शत्रु से संवाद
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1.
तुम्हारे प्रति मेरा सम्मान
बुनता है तुम्हारे दर्प के ताने बाने
तुम बड़प्पन के भाव में सगर्व बह जाते हो
अनभिज्ञ कि सम्मान अर्जित करना पड़ता है,
मुझे बिछाना है जाल
चाहिए तुम्हारी छाया, तुम्हारे संसाधन,
अंततः तड़पते हुए तुम
अपनी गलतियों से अनजान
मुझे कृतघ्न बताते हो
मैं तो मात्र प्रतियोगी था तुम्हारा।
2.
मैंने तुम्हारे चरण देखे
सम्मुख झुकते समय
आँक लिया था कद
और तुम्हारी ज़मीन भी
आज जब मैं ऊँचा हूँ
तुम कुढ़ते क्यों हो यार…….
अनुभवी कारीगर
ध्वंस की शुरुआत भी नींव से करता है।
3.
तब मैं विनम्र था
सामर्थ्यवान थे तुम
तुमने मुझे निर्बल माना
असहाय और तिरस्कृत…..
अब तुम विनम्र हो
ओढ़ रखा है मैंने भी
सौम्यता का आवश्यक आवरण
मैं तुम्हे कमज़ोर नहीं समझता
तुम्हारी कुटिलता का ध्यान रखता हूँ हमेशा।
4.
तुम्हारे होंठो पर खेलती
अपनत्व भरी मुस्कान
मोहती है मुझे भी,
मेरी दृष्टि फूलती पेशियों पर भी है
ऐसे ही भावुक होठों पर
हुँकारें भी बखूबी देखा है मैंने।
5.
अद्वितीय है
तुम्हारी नैतिकता और शिष्टाचार
मुझे पसंद भी है,
मेरा ध्यान मेरी सामर्थ्य पर है
इसी कारण तनिक ज्यादा उभर आता है
तुम्हारा यह मोहक गुण।
6.
द्वन्द
अनिवार्य है
आवश्यक भी,
दर्शन के परिष्करण हेतु
अस्तित्व संरक्षण हेतु
विजय मेरी है,
भयातुर किया तुमने अपनी क्रूरता को
कृतघ्न अविश्वास से
सुलगती गर्म श्वांस से,
मैंने……
अपनी पेशियों में भरी है निर्दयता
कल्पनाओं में कैद किया हिंसकता
भाल पर सहृदयी तिलक लगाया है।
7.
शत्रु मेरे !
तुम रात्रि के तांडव में चीख रहे हो
अपनी विजय का आर्तनाद
मैं रणभूमि में लहूलुहान
अपनी पराजय गुनगुना रहा हूँ,
हममे अंतर है उद्देश्य का
तुम्हारी कुटिलता
ठहाके लगा रही है तुम पर
मैं संतुष्ट हूँ
कि पीढ़ियाँ याद रखेंगी मुझे…..
इस संघर्ष ने चुन लिया है अपना नायक।
अश्वनी तिवारी
-मलंग-
-मलंग-