गौरव अवस्थी
हिंदी की एक चर्चित मसल है-सब तज, हरि भज। अधिकांश के लिए इस मसल का अर्थ सब काम धाम छोड़कर ईश्वर की उपासना ही है लेकिन हिंदी के प्रथम आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के लिए इस मसल के माने सिर्फ माला फेरना नहीं है। कर्मयोगी आचार्य द्विवेदी के लिए ‘सब तज, हरि भज’ मसल नहीं आदर्श वाक्य है। सूत्र है, अपना काम निष्ठा, लगन और ईमानदारी से करने के लिए प्रेरित करने वाला।
2 मई 1933 को काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा अभिनंदन ग्रंथ प्रदान करने के वक्त दिए गए अपने ‘आत्म निवेदन’ में वह कहते हैं -‘रेलवे की नौकरी छोड़ने पर मेरे मित्रों ने कई प्रकार से मेरी सहायता करने की इच्छा प्रकट की पर मैंने सबको अपनी कृतज्ञता की सूचना दे दी और लिख दिया कि अभी मुझे आप के सहायता की विशेष आवश्यकता नहीं। मैंने सोचा अव्यवस्थित चित्त मनुष्य की सफलता में सदा संदेह रहता है। क्यों न मैं अंगीकृत कार्य ही में अपनी सारी शक्ति लगा दूं? प्रयत्न और परिश्रम की बड़ी महिमा है। अतएव ‘सब तज, हरि भज’ की मसल को चरितार्थ करता हुआ इंडियन प्रेस द्वारा प्रदत्त काम में ही मैं अपनी शक्ति खर्च करने लगा।’ सब जानते हैं कि उन्होंने अपना सारा जीवन संपादन और भाषा सुधार में खपा दिया।
सरस्वती का संपादन संभालते वक्त उन्हें पत्रिकाओं के अनियमित प्रकाशन संबंधी बातें यत्र तत्र पढ़ने को मिलती थी। इसीलिए उन्होंने अपने लिए पांच आदर्श- वक्त की पाबंदी, मालिकों का विश्वासपात्र, पाठकों के हानि लाभ का ख्याल, न्याय पथ से कभी विचलित न होने और ज्ञान में सतत प्रयासरत रहने के निश्चित किए। उन्होंने आजीवन इन्हीं आदर्शों पर अमल किया।
अपने ‘आत्म निवेदन’ में वह कहते भी हैं-‘सरस्वती में प्रकाशित मेरे लघु लेखों और आलोचनाओं से ही पता लगा सकते हैं कि मैंने कहां तक न्याय मार्ग का अवलंबन किया। जानबूझकर मैंने कभी अपनी आत्मा का हनन नहीं किया, न किसी के प्रसाद की प्राप्त की आकांक्षा की, न किसी के कोप से विचलित ही हुआ।’ वह कहते हैं-‘मैंने अपनी इस जिम्मेदारी का निर्वाह जी जान होम कर किया। चाहे पूरा का पूरा अंक मुझे ही क्यों न लिखना पड़ा हो पर कापी प्रेस को हमने समय पर ही भेजी।’
आचार्य द्विवेदी की कार्य के प्रति लगन और निष्ठा का प्रमाण सरस्वती 1903 के समस्त अंक हैं। लेखकों की कमी और कुछ मूर्धन्य लेखकों के सरस्वती के बहिष्कार के चलते आचार्य द्विवेदी को संपादन के प्रथम वर्ष में अधिकतर लेख खुद लिखने पड़े। आचार्य द्विवेदी पर लखनऊ विश्वविद्यालय से 1948 में पहला शोध करने वाले डॉ उदयभानु सिंह के मुताबिक वर्ष 1903 के सरस्वती के सभी अंकों में कुल रचनाएं 109 प्रकाशित हुई थी और इनमें 70 द्विवेदी जी की थी। इसके बाद सबसे ज्यादा लेट पंडित गिरजा दत्त बाजपेई और फिर अन्य के लेख थे। ऐसा नहीं है कि पहले वर्ष में लेख आए नहीं थे लेकिन उनमें संशोधन की बहुत जरूरत थी। अगर संशोधन किए जाते तो उनका पूरा मजमून ही बदल जाता।
सरस्वती का संपादन करते हुए द्विवेदी जी एक बार बीमार पड़े। उनके बचने की आशा नहीं रही। इस पर उन्होंने 3 महीने की सामग्री इंडियन प्रेस को भेजी और लिखा कि मेरे मरने के बाद भी इसी से सरस्वती प्रकाशित करते रहें, तब तक कोई न कोई संपादक मिल ही जाएगा। वर्ष 1920 में सरस्वती का संपादन छोड़ते वक्त भी उन्होंने तमाम लेख उत्तराधिकारी को सौंपे, ताकि सरस्वती के प्रकाशन में कोई व्यवधान न आए। ऐसे संपादक थे द्विवेदी जी।
संपादन के प्रथम वर्ष में लेखकों की कमी के चलते ही उन्होंने कमला किशोर त्रिपाठी, गजानन गणेश गर्व खंडे, भुजंग भूषण भट्टाचार्य, श्रीकंठ पाठक एमए, नियम नारायण शर्मा आदि छद्म नामों से कई लेख लिखे। यह क्रम तब तक जारी रहा जब तक सरस्वती में लिखने के लिए लेखकों की नई जमात तैयार नहीं हो गई।
व्याकरण सम्मत भाषा निर्माण के लिए उनके अपने समय के लेखक- संपादक से ‘लट्ठम-लट्ठ’ भी हुआ। इसके एक नहीं कई किस्से हैं। ऐसा ही एक चर्चित किस्सा भारत मित्र के संपादक बालमुकुंद गुप्त और आचार्य द्विवेदी के बीच अस्थिर एवं अनस्थिर शब्द को लेकर हुए वाद-विवाद का है। यह विवाद बरसों चला। उस पर विस्तार की जरूरत नहीं। अनस्थिर शब्द की प्रामाणिकता पर आचार्य द्विवेदी ने 21 अक्टूबर 1927 को एक लंबा लेख लिखा।
लेख का यह अंश कम लोगों ने ही पढ़ा होगा-‘कुछ लोगों ने अनस्थिरता को अशुद्ध और अस्थिरता को शुद्ध बताया था। अनस्थिरता हिंदी भाषा का वैसा ही शब्द है जैसा अनगिनत, अनबन, अनबोला अनमोल आदि। परंतु यदि अनस्थिरता संस्कृत भाषा का शब्द मान भी लिया जाए तो संस्कृत व्याकरण के अनुसार भी वह शुद्ध ही है। यथा, न विद्यते अस्थिरं यस्मात तत अनस्थिरं, तस्य भाव: अनस्थिरता। अर्थात जिससे बढ़कर अस्थिर वस्तु और कोई है ही नहीं, उसे अनस्थिर कहना चाहिए। उसी से अत्यंत अस्थिर का भाव सूचित होता है। ऐसे कई प्रयोग संस्कृत भाषा में पाए जाते हैं। देखिए, गंगातीरमनुत्तमं ही सफलं तत्रापि काश्युत्तमा। यह एक प्रसिद्ध श्लोक का पहला चरण है। इसमें अनुत्तम शब्द का अर्थ अत्यंत उत्तम है। विवादियों ने अपनी अज्ञानता के कारण इस शब्द को अशुद्ध बताकर व्यर्थ ही अपना और दूसरों का समय नष्ट किया था। (आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के श्रेष्ठ निबंध संपादक विनोद तिवारी पृष्ठ 128)
इस विवाद का पटाक्षेप भी नाटकीय तरीके से हुआ। इसके लिए हमें केदारनाथ पाठक के द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ’ में ‘श्रद्धांजलि’ शीर्षक से पृष्ठ संख्या 532 पर प्रकाशित लेख से गुजरना होगा। यह लेख पढ़कर आप उस विवाद के नाटकीय अवसान को जान सकते हैं।
लेख के अंश हैं-लाला बालमुकुंद गुप्त अपने जीवन के अंतिम दिनों में कानपुर के प्रसिद्ध उर्दू मासिक पत्र जमाना के संपादक मुंशी दया नारायण निगम के साथ द्विवेदी जी से मिलने जूही गए। निगम महाशय के परिचय कराते ही गुप्तजी द्विवेदी जी के चरणों पर गिर गए। एक अपरिचित को इस प्रकार चरणों पर माथा टेकते देखकर द्विवेदी जी ने उठाकर हृदय से लगा लिया। तब निगम महाशय ने बताया कि आप भारत मित्र के संपादक लाला बालमुकुंद गुप्त हैं। गुप्तजी ने अश्रुधारा बहाते हुए कहा- मैं अपराधी हूं और आपके सामने अपने उन अभद्रता पूर्ण व्यवहारों के लिए क्षमा मांगने और प्रायश्चित करने आया हूं। आप विद्या में गुरु बृहस्पति, स्नेह में ज्येष्ठ भ्राता तथा करुणा में बुद्ध के सदृश हैं। आपके चरणों पर मैं बार-बार अपना सिर रखता हूं।
भाषा या सिद्धांत को लेकर उनकी भिड़ंत सिर्फ बालमुकुंद गुप्त से ही हुई, हो ,ऐसा नहीं है। ‘हिंदी भाषा और उसके साहित्य’ लेख में सरस्वती में पहले प्रकाशित हो चुके अपने लेखों की चर्चा न होने पर अयोध्या प्रसाद खत्री से भी उनका विवाद हुआ। द्विवेदी जी ने उन्हें लिखा कि छोटी-छोटी बातों पर नुक्ताचीनी करना छोड़ दीजिए। इस पर उन्होंने इसी शीर्षक से कई पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित कराए और पंफलेट भी छपवाया। सरस्वती में एक लेख नहीं छापने पर बीएन शर्मा ने वेंकटेश्वर समाचार में द्विवेदी जी को लेकर अनुचित बातें लिखीं। द्विवेदी जी के ‘आर्य शब्द की व्युत्पत्ति’ की आलोचना करते हुए शर्मा जी ने उन पर आर्यमित्र पत्र में व्यक्तिगत आक्षेप किए। काफी प्रतीक्षा के बाद भी जब श्री शर्मा ने क्षमा याचना नहीं की तब द्विवेदी जी ने उन्हें मानहानि का नोटिस भेजा। इस पर बी एन शर्मा ने उनसे क्षमा प्रार्थना की और द्विवेदी जी ने उन्हें माफ कर दिया।
यह सोचने और समझने की बात है कि शिक्षा के लिए पीठ पर आटा-दाल-चावल की गठरी रखकर 13 वर्ष का जो बालक 16 कोस पैदल जाता हो। आर्थिक अड़चनों से जिसकी प्रारंभिक शिक्षा तक पूरी नहीं हो पाई, उसी ने स्वाध्याय और अपनी लौह लेखनी के बल पर दो दशक तक 10 करोड़ हिंदी भाषियों का साहित्यिक अनुशासन किया। लखनऊ विश्वविद्यालय से 1948 में हिंदी और आचार्य द्विवेदी पर प्रथम शोध करने वाले डॉ उदयभानु सिंह लिखते हैं-‘शैशव से लेकर स्वर्गवास तक उनका संपूर्ण जीवन प्रतिकूल परिस्थितियों के विरुद्ध घोर संग्राम था। मतभेदों, विरोधों, प्रतिद्वंद्वियों और आपत्तियों की आंधी-तूफान और बवंडर भी उन्हें उनके प्रशस्त पथ से तनिक भी डिगा नहीं सके।’
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की आज 159वीं जयंती है। उनका जन्म रायबरेली जनपद के गंगा के किनारे बसे गांव दौलतपुर में 9 मई 1864 को हुआ। उन्होंने रायबरेली शहर में 21 दिसंबर 1938 को अंतिम सांस ली।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को शत् शत् नमन