सीता नवमी वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को कहते हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार इसी दिन सीता का प्राकट्य हुआ था। इस पर्व को जानकी नवमी भी कहते हैं। शास्त्रों के अनुसार वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन पुष्य नक्षत्र में जब महाराजा जनक संतान प्राप्ति की कामना से यज्ञ की भूमि तैयार करने के लिए हल से भूमि जोत रहे थे, उसी समय पृथ्वी से एक बालिका का प्राकट्य हुआ। जोती हुई भूमि को तथा हल की नोक को भी ‘सीत’ कहा जाता है, इसलिए बालिका का नाम ‘सीता’ रखा गया। इस दिन वैष्णव संप्रदाय के भक्त माता सीता के निमित्त व्रत रखते हैं और पूजन करते हैं। मान्यता है कि जो भी इस दिन व्रत रखता व श्रीराम सहित सीता का विधि-विधान से पूजन करता है, उसे पृथ्वी दान का फल, सोलह महान दानों का फल तथा सभी तीर्थों के दर्शन का फल अपने आप मिल जाता है। अत: इस दिन व्रत करने का विशेष महत्त्व है…
सीता जन्म कथा
सीता के विषय में रामायण और अन्य ग्रंथों में जो उल्लेख मिलता है, उसके अनुसार मिथिला के राजा जनक के राज में कई वर्षों से वर्षा नहीं हो रही थी। इससे चिंतित होकर जनक ने जब ऋषियों से विचार किया, तब ऋषियों ने सलाह दी कि महाराज स्वयं खेत में हल चलाएं तो इंद्र की कृपा हो सकती है। मान्यता है कि बिहार स्थित सीममढ़ी का पुनौरा नामक गांव ही वह स्थान है, जहां राजा जनक ने हल चलाया था। हल चलाते समय हल एक धातु से टकराकर अटक गया। जनक ने उस स्थान की खुदाई करने का आदेश दिया। इस स्थान से एक कलश निकला, जिसमें एक सुंदर कन्या थी। राजा जनक नि:संतान थे। इन्होंने कन्या को ईश्वर की कृपा मानकर पुत्री बना लिया। हल का फल जिसे ‘सीत’ कहते हैं, उससे टकराने के कारण कलश से कन्या बाहर आई थी, इसलिए कन्या का नाम सीता रखा गया था। वाल्मीकि रामायण के अनुसार श्रीराम के जन्म के सात वर्ष, एक माह बाद वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को जनक द्वारा खेत में हल की नोक के स्पर्श से एक कन्या मिली, जिसे उन्होंने सीता नाम दिया। जनक दुलारी होने से जानकी, मिथिलावासी होने से मिथिलेश कुमारी नाम भी उन्हें मिले। उपनिषदों, वैदिक वाङ्मय में उनकी अलौकिकता व महिमा का उल्लेख है जहां उन्हें शक्तिस्वरूपा कहा गया है।
सीता जयंती
सीताजी की जयंती वैशाख शुक्ल नवमी को मनाई जाती है, किंतु भारत के कुछ भागों में इसे फाल्गुन कृष्ण अष्टमी को मनाते हैं। रामायण के अनुसार वह वैशाख में अवतरित हुई थीं, किंतु निर्णयसिंधु के कल्पतरु ग्रंथानुसार फाल्गुन कृष्ण पक्ष की अष्टमी को। अत: दोनों ही तिथियां उनकी जयंती हेतु मान्य हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम तथा माता जानकी के अनन्य भक्त तुलसीदास ने रामचरितमानस के बालकांड के प्रारंभिक श्लोक में सीता जी को ब्रह्म की तीन क्रियाओं उद्भव, स्थिति, संहार की संचालिका तथा आद्याशक्ति कहकर उनकी वंदना की है। इस घटना से ज्ञात होता है कि सीता राजा जनक की अपनी पुत्री नहीं थीं। धरती के अंदर छुपे कलश से प्राप्त होने के कारण सीता खुद को पृथ्वी की पुत्री मानती थीं। लेकिन वास्तव में सीता के पिता कौन थे और कलश में सीता कैसे आईं, इसका उल्लेख अलग-अलग भाषाओं में लिखे गए रामायण और कथाओं से प्राप्त होता है। अद्भुत रामायण में उल्लेख है कि रावण कहता है कि, ‘जब मैं भूलवश अपनी पुत्री से प्रणय की इच्छा करूं, तब वही मेरी मृत्यु का कारण बने।’ रावण के इस कथन से ज्ञात होता है कि सीता रावण की पुत्री थीं। अद्भुत रामायण में उल्लेख है कि गृत्स्मद नामक ब्राह्मण लक्ष्मी को पुत्री रूप में पाने की कामना से प्रतिदिन एक कलश में कुश के अग्र भाग से मंत्रोच्चारण के साथ दूध की बूंदें डालता था। एक दिन जब ब्राह्मण कहीं बाहर गया था, तब रावण इनकी कुटिया में आया और यहां मौजूद ऋषियों को मारकर उनका रक्त कलश में भर लिया। यह कलश लाकर रावण ने मंदोदरी को सौंप दिया। रावण ने कहा कि यह तेज विष है। इसे छुपाकर रख दो। मंदोदरी रावण की उपेक्षा से दु:खी थी। एक दिन जब रावण बाहर गया था, तब मौका देखकर मंदोदरी ने कलश में रखा रक्त पी लिया। इसके पीने से मंदोदरी गर्भवती हो गई।
पूजन विधि
जिस प्रकार हिंदू समाज में राम नवमी का महात्म्य है, उसी प्रकार जानकी नवमी या सीता नवमी का भी। इस पावन पर्व पर जो व्रत रखता है तथा भगवान रामचंद्र जी सहित भगवती सीता का अपनी शक्ति के अनुसार भक्तिभावपूर्वक विधि-विधान से सोत्साह पूजन वंदन करता है, उसे पृथ्वी दान का फल, महाषोडश दान का फल, अखिल तीर्थ भ्रमण का फल और सर्वभूत दया का फल स्वत: ही प्राप्त हो जाता है। सीता नवमी पर व्रत एवं पूजन हेतु अष्टमी तिथि को ही स्वच्छ होकर शुद्ध भूमि पर सुंदर मंडप बनाएं। यह मंडप सोलह, आठ अथवा चार स्तंभों का होना चाहिए। मंडप के मध्य में सुंदर आसन रखकर भगवती सीता एवं भगवान श्रीराम की स्थापना करें।