अजीत द्विवेदी
जब से रूस और यूक्रेन का युद्ध शुरू हुआ है अपनी अलग-अलग मजबूरियों के कारण भारत लगातार संतुलन साधने की कूटनीति कर रहा है और इस प्रयास में भारत की कूटनीति पूरी तरह से बिखर गई है। इसमें जो तारतम्य होना चाहिए, जिस तरह की बारीकियां होनी चाहिए और अपने हितों को पूरा करने की स्पष्ट सोच दिखनी चाहिए वह नहीं दिख रही है। एक अक्टूबर को संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में एक प्रस्ताव आया, जिसमें यूक्रेन के चार हिस्सों को रूस में मिला लेने का विरोध किया गया। रूस ने इस प्रस्ताव को वीटो कर दिया लेकिन हैरानी की बात है कि भारत ने इस प्रस्ताव पर वोटिंग से गैर-हाजिर रहने का विकल्प चुना। इससे भी दिलचस्प बात यह है कि वही प्रस्ताव अब संयुक्त राष्ट्र महासभा में रखने के लिए लाया गया तो रूस ने महासभा में गुप्त बैलेट से मतदान की मांग की, जिसको लेकर 10 अक्टूबर को वोटिंग हुई तो करीब एक सौ देशों के साथ भारत ने भी रूस के विरोध में वोट किया। हालांकि यह प्रक्रियागत मामले को लेकर वोटिंग थी, लेकिन भारत ने रूस का विरोध किया। और फिर महासभा में 12 अक्टूबर को वोटिंग की बारी आई तो फिर भारत वोटिंग से गैरहाजिर हो गया।
भारत पिछले आठ महीने से इसी तरह संतुलन बैठाने की कोशिश कर रहा है। आठ महीने में दो बार इसी तरह के मामलों में रूस के खिलाफ वोट किया और बाकी लगभग हर बार वोटिंग से गैरहाजिर रहा। भारत की कूटनीति इतनी रैंडम है कि कभी भारत के नेता और राजनयिक रूस को नसीहत देने लगते हैं तो कभी अमेरिका और यूरोप से लडऩे लगते हैं। समझ ही नहीं आता है कि भारत की कूटनीति किस दिशा में बढ़ रही है। प्रधानमंत्री मोदी ने उज्बेकिस्तान के समरकंद में शंघाई सहयोग संगठन यानी एससीओ देशों के सम्मेलन से इतर रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से मुलाकात की तो उनसे कहा कि युद्ध समाप्त होना चाहिए क्योंकि अभी युद्ध का समय नहीं है। हालांकि यह भी अजीब बात है क्योंकि कोई भी समय युद्ध का समय नहीं होता है और अगर कोई समय होता भी है तो वह कौन तय करेगा कि कब युद्ध का समय है? बहरहाल, पश्चिमी देशों ने प्रधानमंत्री की इस बात का समर्थन किया।
लेकिन फिर एक दिन भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर अपना ज्ञान देने लगे कि भारत और रूस की दोस्ती तब से है, जब अमेरिका और पश्चिमी देश भारत को हथियार नहीं देते थे, बल्कि उन्होंने भारत की बजाय एक सैन्य तानाशाही वाले देश पाकिस्तान को मदद करने के लिए चुना था। यह बात उन्होंने ऑस्ट्रेलिया के विदेश मंत्री के साथ साझा प्रेस कांफ्रेंस में कही। सोचें, ऑस्ट्रेलिया के साथ भारत भी क्वाड का हिस्सा है, जिसका गठन चीन की विस्तारवादी नीतियों का जवाब देने के लिए हुआ है और सब जानते हैं कि चीन और रूस किस तरह से आपस में जुड़े हुए हैं, ऑस्ट्रेलिया के सामने चीन का कैसा खतरा है और ऑस्ट्रेलिया किस तरह से पश्चिमी देशों का सहयोगी है। इसके बावजूद ऑस्ट्रेलिया के विदेश मंत्री के साथ प्रेस कांफ्रेंस में जयशंकर ने रूस से भारत की दोस्ती का राग छेड़ा और अमेरिका व पश्चिमी देशों पर निशाना साधा। इससे क्या हासिल हुआ या क्या हासिल होगा, यह कोई नहीं बता सकता है।
विदेश मंत्री से भी बड़े कूटनीति के जानकार भारत के पेट्रोलियम मंत्री हैं क्योंकि वे भी विदेश सेवा के अधिकारी रहे हैं और जयशंकर से सीनियर हैं। सो, मौके बे मौके वे भी कूटनीति पर बयान देते रहते हैं। उन्होंने पिछले दिनों बिना किसी खास संदर्भ के कहा कि भारत को जहां से मर्जी होगी वहां से कच्चा तेल खरीदेगा। यह बात उन्होंने रूस से तेल खरीद के मामले में कही। हकीकत यह है कि भारत सरकार रूस से तेल नहीं खरीद रही है। अमेरिका की पाबंदी के बाद भारत की सरकारी कंपनियों ने बहुत कम कच्चा तेल रूस से खरीदा है। भारत की निजी पेट्रोलियम कंपनियों ने जरूर रूस से सस्ता तेल खरीद कर उसे दुनिया के बाजार में महंगा बेचा और मुनाफा कमाया लेकिन सरकारी कंपनियों की खरीद बहुत मामूली रही है। फिर भी पेट्रोलियम मंत्री पता नहीं किसको चिढ़ाने के लिए यह बयान दे रहे थे कि भारत को जहां से मर्जी होगी वहां से तेल खरीदेगा। अगर ऐसा ही मर्जी का मामला है तो इंडियन ऑयल, भारत पेट्रोलियम और हिंदुस्तान पेट्रोलियम क्यों नहीं रूस से भरपूर सस्ता तेल खरीद रहे हैं और सरकार देश के लोगों को भी सस्ता तेल क्यों नहीं उपलब्ध करा रही है?
केंद्र सरकार के मंत्री और भाजपा के बड़े नेता प्रेस कांफ्रेंस करके दावा करते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी ने रूस और यूक्रेन का युद्ध रूकवा दिया था ताकि भारत के नागरिकों को यूक्रेन से निकाला जा सके। अगर ऐसा है तो भारत अपने इस असर का इस्तेमाल करके युद्ध खत्म कराने की पहल क्यों नहीं कर रहा है? इक्का दुक्का बयानों के अलावा भारत ने युद्ध खत्म कराने की कोई सक्रिय पहल नहीं की है। भारत ने कहा है कि वह शांति के हर प्रयास का समर्थन करने को तैयार है। लेकिन कैसे समर्थन करेगा? शांति का प्रयास कौन करेगा? भारत खुद क्यों नहीं पहल करता है? क्यों नहीं प्रधानमंत्री या विदेश मंत्री रूसी प्रतिनिधियों से बात करते हैं, चीन और अमेरिका से बात करते हैं, यूरोपीय देशों से बात करते हैं और युद्ध खत्म कराने का ठोस प्रयास कर रहे हैं?
रूस और यूक्रेन युद्ध की वजह से यूरोप के कई देश मुश्किल में हैं। सर्दियां शुरू होने के साथ ही कई यूरोपीय देशों में भयंकर सर्दी और अंधेरे का शिकार होंगे, क्योंकि रूस पर लगी पाबंदियों की वजह से गैस और कच्चे तेल की आपूर्ति बंद या बहुत मामूली आपूर्ति हो रही है। यूरोपीय देशों की तरह भारत के सामने भी बड़ा संकट है। रूस से कच्चा तेल खरीदने में अंतरराष्ट्रीय पाबंदियों की बाधा है तो रूस की शह पर सउदी अरब और ओपेक देशों ने उत्पादन कम रखने का जो फैसला किया है उससे कच्चे तेल के दाम में बेहिसाब तेजी आनी तय है। अगर युद्ध बढ़ता है, जिसके आसार दिख रहे हैं तो तेल से लेकर अनाज तक हर चीज का संकट होगा। रूस ने जिस तरह से कर्च पुल टूटने के बाद यूक्रेन पर बमबारी की है और मिसाइल दागे हैं उससे युद्ध बढऩे की संभावना है।
बेलारूस इस युद्ध में रूस की मदद कर रहा है और यूरोपीय देशों ने बेलारूस को भी पाबंदियों की चेतावनी दी है। इससे यह भी लग रहा है कि और देश इस युद्ध की चपेट में आएंगे या शामिल होंगे। परमाणु संयंत्रों पर हमले या परमाणु हमले का खतरा रियल दिख रहा है। सोचें, अगर युद्ध बढ़ता है तो भारत की अर्थव्यवस्था के लिए कितना बड़ा संकट पैदा होगा। महंगाई कहां पहुंचेगी, रुपया कितना गिरेगा, विकास दर कितनी कम होगी, अनाज की कैसी कमी होगी और रोजगार का क्या अभूतपूर्व संकट होगा! ऐसे समय में संतुलन बनाने की भारतीय कूटनीति से न भारत को कुछ हासिल हो रहा है और न अंतरराष्ट्रीय शांति में कोई योगदान हो पा रहा है।