संशय भरा दौर
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संशय भरे इस दौर में
न कोई आदर्श टिक रहा न वाद
रूह कंपाने वाली घटनाओं
त्रासदियों
और आपदाओं के बीच
बेहिचक लिए जा रहे हैं
ऐंद्रिक थिरकन और लहालोट वासनाओं का स्वाद
बेधड़क हो रहा शीलभंजन
और छविभंजन का कारोबार
तीव्र और तात्कालिक हो गए हैं जीवन के व्यवहार
हर स्तर पर क्षीण हुआ है स्थायी भाव
इस तिकड़मी और हिंसक दौर में
परछाइयां भी भरोसेमंद नहीं रहीं
पति-पत्नी
प्रेमी-प्रेमिका भी छुपे एजेंडे से लैस हैं
दिशाहीन और धर्मांध हो गया है शासक वर्ग
हाशिए पर हैं मजदूर, किसान और बेरोजगार
अनसुने रह जा रहे हैं उनके दुख-दर्द
टुकड़ा-टुकड़ा चिंतन वाले उत्तर आधुनिक दौर में
कलाकार और कलमकार भी हो गए हैं करियरिस्ट
अब न कोई खांटी कलावादी रहा
न सचमुच का कम्युनिस्ट
प्रेम, प्रकृति और संवेदनाओं से दूर
इस उपभोक्तावादी समय में
विद्या से विनय नहीं चतुराई फलित होती है
जीवन के हर क्षेत्र में
विकास की परिमाणात्मक गति तेज है
और गुणवत्ता मूल्यों से दूर
इसीलिए तो अब
अंगोछा भर गुलाल से भी सूर्ख नहीं होते चेहरे।
–रणविजय सिंह सत्यकेतु–
हिंदुस्तान टाइम्स
इलाहाबाद