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व्यंग : हँसमुख भाई से भेंट-1

Jitendra Kumar by Jitendra Kumar
23/04/22
in मुख्य खबर, साहित्य
व्यंग : हँसमुख भाई से भेंट-1

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चंद्रशेखर कुशवाहाचंद्रशेखर कुशवाहा l


हँसमुख मेरा दोस्त है। अक्सर बात होती रहती है। मेरे और उसके विचार काफी मिलते हैं। बस थोड़ा सा अंतर है। मैं बेचैन और उदास प्रकृति का हूँ। वह मस्तमौला है। आज मिल गया था। हाल-चाल हो जाने के बाद दोनों साहित्य पर कूद पड़े। अक्सर हम लोग कहीं न कहीं कूदते ही रहते हैं। उदासी और मौज के संगम हैं हम दोनों। कुछ लोग कहते हैं कि तुम दोनों एक ही थैले के चट्टे-बट्टे हो। बात हम लोग ऐसे करते हैं जैसे सभ्य ‘समाज’ के दो ‘नागरिक’ किसी अज्ञात ‘तीसरी नदी’ की तलाश कर रहे हों।

‘भाई दो गिलास जूस पिलाना’, गन्ने वाले को बोलकर मैं हँसमुख भाई की ओर मुड़ा।

-“यार हँसमुख! ये बताओ। अच्छा वक्ता किसे कहते हैं?” वह स्वभावत: हँसने लगा। ऐसी बातों पर वह अक्सर हँस देता है। गंभीर होना उसे कभी नहीं आया। अगर मैं कहता कि ‘यार भारत अखंड होने जा रहा है’ तब भी वह हँस देता। एक एक गिलास गन्ने का जूस हाथ में लेकर हम दोनों एक दूसरे की ओर मुड़े। फिर वह बोला-

देखो यार शेखर! अच्छा वक्ता वह होता है जिसे संचालक के नाम लेकर आमंत्रित करने से पहले ही पता हो जाता है कि अब मेरा नम्बर आ गया है। वह ‘प्लास्टिक’ के बोतल से सिर्फ दो घूँट पानी पीता है। एक खास अदा के साथ मुँह पोंछता है। गहरी साँस लेता है। नाम पुकारे जाने पर ताली पिटने का इंतजार करता है। फिर कुर्सी छोड़कर माइक पकड़ लेता है। अच्छा वक्ता कुछ न कुछ पकड़े ही रहता है।

मैंने कहा-“यार! ये क्या बता रहे हो। ये तो सामान्य…

उसने टोक दिया-“सामान्य तो कतई नहीं। यह एक अच्छे वक्ता के प्रारंभिक लक्षण हैं। आगे सुनो।”

उसने बोलना जारी रखा-“अच्छा वक्ता समय का बड़ा पाबंद होता है। वह आते ही सबसे पहले यह बोलता है कि मैं कितने समय तक बोलूँगा। फिर एक वाक्य और बनाता है कि ‘अमुक जी’ ने मुझे आदेश दिया है कि ज्यादा नहीं बोलना है। फिर जिस विषय पर बोलना है उसका चिट्ठा खोलकर हाथ में ले लेता है।”

मैंने हँसमुख की तरफ उदासी से देखा। सोचा कि यह सब क्या बोल रहा है। मेरा जूस खत्म हो चुका था। पर वह था कि रस ले रहा था। जिंदगी का रस लेना मुझे कभी नहीं आया। पर इस गर्मी में उसका भरा हुआ गिलास देखकर मैंने अपने मुँह का पानी जरूर संभाल लिया था। अब जाकर उसने पहला घूँट पिया और बोला-“अच्छे वक्ता को विषय पर आने में काफी देर लग जाती है। उसे यह खास बात बतानी होती है कि किसने फोन करके उसे आमंत्रित किया है। विषय से हटकर बात करने में अच्छे वक्ता को बड़ा सुभीता रहता है। विषय पर आने से पहले अच्छा वक्ता फिर से एक वाक्य बनाता है कि ‘क्योंकि समय ज्यादा नहीं है, इसलिए सीधे विषय पर आता हूँ।’ ऐसा कहकर वह मंचासीन सदस्यों की ओर देखकर मुस्कुराता है। मंचासीन सदस्य मुदित मन से कहते है-‘जरूर-जरूर।”

मेरे मन में एक चित्र बनने लगा। मुझे लगा कि मैं हँस दूँगा। पर मुस्कुराकर मामला रफा-दफा कर दिया। उसने बोलना जारी रखा-“अच्छे वक्ता को प्यास बार-बार लगती है। वह बीच-बीच में एक-दो घूँट लेकर समय देवता को कृतार्थ करता रहता है। सबसे पहले वह पहले के वक्ताओं के ही चार-पाँच वाक्य दोहराकर उनका मान बढ़ाता है। फिर कुछ बातें विषय पर बोलता है। थोड़ी देर बाद वह फिर कहता है कि-‘क्योंकि समय ज्यादा नहीं है, इसलिए आगे मैं अपनी बात को संक्षेप में रखूँगा।’ थोड़ी देर वह विषय पर बोलता है। हालाकि विषय पर सुनने की दिलचस्पी भी किसी को नहीं होती। सभी श्रोता सोशल मीडिया पर चीजों को लाइक करते रहते हैं। कुछ का धैर्य जाता रहता है। कुछ धर्मसंकट में बैठे रहते हैं। बात अगर किसी कविता संग्रह की हो रही हो तो अच्छा वक्ता कई तरीके अपनाता है। या तो वह पूरी बात कह देगा। या ज्ञान के अभाव में (जो अक्सर अध्ययन की कमी से होता है) ‘अमुक आलोचक’ का उदाहरण देकर कहेगा कि-‘कविता पर ज्यादा बात नहीं करनी चाहिए। कविता सीधे-सीधे पढ़ देनी चाहिए।’ फिर वह कविता पढ़ने लगता है। कविता पढ़ चुकता है तो देखता है कि समय समाप्ति की ओर है। तब वह फिर एक वाक्य बनाता है। अच्छा वक्ता वाक्य बनाने में माहिर होता है। वह अध्यक्ष महोदय की ओर देखकर कहता है-‘क्योंकि अब समय समाप्त हो रहा है, इसलिए मैं अपनी वाणी को विराम देता हूँ। फिर कभी मौका मिला तो मैं इस पर विस्तार से बात करूँगा।’ फिर ताली बजती है और अच्छा वक्ता अपनी कुर्सी पर बैठ जाता है। अच्छा वक्ता समय पर बड़ा उपकार करता है। हालाकि सारे वक्ता अच्छे नहीं होते। कुछ वक्ता ऐसे होते हैं जिनको विषय के बाहर बोलना आता ही नहीं। सारा समय विषय पर ही खर्च कर देते हैं।”

इस बार मुझसे हँसे बिना रहा न गया। वह भी हँसने लगा। और अंत में गिलास का पूरा जूस एक बार में ही खाली कर गया। मैंने साइकिल को स्टैंड से उतारा। हँसमुख को आगे डंडे पर बैठाया और आनंद भवन से बालसन चौराहे की तरफ चल दिया। आगे ब्रेकर पड़ा तो वह थोड़ा चौंका। हडबडी में बोला-“यार शेखर! तुम मुझे आगे क्यों बैठाते हो? पीछे कैरियर है तो।” “वह सीट किसी और के लिए रिजर्व है दोस्त।” मैंने कुछ गहराई से कहा और मन के किसी कोने में एक चेहरे का विम्ब उभर आया।

“यदि उसने आगे बैठने की जिद की तो?” उसके इस वाक्य में मेरे लिए व्यंग्य था औए चेहरे पर वाह्य आनंद।

“तो उसकी इच्छा का सम्मान किया जाएगा।” मैंने अपने मन की उदासी में अमृत घोल लिया था। कोई नहीं जानता कि हम दोनों एक दूसरे के ऋणी हैं। वह मेरी गंभीरता का ऋणी है और मैं उसकी फ़कीरी का।

 

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