपने सामाजिक दायित्य का निर्वहन करने के नाम पर बौद्धिक रूप से कुछ प्रयास भले कर ले परंतु कोमल तितलयों की उड़ान की मंजिल राजनीति की पथरीली सतह भला कैसे हो सकती है। भावनाओ के प्रसून अपनी अनुभूति की मस्ती में प्रस्फुटित होते है।
तथापि हम अपने पड़ोसी की पीड़ा और आसपास की दैनिक चर्या से उदासीन कैसे रह सकते हैं? साहित्यकार को अपने इस दायित्व की भूमिका तो निभानी ही होती है। साहित्य की परिधि विराट है…अनन्त विस्तार है इसके वितान का। साहित्य राजनीति की तरह किसी तयशुदा चौहद्दी में बँधा नही रहा है; न कल, न आज। न ही साहित्यय किसी राज-समाज-देश-काल का पिछलग्गू ही रह पाया। इसके उलट साहित्य अपनी मशाल लिए राजनीति के आगे-आगे चलता रहा। साहित्यकारों का दायित्व बनता है कि वह कविता, कहानी, लेख, आलेख, उपन्यास, संस्मरण के माध्यम से अपने दायित्व का निर्वहन करे।
इसी संदर्भ में हंस में एक बार दलित विमर्श विषयक अनभै साँचा से राजेन्द्र यादव जी की बातचीत थी। राजेन्द्र यादव जी ने कहा था कि-
सत्ता के खेल में कोई रास्ता दिखाई नही देता इसलिये यहीं साहित्यकार का रोल आता है। राजनीति में तो वोट-बैंक बनाने का काम होता है उस समय से राजनीतिक जागरूकता तो होती है पर भीतरी सांस्कृतिक और सामाजिक जागरुकता नही आ पाती। राजनीति समाज की यथास्थिति का इस्तेमाल करते हैं और उसे बनाये रखते हैं। साहित्यकार की भूमिका यहां आती है कि वह भीतर से चीजों को बदले।समाज अगर चीजों को नही बदल पा रहा तो साहित्य पहल करे और राजनीति को चिन्तन-मंथन के लिए उकसाये उसे उठाये और एक दिशा इंगित कर बढ़ने को बाध्य करे।
राजनीति प्रायः हर देश-कालमे येन केन सत्ता-प्राप्ति का साधन ही रही है। मगर विक्रमादित्य काल का कालिदास-सोहनोक हो, खिलजी का समकालीन खुसरो हो, अकबरी दरबार के रहीम हो, आजादी पूर्व के भारतेंदु, प्रेमचंद हो या आधुनिक भारत के रेणु-नागार्जुन-पाश-धूमिल, सबने साहित्य को समकालीन राजनीति को आम जन के हित में मोड़ने-जोड़ने-रोकने-टोकने की गुरुतर और सार्थक भूमिका निभायी।
एक चर्चित उद्धरण का उल्लेख करना यहाँ सान्दर्भिक होगा।कहते हैं कि नेहरू और दिनकर एक दिन संसद की सीढ़ियां उतर रहे थे।बातचीत में मशगूल नेहरू अचानक बुरी तरह लड़खड़ा गये। कद काठी से भी मजबूत दिनकर ने उन्हें थाम लिया। नेहरु ने आभार जताते हुए कहा-‘ अभी आप थाम न लेते तो गिर ही जाता !’
दिनकर ने मौके का लाभ उठाते हुए उत्तर दिया–‘पंडित जी, राजनीति जब भी लड़खड़ाती है, साहित्य उसे थाम लेता है’ और हंसते हुए राजनीति और साहित्य सीढ़ियां उतरने लगे।