प्रभु जी ने मुझे आँचल थोड़ा बड़ा दे दिया. मुझ फूहड़ से यह संभलता नहीं. कितना भी बचूं कहीं न कहीं उलझ ही जाता है. अब इतना उलझेगा तो धागे ही तो हैं उधड़ जायेंगे. सहेजता हूँ, पर सहजता नहीं है, तो कैसे सहेज पाउँगा. बिना सहजता के क्या सहेजना!! आज बेर के कांटे में उलझ गया. मन ही तो है उसकी चॉइस है. वैसे उलझने के लिए बहुत सी चीजें थी. सामने ब्रांडेड चीज़ों के, तनिष्क जैसे बड़े बड़े शोरूम थे पर आंचल उलझा भी तो चमक -दमक के पीछे सीलन भरी उपेक्षित पतली गली में अधपकी बेरों से लदे फदे बेर के अलमस्त पेड़ से. पत्तों पर महानगर की महीन धूल और गर्द जमा थी पर वे सर्दियों की बारिश में धुल कर टटके लग रहे थे. बेर के मस्त पेड़ को देखकर रहीम याद आये ‘कह रहीम कैसे निभे बेर केर के संग’ बेर अपने रस में झूमता है.जिसमें रस होगा वह झूमेगा ही. हम रस की कीमत चुकाकर ही परिपक्व होते हैं.साखू -सागौन के बरक्श बेर की उम्र बहुत छोटी होती है.पर वह मृत्युबोध से ग्रस्त नहीं है.हम उसके खट्टे-मीठे रसीले फलों पर ध्यान दें न दें पर उसके छोटे -छोटे फल उसके आत्म का समर्पण हैं.बेर समर्पित होता है.यूँ तो सभी फलदार वृक्ष समर्पित ही होते हैं पर उनके समर्पण का अपना बाजार और अर्थशास्त्र है.बेर सबरी के सब्र का फल है.बेर कुलीन और लोक का मिलन विन्दु है.हम महाशिवरात्रि पर भोले की मुड़ी पर बेर ही चढ़ाते रहे हैं.
बेर देखकर एक बारगी ऐसा लगा कि कोई कांटा बेतहाशा तलवे में चुभ गया है. एक चीन्हा सा दर्द उभरता है जो दर्द नहीं स्थाई मर्ज हो गया है. बेर बेर बेर कितने दरख़्त थे बेर के जिन पर गदराये गादर हारिल, तोते और जाने कितने परिंदे लिपटे रहते थे.निदूरी के पठान हारिल का शिकार करने आते थे.एक निशाने से चार पांच हारिल मर जाते थे.एक गोली से मरता था 2-3 मरने के डर से मर जाते थे.हारिल नादान हैं लेकिन समझदारी और विवेक का शिखर मनुष्य भी तो मौत से पहले कई कई बार मर जाता है !! बेर के हरे पत्ते के बीच कांटों में फंसे आखिरी बार फड़फड़ाये हारिल से खून की बूंदें टपकती हैं टप-टप. फिलहाल तो अपना ही मन घायल हारिल हो रहा है गांव में बेर के एक भी दरख़्त नहीं बचे, शायद हारिलों ने भी मेरे गाँव से मुंह मोड़ लिया होगा.बताते हैं बेर की लकड़ी की नाव बहुत हल्की और मजबूत बनती है. नये कुँवें की नेवार के लिए जामुन और बेर की लकड़ी सबसे बढ़िया होती है. जाने कितने कुओं की नींव में बेर समा गयी और हम अपना गला तर करते समय याद भी न रख पाए. पर कुएं के पास बेर की स्मृति थी. खैर हम कुंए को याद न रख पाए बेर को क्या रखते!मैंने अपने सामने नाव या कुँवें की नेवार बनते नहीं देखा पर बेर को कुदाल और फावड़े का बेंट बनते खूब देखा. किलो -सवा किलो की कुदालों और फावड़ों के वजन में बेर के बेंट का कोई वजन नहीं होता था वह चलाने वाले श्रमिक और किसान के हाथ में चिपक कर रहती थी.कुदाल और फावड़े के लिए बबूल और बेर के बेंट आदर्श होते थे.
झरबेरी के पके, पीले, लाल फलों वाले झुरमुट में घुस कर लगता था कि हम स्वर्ग के आस पास ही हैं. जाने कितनी पीढ़ियों की दोस्तियों और सरगोशियों के गवाह रहे हैं ये मूक झुरमुट.उन्हें याद करते हुए लगता है कि कुछ रंग और कुछ गंध कभी नहीं मरते..
यह सच है स्मृतियाँ जगह नहीं घेरतीं पर यह भी सच है स्मृतियाँ कोई जगह नहीं छोड़ती!!
साभार शंखधर दुबे। शंखधर दुबे हिंदी साहित्य में गहरी पकड़ रखते हैं। इनकी कलम की अपनी अलग छाप है। जो इस रचना के साथ ही अन्य रचनाओं में भी देखने को मिलती है। शंखधर दुबे मुख्य रूप से अंग्रेजी में परांगत है पर हिंदी में तकनीकी रूप से बहुत अच्छी पकड़ रखते हैं। शंखधर दुबे लेखन के अलावा भी कई अन्य विधाओं में गहन रुचि रखते हैं। उन्होंने पत्रकारिता के अलावा फिल्म लेखन, फैशन फोटोग्राफी और अभिनय में अपना लोहा मनवाया है। साथ ही एक निजी महाविद्यालय में बतौर सहायक प्राध्यापक कुछ समय तक अध्यापन का कार्य किया है। वर्तमान में राज्यसभा में उपनिदेशक के पद पर है। इनसे मोबाइल नंबर +91 8826449020 अथवा Shankhdhardubey409@gmail.com पर मेल कर संपर्क किया जा सकता है।