डॉ. प्रणव पण्ड्या
महर्षि पुलह एवं क्रतु के इस कथन ने देवर्षि को किन्हीं स्मृतियों से भिगो दिया। उनकी आँखें छलक उठीं। वे विह्वल स्वर में बोले- ‘‘हे महर्षिजन! मुझे आप सबका आदेश शिरोधार्य है। मैं अब भक्ति की व्याख्या करूँगा-
‘अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः’॥ १॥
‘‘अब भक्ति की व्याख्या यही मेरे द्वारा रचित भक्ति दर्शन का पहला सूत्र है। मैंने इस क्रम में ८४ सूत्र रचे हैं। इन ८४ सूत्रों में ८४ लाख योनियों की भटकन से उबरने का उपाय है। भक्ति की इस अमृतधारा से अखण्ड ज्योति को प्रकाशित करने से मानव जीवन प्रकाशित होगा। आज परम पवित्र घड़ी है। हिमालय के इस आँगन में भक्ति के नवस्रोत का उद्गम हो, इसी में हमारे तप एवं ज्ञान की सार्थकता है।’’
देवर्षि के इस कथन से महर्षियों को अपना यह मिलन सार्थक लगने लगा। उन्हें अनुभव हुआ कि देवर्षि के ये वचन मनुष्य को उसकी भटकन से अवश्य बचायेंगे। सभी महर्षियों की इन मानसिक तरंगों को अनुभव करते हुए परम भागवत नारद ने कहा- ‘‘हे महर्षिजन! आज मैं अपनी अनुभवकथा कहता हूँ कि मैंने अपनी वासनाओं को भावनाओं में कैसे बदला। मेरी यह अनुभवगाथा ही भक्ति के इस प्रथम सूत्र की व्याख्या है।’’ देवर्षि नारद के इस कथन ने सब की उत्सुकता जाग्रत कर दी। कथाश्रवण की लालसा में सभी के मन निस्पन्द हो गये और साथ ही भक्ति की अमृत गंगा बहने लगी।
देवर्षि कह रहे थे, ‘‘हे ऋषिगण! पूर्वकल्प में मैं उपबर्हण नाम का गंधर्व था। मेरा शरीर जितना सुन्दर था, अंतस् उतना ही कुरूप। वासनाओं को ही भावना समझता था। प्रेम का अर्थ मेरे लिए कामुकता के सिवा और कुछ भी न था। अनेकों स्त्रियों से मेरे वासनात्मक सम्बन्ध थे। शृंगार एवं वासना भरी चेष्टाओं में मेरा जीवन बीत रहा था। इस क्रम में मेरी उन्मुत्तता यहाँ तक थी कि कथा-कीर्तन के अवसर पर भी मैं वासनाओं में मग्न रहता था। एक अवसर पर तो मैंने ब्रह्मा जी की उपस्थिति में भी भगवान के कीर्तन के समय जब अपनी वासना भरी चेष्टाएँ जारी रखी तो उन्होंने मुझे शाप दिया, जा तू शूद्र हो जा।
यह ब्रह्मकोप ही मेरे लिए कृपा बन गया। मैंने दासी माता की कोख से जन्म लिया। मेरी माँ दासी होते हुए भी सदाचारी, संयमी एवं भगवान की सच्ची भक्त थी। संतों एवं भक्तों की सेवा में उसका जीवन व्यतीत होता था। माँ के साथ साधुसंग के अवसर मुझे भी मिले। साधु सेवा एवं सत्संगति ने मुझे साधना सिखाई, और प्रारम्भ हो गयी मेरे रूपान्तरण की प्रक्रिया। अपनी वासना भरी चाहतों पर मुझ ग्लानि होने लगी। साधु सेवा से जब भी मुझे विश्राम मिलता, मैं पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान करने लगता। पास के सरोवर के जल का पान और पीपल के नीचे ध्यान। यही मेरी दिनचर्या बन गयी।
इसी बीच मेरी माँ चल बसीं। शरीर छोड़ते हुए उन्होंने मुझसे कहा- ‘‘पुत्र! भक्ति को ही अपनी माँ समझना। माँ के इन प्रेमपूर्ण वचनों ने मुझे भक्ति से भिगो दिया। जैसे-जैसे निर्मल होता गया-प्रभु की झाँकी मिलने लगी। परन्तु पूर्ण निर्मलता के अभाव में उस समय मुझे भगवान का साक्षात्कार न हो सका। परन्तु अगले कल्प में ब्रह्माजी के मन से फिर मेरा प्राकट्य हुआ। भक्ति के प्रभाव से रूपान्तरित हो गया मेरा जीवन। लीलामय प्रभु ने मुझे अपना पार्षद बना लिया। भक्ति ने मुझे भगवान का सान्निध्य एवं प्रेम का वरदान दिया। इस प्रेममय भक्ति की व्याख्या अगले सूत्र में कहेंगे।’’ ऐसा बोलकर नारद जी मौन हो गये। आकाश में अब अरुणोदय होने लगा था। महर्षियों के समुदाय ने भी इस अमृतवेला में नित्य कर्मों के साथ संध्या वन्दन का निश्चय किया।