शब्द-द्वंद
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शब्द..!!
जब फांस की तरह चुभते हैं
तो किसी सुनामी से कम तबाही नहीं मचाते
सुनामी की लहरें तो फिर भी
एक बार में ही
सब कहानी खत्म कर जाती हैं
पर शब्द-द्वंद का सफर
जब मन के सीलन भरे कोनों से
शुरू होकर
देह के पोर-पोर में
धंसता जाता है
उसे सुनामी की कोई लहर नहीं बहा पाती
जब टूट रही हों मन की परतें…
डूब रही हों निश्छल भावनाएं
तो सारे सजीव शब्द
लुप्त हो चुकी मर्यादा के साथ
ख्यालों की उठ रही आंधी में
रौंद दिए जाते हैं
वही शब्द जब
रगों में जलती हुई आग से होकर गुज़रते हैं
तो जलने से पहले ही… तो
राख बन कर
प्रकृतिस्थ हो जाते हैं.