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पुस्तक समीक्षा : कुलभूषण के बहाने विस्थापन की त्रासदी का आख्यान

Frontier Desk by Frontier Desk
25/02/21
in साहित्य
पुस्तक समीक्षा : कुलभूषण के बहाने विस्थापन की त्रासदी का आख्यान
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श्री कृष्ण यादव


कहानियां अपने समय से संवाद करती हुई सभ्यता की समीक्षा का इतिहास दर्ज कराती हैं।देश के पूर्वी हिस्से की बड़ी आवादी की त्रासदी यह रही है कि उसे एक बार नहीं दो-दो बार विभाजन के दंश को झेलना पड़ा। विभाजन के चलते लाखों चकनाचूर होती जिंदगियां हैं,कहानियां हैं,जिसे कोई याद नहीं करता, याद करना भी नहीं चाहता, उसी गुमनाम कहानियों को दर्ज कराता है अलका सरावगी का उपन्यास ‘कुलभूषण का नाम दर्ज किया जाएगा’। इस उपन्यास में कुलभूषण को केंद्रीय पात्र के रूप में रखा गया है, जिसके बहाने बांग्लादेश के कुष्टिया जिले से कोलकाता तक और आगे के पलायन के दर्द को पिरोया गया है ।

जब हमारा देश गुलाम था तो लोगों में इसे आजाद कराने के सपने थे। चाहे वह किसी जाति, धर्म, लिंग का रहा हो, सभी ने अपने सपनों के लिए संघर्ष किया। उनके सपने वैसे सपने तो नहीं ही रहे होंगे जैसा आगे चलकर हुआ ।14 अगस्त 1947 को दुनिया के नक्शे में पाकिस्तान का उदय हुआ। सबसे अजीबोगरीब स्थिति यह थी कि उसका एक हिस्सा उसके मूल नक्शे से 1400 किलोमीटर दूर था जिसका नाम ‘पूर्वी पाकिस्तान’ रखा गया। जहां बांग्ला संस्कृति-भाषा थी।आगे चलकर पूर्वी पाकिस्तान पर उर्दू थोपने का प्रयास हुआ। जिसके चलते विरोध शुरू हुआ और उसके दमन की कहानी आई । बंगाली मुसलमानों और हिंदुओं को यातनाएं दी जाने लगी, जिसका इतिहास बहुत लंबा है । दो दशक बाद पाकिस्तान से अलग हो कर ‘बांग्लादेश’ का जन्म हुआ। जिसमें भी न जाने कितने लोग शहीद हुए और यह भाषाई सवाल पर अलग होने वाला दुनिया का पहला देश बना। यह तो इतिहास है जहां सवेदनाओं को अक्सर दरकिनार कर दिया जाता है । सवेदनाओं को समेटने का कार्य साहित्य करता है ।विभाजन, विस्थापन पर खूब साहित्य लिखे गए हैं । उपन्यासों में राही मासूम रजा का ‘आधा गांव’, कृष्णा सोबती का ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’, यशपाल का ‘झूठा सच’, भीष्म साहनी का ‘तमस’ आदि पश्चिमी पाकिस्तान पर केंद्रित रहे। पूर्वी पाकिस्तान के विभाजन पर केंद्रित बहुत कम ही लिखा गया है। महुआ मांझी, राधाकृष्ण ने लिखा भी है, तो हिंदी वालों का ध्यान बहुत कम ही गया है ।जब1971 के युद्ध को 50 वां वर्ष हो तब अलका सरावगी का यह उपन्यास महत्वपूर्ण उपलब्धि है, जो हमेशा याद किया जाएगा। यह उस दौर में प्रकाशित हुआ जिस समय एनआरसी लाने का विचार हवा में फैलाया जा रहा है।

यह उपन्यास कुलभूषण की ही कथा नहीं बल्कि अथाह वेदना की कथा है जो बंगलादेश के कुष्टिया जिले से रिफ्यूजी बनकर कोलकाता आया आया है। नाम छिपा कर जीना उसकी नियति है। पहले ‘कुलभूषण’ से ‘भूषण’ बना फिर ‘गोपाल चंद्र दास’, फिर भी वह अपना वजूद बचाए रखना चाहता है। यह सिर्फ एक लाइन की कथा नहीं है बल्कि इस कथा में अनेक उपकथाएं हैं, उपकथाओं में अनेक कहानियां हैं, जो राजनीति, भाषा, समाज, संस्कृति से जुड़े बहुत से शाश्वत सवालों को प्रभावी ढंग से रेखांकित करती हैं। अलका जी ने इस उपन्यास में बांग्ला ही नहीं बल्कि मारवाड़ी संस्कृतियों के चित्र को बखूबी से पेश किया है।
अलका सरावगी की कथा शैली की विशेषता रही है कि वह किसी कहानी के एक सिरे को पकड़ती हैं और उसके तह तक गोता लगाती चली जाती हैं ।यह उपन्यास लीक से हटकर है जिसमें पत्रकार और ‘कुलभूषण’ के वार्ता के बीच नेरेटर पूरी कहानी कहता चली जाती हैं। शुरुआत में कुलभूषण ‘आत्मकथा’ नामक नाटक के पोस्टर पर निगाहें डालता है और ठहर जाता है। क्योंकि नाटक के नायक का नाम भी कुलभूषण ही है, और अपने वजूद को बचाने की कश्मकश में लग जाता है । फिर स्मृतियों में डूब जाता है जहां प्रेम है, नफरत है, सांप्रदायिकता, काट-मार, भूख, सड़ी लाशें और न जाने क्या-क्या है..
उपन्यास में विस्थापन ही नहीं बल्कि उससे उपजी अनेक प्रेम कथाएं हैं, प्रेम रंग हैं।।कुलभूषण हमेशा ‘लव’ शब्द का इस्तेमाल किया है ‘प्रेम’ का नहीं। उपन्यासकार लिखती हैं “प्रेम हिंदुस्तानी लोग करना ही नहीं जानते। सब सौदेबाजी जानते हैं । कहीं कुल का सौदा,कहीं धन का, कहीं रंग का, कहीं जन्मकुंडली के गुणों का।” इस उपन्यास में दर्ज किए गए नामों में श्यामा और अमला का नाम विशिष्ट है, जो हमारी दिल की गहराई में बैठ जाता है।शुरू के अध्याय में श्यामा धोबी का जिक्र थोड़ा सा है । वह कुलभूषण को भूलने की बटन देता है लेकिन आगे चलकर वह जैसे केंद्रीय पात्र के रूप में उभरता है। उसका व्यक्तित्व बंबईया फिल्मों के हीरो की तरह है, जो सामान्य व्यक्ति होकर भी हमेशा आगे की पंक्ति में रहा है । समानता,भाईचारे और मोहब्बत की छाप छोड़ता है ।चेहरे से सुंदर ना होने के बावजूद अमला का दिल जीत लेता है। उसका दिल ‘गोराई’ नदी सा पवित्र है। अंततः पाकिस्तानी फौजियों से घिर जाने पर “श्यामा ने एक गोली अपने लिए रख बाकी सभी निशाने से पाकिस्तानी सिपाहियों पर खाली कर दिया। वह गिरा भी तो ऐसे जैसे अमला का आलिंगन कर रहा हो”।
उपन्यासकार ने राजनीतिक षड्यंत्रों को अपनी कलम से यथा स्वरूप पिरोने का सफल प्रयास किया है, जहां धर्म, जाति और भाषा के लिए लोगों को आपस में लड़ा दिया जाता है। “पार्टीशन के समय और उसके 3 साल बाद बरिशाल के दंगों के बाद यहां कितने मुसलमान रातों-रात मकान मालिक हो गए सब जानते हैं”।
इस उपन्यास में अनिल मुखर्जी, गोपाल बाबू, डॉ कासिम आदि न जाने कितने नाम हैं जो संघर्षों की लड़ाई में शामिल हैं। इसे पढ़ने पर महसूस किया जा सकता है कि अपना हाट-बाजार, घर, भाषा छूटना कितना तकलीफ देह होता है। उपन्यासकार ने सर्वहारा के तह में जाकर उसके मनः स्थिति का वर्णन किया है। “सर्वहारा अपनी गरीबी को भी छुपा कर रखता है, कि इज्जत से जी सके । तुम्हें जब भी जरूरत पड़ेगी वह तुम्हारी मदद करेगा । पर उसे जब भी जरूरत होगी वह तुम्हें बता तक नहीं पाएगा”।

पलायन का दर्द इतना खौफनाक होता है कि उसके कल्पना से ही हमारे मन में अनेक विचित्र बिंब बनने लगते हैं। अमीरों के लिए उनके सम्मानित नाम का खोना, संपत्ति का खोना, हुजूम का खोना है बल्कि गरीबों के लिए सबसे बड़ा दर्द उनके पास-पड़ोस का खोना है, जो अक्सर सुख-दुख में भागी हुआ करते हैं। “किसके कपड़े धोयेगें वहाँ? हमारा घर द्वार, हमारी नदी, हमारा धोबी घाट छोड़कर कहां जाएं?”पलायन की लंबी कहानी रही है, रिफ्यूजियों का लंबा कारवां रहा है। उनके लिए ‘रिलीफ एंड रिहैबिलिटेशन डिपार्टमेंट’ शिविर था, जहां बांग्लादेश से आने वाले रिफ्यूजियों का नाम दर्ज होता था । फिर उन्हें कहीं और भेज दिया जाता । आखिर कोलकाता कितना बोझ उठाता? 1949 के अप्रैल तक पूरी पाकिस्तान से 19 लाख लोग कोलकाता आ चुके थे । भारत सरकार ने इन्हें बचाने के लिए पूर्वोत्तर के राज्यों के अलावा अंडमान, बिहार ,उड़ीसा, छत्तीसगढ़ के दंडकारण्य चुना। 1957-58 में ‘दंडकारण्य प्रोजेक्ट’ शुरू हुआ। यह बांग्लादेश से आए गरीब हिंदुओं और दलित शरणार्थियों को बसाने लिए था। इनको राशन कार्ड दिया गया, वोट देने के अधिकार दिया गया, लेकिन कुछ लोग आज भी नागरिकता से वंचित हैं। यह तो इतिहास है लेकिन यही सब दर्ज कराता है यह उपन्यास। दर्ज किया है कि रेल आगे बढ़ती गई और कहानियों की पटरी पर चलती गई। कोई अपनी कहानी सुनाते सुनाते चित्कार से रोने लगता, किसी की देह सुबकियों से देर तक हिलती रहती । “कुलभूषण ने देखा कि रेल में प्रायः नाम शूद्र जाति के लोग थे -किसान, मजदूर, नाई ,कुम्हार, छोटे दुकानदार आदि “।
उपन्यासकार ने पूर्वी पाकिस्तान में ही नहीं बल्कि भारत में भी फैली सांप्रदायिकता का भी चित्र खींचा है। ” रेल जब तक रायपुर पहुंची पूरी रास्ते सुनी कहानियों से निकलकर लूटपाट करते लोग ….. पेट में छुरा मारने से खून के फव्वारे छोड़ते लोग, बलात्कार की जाती औरतें, उठाकर ले गई लड़कियां और औरतें, मारकर नदी में फेंके गए बच्चे”।

रिफ्यूजी कैंपों में लोगों को ठगने वाले शरद नस्कर जैसे लोग ,लोगों को ठगकर अमीर हो गए थे। उपन्यासकार ने दिखाया है कि लोग थोड़े-थोड़े खाने के लिए क्या-क्या नहीं किया -“बाबू तुम देख ही रहे हो मेरी बेटी ललिता 14 साल की हो गई है। इधर-उधर खाने का जुगाड़ करती फिरती है”।इस तरह जिंदगी कटती थी जहां भूख मिटाने के लिए देह बेची जाती । उन्हीं कैंपों में ‘बलवान सिंह’ जैसे लोग भी लोग हैं जो कहते हैं-” क्या लौंडे यही माल लाता रहेगा? दूसरे माल का धंधा भी कर । वहां छोकरिया भी तो बहुत हैं। एक-दो ले आ 10 रुपये बक्शीश दूंगा”।यहां सब आंसू लिए भी हैं जिन्हें देख कर लगता है कि 700 नदियों वाले देश पूर्व बंगाल के हर जीव के पास एक नदी रही होगी, जो अब आंसुओं की तरह बह रही है।

उपन्यास में बांग्लादेश को आजाद कराने के संघर्ष का जो व्यापक चित्र खींचा गया है वह कहीं से भी फिल्मी नहीं लगता। उसमें ‘जय बांग्ला’ के नारे ही नहीं बल्कि अपने प्राणों को न्यौछावर करते लोग भी दिखते हैं । और यह भी दिखाया है कि एक तरफ सशस्त्र युद्ध था तो दूसरी तरफ स्त्रियों के देह पर लड़ा लड़ा जा रहा है युद्ध था।

चाहे मल्ली का नामकरण हो, अमला-श्यामा का प्यार हो उपन्यासकार ने धर्म, जाति को दरकिनार कर रखा है । और ‘मोहम्मद इस्लाम’ भी एक ऐसा इंसान है जो इंसानियत का नाम दर्ज कर जाता है। भूलने की बटन होने के बावजूद कुलभूषण मल्ली के आत्महत्या का चैप्टर क्लोज नहीं कर पाता। वह समझने का प्रयास करता है कि टैगोर की वो पंक्ति जिस पर मालविका अंडर लाइन की है -“गोरा के सामने उसका जीवन एक क्षण में जैसे सपना हो गया। ….उसकी मां नहीं ,पिता नहीं, देश नहीं, जाति नहीं ,नाम नहीं, गोत्र नहीं, देवता नहीं “।इन सब की रिक्तता का दुख क्या होगा अलका ने बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है।

इस उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि पूरे उपन्यास में लेखिका ने कहीं हिंदू-मुसलमान नहीं होने दिया।उपन्यास का पूरा फ्रेम निष्पक्ष तरीके से बनाया गया हैं । कहीं कहीं ज्यादा भावुक भी हुई हैं । ‘कार्तिक बाबू’ की मृत्यु पर जैसा वर्णन किया है वैसा वर्णन श्यामा-अमला की मृत्यु पर नहीं की । कामरेड रोशन अली और श्यामा का संवाद कुछ अखरता भी है ,न जाने क्यों उनको असंवेदनशील की तरह दिखाया गया है। फिर भी अनेक किरदारों का सुंदर संयोजन ,घटनाओं की बारीकी ,इतिहास का सम्मिश्रण, पारंपरिक उपन्याशिक शैली से हटकर अनोखा शिल्प गढ़ना,काव्यात्मकता की भरमार, यह सब अलका सरावगी की विशेषता है। यह उपन्यास उपन्यास के साथ दस्तावेज है, इतिहास है, जो कुलभूषण, श्यामा, मल्ली आदि जैसे किरदारों को दर्ज कराता है। उपन्यासकार ने इसमें एक भूलने की बटन रखी हैं जो उपन्यास को एक आधार देता है, जिसे चाह कर भी हम कभी भुला नहीं पाएंगे ।


उपन्यास- कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए
लेखिका- अलका सरावगी
प्रकाशन- वाणी प्रकाशन

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