गौरव अवस्थी
श्रीमान अवस्थी जी को सादर प्रणाम
आज का तारीख 4 का कार्ड आज अभी सुबह मिला। मेरी हालत अच्छी नहीं। अगर कमला किशोर दो-तीन दिन बाद हमें तो उनके साथ कृपा करके चले आइए और मुझे देख जाइए। 21 दिन रहिए। पेट, छाती वगैरा की हालत का पता लगाने वाले यंत्र जो आपके पास हो तो लेते आइएगा। कुछ दवाएं भी। खुजली के लिए कानपुर के डॉक्टर राम नारायण वर्मा ने वैद्यों की भी सलाह से शुद्ध गंधक बनाया था। वह कई रोज खाया। लाभ नहीं हुआ। मग्चादि, काशीसदि घृत ने भी कुछ काम नहीं किया। कार्बोलिक एसिड और तेल भी बेकार गया। अब सिर्फ सरसों का तेल मलता हूं। मेरी खुजली किसी आंतरिक विकार का फल मालूम होती है। 2 हफ्ते से दलिया तरकारी भी नहीं खा सकता। एक भी ग्रास पेट में जाते ही कै हो जाती है। सुबह दोपहर शाम को जरा सा दूध मुनक्के पढ़ा हुआ लेता हूं। वह भी बेमन। उसे भी देखते ही जी मचलाता है। जान पड़ता है मुझे जलोदर हो रहा है। पहले दिन में तीन-चार घूंट पानी पीता था। अब प्यास बहुत बढ़ गई है। पेट बेतरहा फूला रहता है। बहुत भारीपन मालूम होता है। उठना बैठना मुहाल है। चलना फिरना बंद है। पेट गड़गड़ाया करता है। पेशाब सुर्ख होता है। पाखाना ठीक-ठाक नहीं होता। लेटे बैठे रहने से कम खड़े होने चलने से पेट का भारीपन बढ़ जाता है। वैद्य भी कुछ नहीं कर सकते। शाम सुबह त्रिफला का चूर्ण खिलाते हैं।
म. प्र. द्विवेदी (7.11.38) ”
इसके 5 दिन पहले ही उन्होंने बीमारी से संबंधित एक यह पत्र भी अपने समधी को लिखा था-
शुभाशिष: सन्तु,
“मैं कोई 2 महीने से नरक की यातनाएं भोग रहा हूं। पड़ा रहता हूं। चल फिर कम सकता हूं। दूर की चीज भी नहीं देख पड़ती। लिखना पढ़ना प्रायः बंद है। जरा सी दलिया और शाक (सब्जी) खा लेता था। अब वह कुछ हजम नहीं होता। तीन पाव के करीब दूध पीकर रहता हूं-3 दफे में। सूखी खुजली अलग तंग कर रही है बहुत दबाए की नहीं जातीं।
शुभैषी
म. प्र. द्विवेदी 2.1138 ” संदर्भ: किशोरी दास बाजपेई को लिखित पत्र सरस्वती भाग 40 संख्या 2 प्रष्ठ 222,23
21 दिसंबर 1938 को रायबरेली शहर के बेलीगंज मोहल्ले स्थित अपनी पौत्री श्रीमती मनोरमा देवी शर्मा की ससुराल में अंतिम सांस लेने वाले आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती से त्यागपत्र देने के बाद जीवन के अंतिम 18 वर्ष अपने जन्म ग्राम दौलतपुर में ही बिताए। इस दौरान कुछ काल तक वह आनरेरी मजिस्ट्रेट और ग्राम पंचायत के सरपंच के रूप में भी सेवाएं देते रहे। इसके बाद उनका स्वास्थ्य दिन प्रतिदिन गिरता गया। पंडित शालग्राम शास्त्री आदि अनेक वैद्य और डॉक्टरों की औषधियां निष्फल सिद्ध हुईं। रोग ग्रस्त होने के बाद उन्हें अन्न त्याग देना पड़ा।
लखनऊ विश्वविद्यालय से ” आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनका युग” विषय पर हिंदी का प्रथम शोध डॉ. उदयभानु सिंह ने 1948 में किया था। डॉ उदय भान सिंह के इस शोधग्रंथ को लखनऊ विश्वविद्यालय ने संवत 2008 (वर्ष 1951) में प्रकाशित किया इसके मुद्रक रमाकांत मिश्र एमए लखनऊ प्रिंटिंग हाउस अमीनाबाद लखनऊ थे। शोध ग्रंथ के रूप में यह अनमोल उपहार लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रख्यात समालोचक डॉ सूर्य प्रसाद दीक्षित जी ने पिछले वर्ष आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय स्मारक समिति को भेंट किया था।
शोधग्रंथ में ही कहा गया है कि बीमारी से घिरे आचार्य द्विवेदी बार-बार कहा करते थे कि आप मेरे महाप्रस्थान का समय आ गया है। अक्टूबर 1938 के दूसरे सप्ताह में उनके भांजे कमला किशोर त्रिपाठी के समधी डॉक्टर शंकर दत्त जी उन्हें रायबरेली ले गए। शोध ग्रंथ के मुताबिक, शंकर दत्त जी ने अनेक वैद्य और डॉक्टरों की सहायता तथा परामर्श से द्विवेदी जी की चिकित्सा कराई लेकिन सभी उपचार निष्फल में और 21 दिसंबर को प्रातः काल 4:45 बजे उस अमर आत्मा ने शरीर त्याग दिया। हिंदी साहित्य की आचार्यपीठ अनिश्चितकाल के लिए सूनी हो गई।
उनके प्रति आभार के साथ-साथ हिंदी भाषा के अप्रतिम योद्धा एवं युग प्रवर्तक साहित्यकार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को 84वें निर्वाण दिवस पर शत-शत नमन