-डॉ मनोज तत्वादी
विज्ञान लेखक। पेशे से सायको-थेरेपिस्ट । भारतीय अध्यात्म एवं विज्ञान के अंतर-संबंधों के अभ्यासक हैं।
सदियों से मस्तिष्क और हृदय में जंग छिड़ी है. मस्तिष्क-प्रधान सोच वाले खुद को बड़ा ही व्यवहार-कुशल व यथार्थवादी मानते हैं. वे यह मानते हैं की हृदय-प्रधान सोच बड़ी स्वप्निल, यथार्थ से बहुत दूर व अव्यावहारिक किस्म की होती है.कवि-लेखक-वैज्ञानिक दोनों ही खेमों में हैं.
मस्तिष्क और मानव के व्यवहार के संबंध में काफी समय से बहुत शोध हो रहे हैं. इसमें इंसान के धर्म संबंधी रुझानों और अन्य पहलुओ के मस्तिष्क से संबंधों का अध्ययन भी शामिल है. किन्तु अभी भी विभिन्न शोधों से जुटी मानव मस्तिष्क की जानकारी के संबंध में हमारे वैज्ञानिक संतुष्ट नहीं हैं. यही वह असंतोष है जो वैज्ञानिकों की सकारात्मक बैचेनी एवं उससे उपजने वाली निरंतर खोजते रहने की तीव्र इच्छा बनती है। यही जुनून सफलता भी दिलवाती है। हाल ही में हुए एक अध्ययन ने दिमाग के ऐसे खास सर्किट (Brain Circuit) की पहचान की है जो धार्मिक और आध्यात्मिक(Spirituality) कार्यों के लिए जिम्मेदार होता है.
पूर्व शोधप्रयोग
शोध टीम ने पाया कि आध्यात्मिकता/ धार्मिकता और न्यूरोसाइंस के परस्पर संबंध जानने हेतु पूर्व अध्ययनों ने क्रियात्मक न्यूरोइमेजिंग(Functional Neuro-Imaging) का उपयोग किया है जिसमें एक व्याक्ति के दिमाग का एम.आर.आय स्कैन(M. R. I SCAN) तब किया जाता है जब वह इनसे संबंधित कार्य कार्य करता है. इस स्कैन में वे हिस्से बाकी हिस्सों की अपेक्षा अधिक प्रकाशित दिखते है। इनके जरिए न्यूरो-वैज्ञानिक यह शोध करते थे कि बताए गए कार्य करने के दौरान मस्तिष्क के कौन से हिस्से सक्रिय होते थे. इन अध्ययनों के आंकड़ों ने अध्यात्म और मस्तिष्क के परस्पर संबंध में जो तस्वीर पेश की वह वैज्ञानिकों को संतुष्ट न कर पाई।
चरैवेती । चरैवेती ।।
मुख्य शोधकर्ता डॉ माइकल फर्ग्यूसन धर्म-अध्यात्म व मस्तिष्क के पररस्पर सह-संबंध(co-relation) से अधिक कारण(cause) जानने को उत्सुक थे। बेहतर उपाय खोजने की कोशिशें चलती रही। अंतत: बोस्टन स्थित ब्रिघम एंड वुमन हॉस्पिटल के माइकल फर्ग्यूसन व सहयोगी अन्वेषणकर्ताओं ने इस तरह के अध्ययन के लिए एक नया व उन्नत तरीका अर्थात लेजन नेटवर्क मैपिंग तकनीक(Lesion Network Mapping Technique) का उपयोग किया. लेजन अर्थात क्षति/ घाव ! इस नूतन तकनीक से शोधकर्ता टीम मनुष्य के जटिल प्रतीत होने वाले व्यवहार, स्वभाव का मस्तिष्क के खास सर्किट से संबंध पता कर सके. इस प्रयोग के लिए उन को चुना गया जिन मरीजों का दिमागी चोटों के लिए उपचार हुआ था। चुनते समय मस्तिष्क में मरीजों को अलग-अलग जगहों पर चोट की स्थितियों के आधार पर शोध के लिए निर्धारित किए गए थे जिससे शोध में व्यापकता या सके. शोध टीम का यह अभिनव तरीका कारगर साबित हुआ। उन्होंने आध्यात्मिकता और धार्मिकता को मस्तिष्क के एक अंदरूनी हिस्से से संलग्नीत पाया. उन्होंने पाया कि इनका संबंध दिमाग के एक खास सर्किट से है.
पायो जी मैंने सर्किट! पी ए जी में पायो !!
बायोलॉजिकल साइकिएट्री में प्रकाशित इस अध्ययन के प्रमुख अन्वेषणकर्ता माइकल फर्ग्यूसन (जो ब्रेन-सर्किट थेरेप्यूटिक्स के विशेषज्ञ हैं) का कहना है कि शोध के नतीजे सुझाते है कि यह दिमागी सर्किट पेरिएक्वेडक्टल ग्रे (Peri Aqueductal Gray=PAG) में केंद्रित है. यह मानव मस्तिष्क का वह हिस्सा है जो बहुत सारे कार्यों के लिए जिम्मेदार है जिसमें डर के हालात, दर्द को नियंत्रित करने(Pain Inhibition), सभी के भले के लिए किए जाने वाले बर्ताव(Altruism) और बिना शर्त वाला प्रेम(Unconditional Love) शामिल है. बतौर फर्ग्यूसन उन्हें यह जानकर हैरानी हुई की यह दिमागी सर्किट ही आध्यात्मिकता का केंद्र है।आध्यामिकता और धार्मिकता न्यूरोबायोलॉजिकल गतिकी में गहराई से जुड़ी है और हमारे न्यूरो ताने-बाने में जटिलता से गुंथी है.
जिन खोजा तिन पाईयां !!
शोध टीम ने ऐसे ८८ न्यूरोसर्जिकल मरीजों के प्रकाशित आंकड़ों का उपयोग किया जिन्होंने अपने ब्रेन ट्यूमर को हटाने के लिए सर्जरी कराई थी. चोटिल स्थितियां दिमाग की अलग-अलग जगहों पर फैलीं थी. मरीजों ने सर्जरी से पहले और बाद में सर्वे में आध्यात्मिक स्वीकार्यता आधारित सवालों के जवाब दिए। दूसरी ओर इन्हीं प्रश्नों के उत्तर उन चुने हुए १०५ मरीजों से भी हासिल किए गए जिन मरीजों को वियतनाम युद्द के दौरान सिर में चोट के कारण दिमाग में जख्म हो गए थे।
मैपिंग तकनीक से शोधकर्ताओं ने पाया कि पीएजी में केंद्रित खास मस्तिष्क सर्किट का आध्यात्मिकता से संबंध है. इस सर्किट में जख्मों या चोटों वाले सकारात्मक या नकारात्मक नोड (Node) हैं जिन्हें नुकसान होने पर लोगों में आध्यात्मिक विश्वास या तो बढ़ गया या घट गया. दूसरे आंकड़े के नतीजे भी शोधकर्ताओं के नतीजों से मेल खाते दिखे. उत्साहित शोधकर्ता अब अपनी अभिनव तकनीक को दूसरे सांस्कृतिक और अन्य पृष्ठभूमि वाले लोगों पर आजमाना चाहते हैं.
इस शोध के निमित्त से वैज्ञानिकों ने कुछ और रोचक तथ्यों का उल्लेख भी किया। जैसे, यह पेरिएक्वेडक्टल ग्रे मानव मतिष्क का वह भाग है जो उत्क्रान्ति काल (Period Of Evolution) में भी यथावत ही रहा। What’s striking, according to Ferguson, is that in terms of evolution, the PAG is among the most conserved structures of the brain.
शोधकर्ता चकित और उत्साहित होकर यह कहते हैं की इन तथ्यों से स्पष्ट इशारा मिलता है की धर्म-अध्यात्म के कारण जो कुछ भी होता है, वह निश्चित तौर पर काफी गहरे स्तर पर होता है।”It suggests that whatever spirituality and religiosity are doing,” he said, “they’re doing it at a very deep level.”
माइकल फर्ग्यूसन तो यहाँ तक कहते हैं की सदियों से विश्व की अलग-अलग संस्कृतियों-सभ्यताओं में चिकित्सा/उपचार व अध्यात्म हमेशा साथ-साथ ही रहे। चिकित्सा को अध्यात्म से अलग तो आधुनिक चिकित्सा संकल्पना आने के बाद किया गया। If that sounds “new age,” Ferguson noted that throughout time and across cultures, healing systems and spirituality “were in a relationship with one another.” It’s only in recent history, he said, that modern medicine and spirituality have become separated.
उनका यह मानना है की वर्तमान विश्व में करीब ८० प्रतिशत जनसंख्या स्वयं को धार्मिक अथवा आध्यात्मिक मानती है। साथ में मानव जाती के ज्ञात इतिहास को भी धर्म एवं अध्यात्म का महत्त्वपूर्ण योगदान स्वीकार्य ही है। अत: उनके भीतर का वैज्ञानिक मस्तिष्क एवं अध्यात्म के संबंध को गहराई से जानने के लिए उत्सुक है। Spirituality and religiosity, as well as the human brain, are obviously complex, he noted. But given the central role of religion and spirituality in human experience, Ferguson said, “why wouldn’t we want to better understand it?”
कटघरे में विज्ञान भी तो है!
दिखने वाले याने भौतिक जगत की अनेक ऐसी शक्तियां हैं जिनका प्रत्यक्ष दर्शन संभव नहीं है परन्तु उनकी सत्ता से इंकार नहीं किया जा सकता है। विद्युत शक्ति, चुम्बकीय शक्ति, गुरुत्वाकर्षण शक्ति साथ ही शारीरिक गुणों जैसे श्रवण, स्पर्श, स्वाद, गंध को प्रत्यक्ष न देखा न दिखाया जा सकता परन्तु योग्य उपकरण की सहायता से इनकी उपस्थिति महसूस की जा सकती है व दिखती भी है।
विज्ञान के सामने कई चुनौती भरे प्रश्न रखे जा सकते हैं। जैसे, क्या कोई वैज्ञानिक जड़ तत्वों का संशोधन -विश्लेषण कर प्रयोगशाला में उनके संयोग से किसी चेतन याने सजीव को उत्पन्न कर सकता है? क्या कोई वैज्ञानिक मृत शरीर के विशेष टीकाकारण से, जटिल शल्य चिकित्सा अथवा कोई अती-उन्नत मशीन की सहायता से पुन:जीवन प्रदान कर सकता है? क्या कोई वैज्ञानिक सामाजिक बीमारीयों जैसे भ्रष्टाचार, काला बाजारी, रिश्वतखोरी, जमाखोरी, हत्या आदि को किसी आधुनिक थेरपी से समाप्त कर सकता है? क्या कोई वैज्ञानिक सेवा, सत्कार, प्रेम, दया, क्षमा, धैर्य, सहिष्णुता, सहयोग, सहानुभूति, संतोष, करुणा, नम्रता, परोपकार आदि उच्च मानवीय भावनाओं का सृजन कर सकता है? अथवा किसी संवेदना-शून्य व्यक्ति में इन गुणों को ट्रांसप्लांट कर सकता है? विज्ञान किसी भी नर-मादा के बीच यौन संबंध एक अत्यंत नैसर्गिक कार्य मानता है, तो इस एकांगी दृष्टि से मां-बेटी, बहन-भाभी, चाची-बुआ आदि संबंधों को यथोचित सम्मान व श्रद्धा से कैसे देखा जाना चाहिए, यह विज्ञान बताया सकेगा? मातृभूमि को मात्र जमीन के एक टुकड़े के रूप में, राष्ट्र-ध्वज एवं धर्म-ध्वज को सिर्फ कपड़े के टुकड़े के रूप में देखने वाली वस्तुनिष्ठ एवं तथाकथित वैज्ञानिक दृष्टि अपनाना समाज-राष्ट्र के हित में होगा? जब दिखाई न देने वाले गुणों को विज्ञान स्वीकार करता ही है तो धर्म-अध्यात्म की शक्ति को क्यों नहीं स्वीकारता? क्यों विश्व की बहुसंख्य जनता की श्रद्धा एवं विश्वास को निष्पक्ष रूप से, वैज्ञानिक तरीके से जाँचने हेतु ईमानदार प्रयोगों की योजना नहीं बनती? धर्म-अध्यात्म की सत्ता को विज्ञान तो सिरे से नकारता आया है। मनुष्य को वास्तविकता से गाफिल रखने वाली “धर्म अफीम की एक गोली है”, ऐसा भी कहा गया है। परन्तु जो दिखता है वही सच है ऐसा मानने वाला विज्ञान मनुष्य की मृत्यु की सटीक कारण-मीमांसा पर मौन क्यों हो जाता है? दिखने वाले शरीर से न दिखने वाली ऐसी क्या “चीज” निकल गई जिससे शरीर निश्चल, निश्चेतन और निरुपयोगी हो गया? इस प्रश्न पर पूर्ण नि:शब्द क्यों है? जड़ शरीर/संसार/प्रकृति का आधार सूक्ष्म-चेतन है यह सत्य-सूत्र आज नहीं तो कल, विज्ञान को अध्यात्म के विद्यालय में विनम्रता से सीखना होगा।
आत्मा का निवास मस्तिष्क में?
वैज्ञानिकों ने मृत्यु के अनुभव पर एक सिद्धांत प्रतिपादित किया है। प्राणी की तंत्रिका प्रणाली से जब आत्मा को बनाने वाला क्वांटम पदार्थ निकलकर व्यापक ब्रह्मांड में विलीन होता है तो मृत्यु जैसा अनुभव होता है। इस सिद्धांत के पीछे विचार यह है कि मस्तिष्क में क्वांटम कम्प्यूटर के लिए चेतना एक प्रोग्राम की तरह काम करती है। यह चेतना मृत्यु के बाद भी ब्रह्मांड में परिव्याप्त रहती है।
एरिजोना विश्वविद्यालय में एनेस्थिसियोलॉजी एवं मनोविज्ञान विभाग के प्रोफेसर एवं चेतना अध्ययन केंद्र के निदेशक डॉ. स्टुवर्ट हेमेराफ इस सिद्धांत के प्रणेता है। यह परिकल्पना चेतनता के उस क्वांटम सिद्धांत पर आधारित है, जिसे उन्होंने भौतिकशास्त्र में नोबेल पुरस्कार विजेता ब्रिटिश नागरिक सर रोजर पेनरोस के साथ विकसित की है। इस सिद्धांत के अनुसार हमारी आत्मा का मूल स्थान मस्तिष्क की कोशिकाओं के अंदर बने ढांचों में होता है जिसे माइक्रोटयूबुल्स(Microtubules) कहते हैं। इन दोनों वैज्ञानिकों का तर्क है कि इन माइक्रोटयूबुल्स पर पड़ने वाले क्वांटम गुरुत्वाकर्षण प्रभाव के परिणामस्वरूप हमें चेतनता का अनुभव होता है।
वैज्ञानिकों ने इस सिद्धांत को ऑरकेस्ट्रेटेड ऑब्जेक्टिव रिडक्शन(आर्च-ओ आर) Orchestrated Objective Reduction-(Orch. O.R) का नाम दिया है। इस सिद्धांत के अनुसार मस्तिष्क में न्यूरॉन के बीच होने वाले संबंध में ही कहीं हमारी आत्मा व्याप्त है।
Orchestrated objective reduction (Orch.OR) is a theory which postulates that consciousness originates at the quantum level inside neurons, rather than the conventional view that it is a product of connections between neurons. The mechanism is held to be a quantum process called objective reduction that is orchestrated by cellular structures called microtubules.
इस परिकल्पना के साथ हेमराफ कहते हैं कि मृत्यु जैसे अनुभव में माइक्रोटयूबुल्स अपनी क्वांटम अवस्था गंवा देते हैं, लेकिन इसके अंदर के अनुभव नष्ट नहीं होते। आत्मा केवल शरीर छोड़ती है और ब्रह्मांड में विलीन हो जाती है। हेमराफ का कहना है कि हम कह सकते हैं कि दिल धड़कना बंद हो जाता है, रक्त का प्रवाह रुक जाता है, माइक्रोटयूबुल्स अपनी क्वांटम अवस्था गंवा देते हैं, पर माइक्रोटयूबुल्स में क्वांटम सूचनाएं नष्ट नहीं होतीं। ये नष्ट नहीं हो सकतीं। ये महज व्यापक ब्रह्मांड में वितरित एवं विलीन हो जाती हैं।
उन्होंने कहा कि यदि रोगी बच जाता है तो यह क्वांटम सूचना माइक्रोटयूबुल्स में वापस चली जाती है जिसके कारण रोगी कहता है कि उसने अपने शरीर को मृत पड़े देखा या उसे मृत्यु जैसा अनुभव हुआ अथवा वह मृत हो कर शरीर तो छोड़ चुका था किन्तु (कारण का पता नहीं! फिर भी.. )वापस लौट आया है। हेमराफ यह भी कहते हैं कि यदि रोगी ठीक नहीं हो पाता और उसकी मृत्यु हो जाती है तो यह संभव है कि यह क्वांटम सूचना शरीर के बाहर व्याप्त है।
इस विषय के एक अन्य शोध परिणाम भी दिलचस्पी बढ़ाने वाले हैं। यह ‘सेरीब्रल कॉर्टेक्स’ नामक प्रसिद्ध रिसर्च जर्नल में प्रकाशित हुए हैं। इस टीम में ऑक्सफोर्ड, येल व कोलंबिया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक थे। यह टीम मस्तिष्क एवं अध्यात्म के अंतर-संबंधों को जानने हेतु मानव-मस्तिष्क के पेराएटल कॉर्टेक्स (Parietal Cortex) हिस्से पर केंद्रित थे। यह हिस्सा एक महत्त्वपूर्ण कार्य करता है, किसी वस्तु-विषय-व्यक्ति पर ध्यान दे सकने का। अंग्रेजी में कहें तो Parietal Cortex region is responsible for our ‘Attention’. शोध टीम ने पाया की आध्यात्मिक अनुभव साझा करते समय जहां एक ओर मस्तिष्क के पेराएटल कॉर्टेक्स भाग में सबसे अधिक गतिविधियां हुई तो वहीं दूसरी ओर बाऐं भाग के पेराएटल लोब(Inferior Parietal Lobe -IPL) में सबसे कम गतिविधियां देखी गईं। यह हिस्सा भी एक महत्त्वपूर्ण कार्य करता है, दूसरों के साथ खुद का भी ध्यान रखना। इसके साथ ही मस्तिष्क के दो और हिस्सों में भी गतिविधियों में कमी पायी गई- मिडियल थैलमस व कोडेट (Medial Thalamus and Caudate Area),जो सम्मिलित रूप से संवेदनाओं एवं भावनाओं पर नियंत्रण हेतु कार्य करते हैं। उच्च आध्यात्मिक अनुभव के दौरान साधक व्यक्ति को स्वयं का होश नहीं रहता, वह खुद पर से नियंत्रण खो देता है सदियों से भारत में ऐसा देखा और कहा भी जाता रहा है।जिन संत-महात्मा को आप गुरु-स्थान पर देखते हैं, उनकी जीवनी को देखें तो उसमें शरीर की ऐसी उन्मनी अवस्था के कई प्रसंग पाएंगे। अब जाकर शोधकर्ताओं को हमेशा कहे जाने वाले इस एक वाक्य की सत्यता एवं वैज्ञानिकता का एहसास हुआ। उन्हें ऐसी असामान्य और अबूझ शारीरिक अवस्था के लिए मस्तिष्क का जिम्मेदार हिस्सा भी मिल गया।
क्या सहस्रार चक्र और पी ए जी एक हैं?
मानव मस्तिष्क में पी ए जी जहाँ अध्यात्म का स्थान इस शोध के बाद वैज्ञानिक मानने लगे हैं यह मात्र संयोग नहीं है की भारत में योग की भाषा में उस केंद्र को सहस्रार चक्र या ब्रह्मरंध्र कहते हैं।अस्पष्ट रूप से ही सही किन्तु विज्ञान भी इस बात की पुष्टि करने लगा हैं। उसके अनुसार मृत्यु के बाद आत्मा या चेतना शरीर के उस भाग से निकल कर बाहरी जगत में फैल जाती है। शास्त्र की भाषा में परलोक (=दूसरे लोकों) की यात्रा पर निकल जाती है। मृत्यु का करीब से अनुभव करने वाले या क्लिनिकल अर्थात चिकित्सकीय तौर पर मृत करार दिए गए किंतु फिर जी उठे लोगों के अनुभवों के आधार पर यह सिद्धांत काफी चर्चा में है। धर्म-परंपरा इस अऩुभव को स्मृति और संस्कार के साथ शरीर के बाहर रहने और उपयुक्त स्थितियों का इंतजार करना बताते हैं। दूसरे शब्दों में आत्मा पुनर्जन्म की तैयारी करने लगती है। योग शास्त्र की इस मान्यता को कि मानव शरीर में स्थित छह चक्र एवं कुंडलिनी का जागरण जिसके फलस्वरूप मस्तिष्क में स्थित सहस्रार चक्र जागृत हो उच्चतम आध्यात्मिक स्थिति प्राप्त होती है, विज्ञान ने सदैव उपहास की नज़रों से देखा था। वैज्ञानिकों ने कुंडलिनी जागरण प्रक्रिया को
“a complex physio-psycho-spiritual transformative process described in the yogic tradition” ऐसा परिभाषित किया। जबकि पाश्चिमात्य वैज्ञानिकों व अभ्यासकों का ध्यान कुंडलिनी विषय की ओर तब ही खींच गया था जब प्रसिद्ध मनोचिकित्सक व मनोविश्लेषक डॉ कार्ल जंग ने इस विषय को पूरी गंभीरता से समझा व संबंधितों को समझाने की भी पहल करी थी। सन १९३२ में झुरीच के सायकोलॉजीकल क्लब में कुंडलिनी विषय पर उनके सेमीनार का महत्त्व आज भी कम नहीं हुआ है। ईस्टर्न (=पौर्वात्य= भारतीय) विचारधारा को वेस्टर्न विचारकों द्वारा गंभीरता से लिए जाने के लिए कार्ल जंग के यह प्रयास मील के पत्थर साबित हुए है। आज उस प्रसंग को ९० से अधिक वर्ष बीत चुके हैं। पारंपरिक भारतीय ज्ञान को जग-मान्यता मिलने की वह जंग और जद्दोजहद आज भी जारी है।
खोले जिसने भारतीय ज्ञान के राज।। उस ब्रिटिश जज को जानेंगे आज।
कार्ल जंग की इस शृंखला में, अर्थात किसी विदेशी का भारतीय योग-प्रणीत कुंडलिनी तंत्र में गहरी रुचि उत्पन्न होना, सर जॉन वुडरोफ का स्मरण होना आवश्यक है। उस समय भारत पर ब्रिटिश राज था जब कलकत्ता के एडवोकेट जनरल के घर वुडरोफ का जन्म हुआ। पढ़ाई के पश्चात वकील बने, आगे १८ वर्षों तक कलकत्ता हाय कोर्ट के जज और बाद में मुख्य न्यायाधीश भी बने। एक बार कोर्ट में सुनवाई के दौरान इनका ध्यान ही नहीं लग रहा था। बहुत कोशिशों के बाद भी वे कारवाई पर खुद को गंभीरता से केंद्रित ही नहीं कर पा रहे थे। परेशान होकर यह बात उन्होंने सहायक अधिकारी से कही जो स्थानिक निवासी था।
इस अंग्रेज का इतना वर्णन यहाँ अप्रासंगिक नहीं है क्या? ऐसा आपके मन में आ तो गया होगा। बस कुछ क्षण और..
वह एक सिपाही को लेकर बाहर गया और कुछ देर बाद जब वह लौट कर जब जज साहब को उनके कक्ष में मिलने गया तो देखा की जज साहब बेहतर महसूस कर रहे थे व पुन: कोर्ट रूम में जाने की तयारी में थे। शाम को उन्होंने पूछा की अधिकारी ने क्या उपाय किया था? झिझकते हुए अधिकारी ने जो बताया वह सुन कर जज साहब को तो विश्वास ही नहीं हुआ। अधिकारी ने बताया की आज जिस आरोपी पर सुनवाई हो रही थी उसने एक तांत्रिक साधु को कोर्ट के बाहर बैठाया था । उसके तंत्र के कारण आप आज ध्यान नहीं दे पा रहे थे , इसी के चलते आरोपी के पक्ष में आपका फैसला हो ऐसा आरोपी उस तांत्रिक की मदद से करना चाहता था। अधिकारी ने सिपाही के साथ जाकर उस तांत्रिक से बात की, उसे समझाया और वहाँ से वापस जाने के लिए मना लिया, जिससे जज साहब पूर्ववत हो गए। अब इस घटना के बाद उस आरोपी का क्या हुआ यह तो ज्ञात नहीं किन्तु इस घटना ने जज साहब को झकझोर कर रख दिया। उन्हे सोचने पर मजबूर भी कर दिया।परिणाम यह हुआ की जज साहब को भारतीय तंत्र- योग-कुंडलिनी में गहरी रुचि उत्पन्न हो गई। जब वे यह सीखने गए तो पता चला की इसके लिए संस्कृत भाषा का ज्ञान आवश्यक है। तो, वे संस्कृत सीखने पहुंचे तो एक सख्त गुरु से सामना हुआ जिन्होंने कहा की संस्कृत तभी सिखाई जाएगी जब जज साहब गद्दी-तकिया के इस्तेमाल को त्याग कर जमीन पर दरी डाल कर ही सोएंगे। ऐसा करने से ही उनके उच्चारण स्पष्ट होंगे जो संस्कृत के लिए अती आवश्यक हैं। जज साहब भी दृढ़ निश्चयी निकले ! सब शर्तें मान गए! और उत्तम संस्कृत सीखे! इतनी अच्छी की २० संस्कृत मूल पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद कर प्रकाशित किया। कुंडलिनी-योग भी उत्तम सीखे। इतनी अच्छी तरह से की उन्हे पश्चिम जगत में ‘सरपेंट पावर’ (कुंडलिनी को अंग्रेज अध्येता समझने के लिए सरपेंट याने सांप कहते हैं। योगशास्त्र ने ही कुंडली को सर्प-रूप मे समझाया है।) वाले उपनाम से भी जाना जाता है। आज उनकी इतनी तीव्रता से याद करने की वजह है। क्योंकि एक वे थे की एक अंग्रेज होकर भी उन्होंने भारतीय ज्ञान के महत्त्व को जाना व समझने की पूरी कोशिश की। और एक हम हैं,जो सदियों से भारतीय हैं, और भारत के सदियों से अर्जित ज्ञान को न मानते हैं, न जानते हैं। एक हम हैं जो खुद को और सब को यह समझाते हैं की पश्चिम से सीखो। और एक वो थे जिन्होंने पश्चिम के उन विचारकों को, जिन्हे भारतीय ज्ञान को सुनने-समझने-मानने की इच्छा नहीं थी, स्पष्ट शब्दों में यह कहा की, “ We, who are foreigners, must place ourselves in the skin of the Hindus and must look at their doctrines and rituals through their eyes and not our own.” अर्थात हिंदुओं के दर्शन-अध्यात्म को समझने के लिए उसे हिंदुओं की नजर से देखना होगा न की हमारी विदेशी नज़रीये से! अध्यात्म को जानने-समझने के लिए आवश्यक वैज्ञानिक दृष्टिकोण का एकदम सटीक उदाहरण अभ्यासकों को सौंप कर गए सर जॉन वुडरोफ!
अब आगे क्या?
मनोचिकित्सक एवं न्यूरोसाइन्स के प्रोफेसर मार्क पोतेंजा कहते हैं की आध्यात्मिक अनुभव लोगों की ज़िंदगियों पर गहरा असर डालते हैं। उन अनुभवों एवं मस्तिष्क की किन विशिष्ट कोशिकाओं के साथ परस्पर संबंध व अन्य जानकारी को जानना बेहद आवश्यक है। इससे हमें मनुष्य के मनो-स्वास्थ्य को बेहतर बनाने एवं मनो-विकारों से छुटकारा पाने में अवश्य मदद मिलेगी।
इन शोध-शृंखला से चिकित्सा क्षेत्र के लिए नए एवं उपयोगी आयाम तो खुलेंगे ही साथ में फिर एक बार प्राचीन भारतीय ज्ञान की प्रासंगिकता एवं वैज्ञानिकता भी गर्व से अधोरेखित होती ही है। हमारा सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान-धर्म-अध्यात्म संस्कृत में होने का सीधा-सा एकमेव कारण है की तत्कालीन समय में संस्कृत लोकव्यवहार-भाषा, अध्ययन-अध्यापन की सर्वमान्य भाषा थी। वर्तमान काल में ‘फ़ॉरेन-रिटर्न नॉलेज’ की सोची-समझी बिसात पर संस्कृत की क्या औकात? ऐसा दृढ़ विश्वास रख कर संस्कृत व संस्कृति को मानने वालों का जो मजाक उड़ाते हैं उनकी ओछी सोच और विषैली हँसी के थमने का समय आता दिख रहा है।
वैज्ञानिक जानते हैं की एक सामान्य मनुष्य के शरीर के वजन का मात्र ३ प्रतिशत वजन ही मस्तिष्क का होता है किन्तु शरीर की २० प्रतिशत ऊर्जा इसे सुचारु रूप से चलाने में खर्च होती है। जी हाँ आपने सही पहचाना,यह वही दिमाग है जिसके दम पर नास्तिक, वैज्ञानिक और विज्ञान-निष्ठ विद्वान धर्म-अध्यात्म का उपहास उड़ाते और दोनों को सिरे से नकारते थे। भारत में एक वाक्य बड़ा चलता है की ‘जहाँ विज्ञान खत्म होता है अध्यात्म वहाँ से शुरू होता है’। और संयोग देखिए! इन नवीनतम शोधों के निष्कर्षों ने तो अपने बॉलीवुड के एक सदाबहार फिल्मी गीत की वो मशहूर पंक्तियाँ याद दिलवा दीं की ‘करना था इनकार, मगर इकरार तुम्हीं से कर बैठे ।ना-ना करते प्यार तुम्हीं से कर बैठे।।’ क्योंकि यह दिमाग तो बड़ा ही शातिर, छुपा रुस्तम निकला. वैज्ञानिकों ने खोजा तो पता चला अध्यात्म तो मस्तिष्क में ही घर किए हुए है।
सारांश यह की एक परिवर्तन दिख रहा है की धर्म-अध्यात्म एवं मस्तिष्क के अंतर-संबंधों को लेकर जीव-विज्ञानी, न्यूरो-विज्ञानी, मनो-चिकित्सक, मनो-विश्लेषक, परा-मनोविज्ञानी, ट्रांस-पर्सनल सायकोलॉजिस्ट व संबंधित क्षेत्र के धुरंधर एक दिशा में सकारात्मक विचार करने को विवश तो हो ही गए हैं। तो हे विद्वतजनों ! यह तो वैसा ही हुआ जैसा १५ वीं सदी के रहस्यमयी कवि, संत कबीरदास ने दोहे में कहा की:-
कस्तूरी कुण्डली बसै मृग ढ़ूँढ़ै बन माहि।
ऐसे घटी-घटी राम हैं दुनिया देखै नाँहि॥
कस्तूरी हिरण जिस सुगन्ध को पूरे जगत में ढूँढता फिरता है वह तो उसकी नाभि में ही होता है। मगर मृग उसे बाहर ढूँढता है। इस शोध के नतीजे धर्म-अध्यात्मवादियों ने तो एक सुखद खबर ही माना की उनकी मान्यताओं का प्रखर विरोध करने वाले मस्तिष्क-प्रधान वैज्ञानिकों को धर्म-अध्यात्म का घर मिला भी तो कहाँ? मस्तिष्क में! अब इसे क्या कहें !!
जय विज्ञान! जय अध्यात्म! जय हो!!