गौरव अवस्थी ‘आशीष’
रायबरेली/उन्नाव
बात सरस्वती के इतिहास से शुरू करने जा रहा हूं। वर्तमान को समझने के लिए इतिहास में झांकना-जानना जरूरी है। आचार्य द्विवेदी के समय में “सरस्वती” में लेख-निबंध-कविता या अपनी पुस्तक की समीक्षा छपने की प्रतीक्षा/लालसा रहती थी। सरस्वती में लेख-कविता छपने पर साहित्यिक मान्यता स्वत: मिलने की गारंटी। 100 साल पहले भी यही था और आज भी यही।
इतिहास
सरस्वती प्रयागराज से वर्ष 1900 में प्रकाशित होनी शुरू हुई। 1903 में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने संपादन संभाला। बात उन्हीं शुरुआती दिनों की है। उन्हीं के समकालीन लेखक संपादक हुए श्री रूपनारायण पांडे जी। पांडे जी अपने युवा जीवन में छंद लिखते थे लेकिन अस्वीकृत होने के डर से उन्हें छपने के लिए कहीं भेजते नहीं थे। नागरी प्रचारक का संपादन छोड़कर वह भारत धर्म महामंडल की मुख्य पत्रिका निगमागम चंद्रिका का संपादन करने के लिए काशी प्रवास पर आए। उनके छंद पढ़ने के बाद काशी के एक मित्र ने छंद कविता सरस्वती में छपने के लिए आचार्य द्विवेदी के पास भेजने का आग्रह किया।
पांडे जी मानते थे कि सरस्वती उच्च कोटि की पत्रिका है और अप्रसिद्ध लेखक-कवि की कविता को स्थान कहां मिल सकेगा? एक आशंका और कविता अस्वीकृत होकर लौट आने के काल्पनिक डर मन में उनके बैठा हुआ था लेकिन मित्र ही कहां मानने वाले? फिर आचार्य जी को जानने वाले जो ठहरे। जोर देकर कहा- द्विवेदी जी कविता के जौहरी हैं। वह लंबी चौड़ी उपाधि नहीं, प्रतिभा देखते हैं। मित्र के बार-बार आग्रह पर उन्होंने डरते-डरते कविता भेजी। वह आश्चर्यचकित तब हुए जब सरस्वती में उनकी कविता को आचार्य द्विवेदी ने स्थान तो दिया ही एक पत्र भी लिखा-“आपकी सरस्वती शीर्षक कविता मिली बहुत अच्छी है। मैंने उसे 2 बार पढ़ा। आपने अच्छी प्रतिभा और कवित्व शक्ति है। मैंने कभी किसी पत्र-पत्रिका में आज तक आपकी कविता नहीं देखी थी। कविता से जान पड़ता है, आप अच्छे से कविता लिखते रहे हैं। आपकी यह रचना में शीघ्र ही सरस्वती में प्रकाशित करूंगा। आशा है आप सरस्वती को अपनी सूचियों से समलंकृत करते रहेंगे।
वर्तमान
40 वर्षों के व्यवधान के बाद त्रैमासिक रूप में ही सही सरस्वती एक बार फिर हम सबके हाथों में है। प्रकाशक वही इंडियन प्रेस प्रयागराज है पर संपादन प्रोफेसर देवेंद्र शुक्ल के हाथों में है। सरस्वती में आचार्य द्विवेदी द्वारा बनाई गई परंपरा का पालन आज भी हो रहा है। हम लेखक न कवि। हम तो सिर्फ आंखों-देखी सूचनाओं को पाठकों तक पहुंचाने वाले पत्रकार ठहरे। खबरीलाल। आंखों के सामने से गुजरे कोरोना संकट को पहले खबर, बाद में अपनी पहली कहानी के रूप में लिपिबद्ध करके समय के सदुपयोग के लिए एक कहानी संग्रह-“आकाश में कोरोना घना है..” मित्रों के सहयोग और लिटिल बर्ड प्रकाशन-नई दिल्लीकी सर्वेसर्वा साहित्यकार श्रीमती कुसुमलता सिंह जी की वजह से प्रकाशित कर पाए। पाठकों का प्रेम मिला। हौसला बढ़ा। दूसरे कहानी संग्रह-“कितना अथाह-कितना अपार” की रूपरेखा बनी और देश-विदेश के स्वनामधन्य लेखकों/कहानीकारों के सहयोग से यह संग्रह भी छपकर पाठकों तक पहुंच गया। कुछ अच्छी-कुछ सामान्य समीक्षाएं सामने आई। मन उसीसे तृप्त था।
सरस्वती के प्रधान संपादक प्रोफेसर शुक्ल ने कहानी संग्रह भेजने का आदेश दिया। नहीं पता था कि आचार्य द्विवेदी के असली वारिस सरस्वती के वर्तमान संपादक प्रोफ़ेसर शुक्ल दोनों कहानी संग्रह की इतनी सारगर्भित समीक्षा लिखाकर सरस्वती में स्थान देंगे। यह वही परंपरा है, जिसे आचार्य द्विवेदी ने अपने कठिन परिश्रम, जुनून और अथाह ज्ञान की बदौलत निर्मित किया था। एक मायने में उससे भी एक कदम आगे। आचार्य द्विवेदी के समकालीन लेखक कवि रूप नारायण पांडे जी ने तो मित्र के आग्रह-दबाव पर सरस्वती में अपनी छंद कविता भेज भी दी थी, लेकिन हमारे पास आग्रह था न हिम्मत और न कोई उम्मीद ही। प्रोफेसर शुक्ल ने दोनों कहानी संग्रह की समीक्षा को प्रमुखता से स्थान देकर सरस्वती का ताजा अंक (अप्रैल-जून 2021) कोरोना पर केंद्रित करके एक आश्चर्य मिश्रित गुदगुदी की अनुभूति अलग से कराई है। यह भी कि कोरोना संकट के समय ही आंखों देखे हाल पर लिखे गए एक लेख-“महामारी और नगर-नगर मणिकर्णिका” को भी स्थान देकर अकिंचन को उपकृत किया है। कोरोना महामारी को केंद्र में रखकर लिखे गए डॉ भावना, श्रीधर द्विवेदी, प्रदीप कुमार ठाकुर और अरुण कुमार त्रिपाठी के लेख पठनीय और मननीय हैं।
निष्कर्ष
परंपरा के निर्माणकर्ता आचार्य द्विवेदी और पालनकर्ता प्रोफ़ेसर शुक्ल के प्रति विनम्र प्रणाम निवेदित करते हुए मन बार-बार कह रहा है कि भले ही सरस्वती का प्रवाह चार दशक तक रुका रहा हो पर नए प्रवाह में वही रवानी है। वही भाव है। वही सुभाव। देर से सही इंडियन प्रेस के वर्तमान मालिक श्री सुप्रतीक घोष, उनके अग्रणी सलाहकार श्री महेश चंद्र चट्टोपाध्याय ने सही हाथों में सरस्वती सौंपी है। संपादकीय सहयोगी के रुप में श्री अनुपम परिहार का सरस्वती से जुड़ना भी कम उपलब्ध की बात नहीं है।
एक बार फिर सरस्वती के प्रधान संपादक प्रोफ़ेसर शुभ एवं प्रकाशको के प्रति हार्दिक आभार…