गौरव अवस्थी
उन्नाव अपनी जन्मभूमि है. बचपन से ही बड़े बुजुर्गों के मुंह से अक्सर रायबरेली की चर्चा सुना करता था. पंडित मोतीलाल नेहरू की रायबरेली. जवाहरलाल नेहरू की रायबरेली. फिरोज गांधी की रायबरेली. इंदिरा गांधी की रायबरेली. मन में रायबरेली को लेकर हमेशा एक जिज्ञासा बनी रहती. यह भी कि रायबरेली बड़ी अलबेली होगी. तब नहीं पता था कि रह-रहकर रायबरेली के प्रति उठने वाली जिज्ञासा देश का प्रतिष्ठित समाचार पत्र “हिंदुस्तान” इस तरह पूरी करेगा.
“हिंदुस्तान” का लखनऊ संस्करण 6 अक्टूबर 1996 को निकलना तय हो चुका था. लखनऊ संस्करण के संस्थापक संपादक सुनील दुबे जी पटना से ट्रांसफर होकर आए. तब हम अमर उजाला कानपुर में मानदेय वाले पत्रकार थे. उन्नाव अमर उजाला से शुरू हुई पत्रकारीय यात्रा के द्वितीय चरण में कानपुर प्रादेशिक डेस्क में सेवाएं दे रहे थे. जीवन में बदलाव का प्रारंभिक चरण लाने के लिए अमर उजाला परिवार और उसके मुखिया राजूल महेश्वरी जी के हमेशा कृतज्ञ रहे हैं और रहेंगे. उसी बीच हिंदुस्तान से जुड़ने का सौभाग्य मिला. तब हिंदुस्तान के कार्यकारी अध्यक्ष नरेश मोहन जी ने हिंदुस्तान के निशातगंज वाले भव्य दफ्तर में इंटरव्यू लिया और ट्रेनी स्टाफ रिपोर्टर के रूप में भर्ती का नियुक्ति पत्र जब प्राप्त हुआ, तब लगा दुनिया की तमाम नियामते मिल गई. दिल बाग-बाग था मन बल्लीयो उछला था.
नई भर्ती की सूचना पिताजी पंडित कमला शंकर अवस्थी और भैया नीरज अवस्थी (दुर्भाग्य से दोनों दिवंगत) को हमने दी.
हमारी प्रगति का एक सोपान तय होने पर दोनों का खुश होना स्वाभाविक ही था. उसी बीच अमर उजाला के वरिष्ठ पदाधिकारियों का फोन आया कि यहां सब अच्छा हो जाएगा हिंदुस्तान मत जाओ लेकिन भैया नीरज अवस्थी ने सुझाव दिया कि हिंदुस्तान टाइम्स नेशनल मीडिया हाउस है, इसलिए तुम्हें वही ज्वाइन करना चाहिए. उन्होंने ही स्थायित्व का मूल मंत्र देते हुए कहा- “शनिवार को ज्वाइन करो”. उनके आदेश को शिरोधार्य कर हम भी आज ही के दिन 7 सितंबर 1996 को रायबरेली हिंदुस्तान के जिला प्रतिनिधि के रूप में अपनी नई यात्रा प्रारंभ की थी. ऐसे मूल मंत्रों को सिर्फ “ढोंग” मानने वालों के लिए यह बात महत्वपूर्ण हो सकती है कि रायबरेली में मेरा पहला कार्यकाल 14 साल 10 महीने का रहा. (यह भी एक संयोग ही रहा कि ज्वाइन करने का दिन शनिवार था आज जब 25 साल की गाथा लिखने बैठे हैं, तब दिन है मंगलवार.. यानी शुरू से लेकर आज तक हनुमान जी की असीम कृपा प्राप्त हो रही है) इस बीच विभिन्न जनपदों में तैनात हुए हमारे तमाम साथियों के तमाम स्थानांतरण हुए. भैया के सुझाव और आदेश के क्रम में ही हमने रायबरेली में दूसरी पारी भी वर्ष 2014 में शनिवार के दिन से ही प्रारंभ की थी. वह दिन है और आज का दिन है, हम रायबरेली के प्रतिनिधि के तौर पर “हिंदुस्तान” जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्र में अपनी सेवाएं लगातार दे रहे हैं. अपनी जैसी और जो भी प्रतिष्ठा है वह सब हिंदुस्तान को ही समर्पित करता हूं. जो भी हमारे हाथों से गलत हुआ वह सब हमारा. यह बात तो हुई हिंदुस्तान की.
रायबरेली मेरे लिए नई थी और हम रायबरेली के लिए. पिताजी ने दो रेफरेंस दिए थे. पहला, देव शंकर त्रिवेदी “देव” (डॉ. गिरजा शंकर त्रिवेदी, साहित्यकार एवं संपादक हिंदी डाइजेस्ट नवनीत मुंबई के अनुज) दूसरा, इंदिरा गांधी के लंबे समय तक प्रतिनिधि रहे पंडित गया प्रसाद शुक्ल “गुरुजी” का. दुर्भाग्य से अपनी-अपनी विधा के यह दोनों श्रेष्ठजन आज इस दुनिया में नहीं है पर उनके परिवार से अपना नाता अभी तक बरकरार है. पापा यानी हमारे चाचा पंडित बाल गोविंद अवस्थी (जिला सहकारी बैंक में चीफ अकाउंटेंट रह चुके) ने रायबरेली प्रस्थान करने के पहले जिला सहकारी बैंक के तत्कालीन अध्यक्ष वरिष्ठ राजनेता एवं पूर्व विधायक श्री इंद्रेश सिंह जी से जरूर मिलने का आदेश दिया था. पिताजी और पापा के आदेश पर रायबरेली आने पर सबसे पहले इन तीनों से ही मिलकर अपनी आमद दर्ज कराई.
रायबरेली प्रवास में तीनों से ही हमें जो अपनत्व मिला और अभी तक मिल रहा है, उसे हम कभी भूल नहीं सकते. हम कैसे भूल सकते हैं कि हमारे काफी दिन देवनारायण त्रिवेदी जी के ड्राइंग रूम में खाना खाते और दिन दिन भर आराम करते बीते थे. सिर्फ तीन संपर्क सूत्रों के सहारे रायबरेली में शुरू हुई नई यात्रा आज कई पड़ाव पार करते हुए काफी आगे निकल चुकी है. एक पिता-एक चाचा, सुख-दुख में हमेशा खड़े रहने वाले उन्नाव के तमाम साथियों का साथ छोड़कर हम रायबरेली आए थे. हमें रायबरेली में अनेक पितातुल्य बुजुर्गों का आशीर्वाद, स्नेह-संबल, सैकड़ों साथियों का सुख-दुख के अलावा आचार्य द्विवेदी स्मृति संरक्षण अभियान कदम-कदम पर ऐसा साथ मिला कि हम बीच-बीच में उन्नाव जैसे भूल ही गए लेकिन जिस माटी में जन्म लिया उसे भूल कोई कहां सकता है और फिर जब ऐसे साथी हो जो आज 25 साल बाद भी वैसे ही साथ निभाने को तत्पर हो तो, कैसे कोई भूल सकता है या भुला सकता है?
हम अक्सर मंचों और आपसी बातचीत में इस बात का जिक्र जरूर करते हैं कि यह रायबरेली की माटी का ही प्रताप है कि उन्नाव के “बिगड़ैल” युवक को जिम्मेदार-समझदार बना दिया और मन से अपना लिया. हमारे रायबरेली के सुधरे हुए रूप पर तो मेरी मां ही विश्वास नहीं करती थी, दूसरों की क्या कहें? आज जो कुछ भी हूं, उसका सारा श्रेय सबसे पहले “हिंदुस्तान” और उसके बाद रायबरेली की पावन माटी को ही जाता है. रायबरेली की माटी की बदौलत थी.
उन्नाव के अखाड़े का यह लतमरुआ आज तथाकथित पहलवान तो बन ही चुका है. हमारा यह सबसे बड़ा सौभाग्य रहा कि “हिंदुस्तान” के लिए रिपोर्टिंग करने जाने पर साहित्यधाम दौलतपुर की माटी माथे पर लगने के बाद आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की इतनी कृपा मिली, जिसे संभालना हमारे जैसे अकिंचन के वश में नहीं! वर्ष 2004 में कांग्रेश अध्यक्ष सोनिया गांधी के रायबरेली को अपना कर्म क्षेत्र बनाने के बाद हिंदुस्तान के लिए रिपोर्टिंग करते हुए देश भर में जो पहचान और ख्याति मिली, उसे भी बयां करना हमारे जैसे पत्रकारिता के सबसे कनिष्ठ सदस्य के लिए बहुत ही मुश्किल है.
हमारे इस जीवन के साथ-साथ मेरे सभी परिवार जन जन्मभूमि उन्नाव और कर्मभूमि रायबरेली की माटी और इन दोनों जिलों के उन सभी शुभ-हितचिंतकों का कर्जदार रहेंगे जिनसे अपार और अथाह प्रेम स्नेह सहयोग और संबल मिलता रहा है मिल रहा है और शायद मिलता रहेगा.