गौरव अवस्थी
नई दिल्ली। इसमें कोई दोराय नहीं कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र अपने देश भारत ने हर क्षेत्र में काफी तरक्की की है। हर क्षेत्र में कई गुना बढ़ोतरी विश्व के तमाम देशों में गर्व से रहने का अवसर देती है लेकिन मतदान प्रतिशत के मामले में हम आज भी कई छोटे-छोटे देशों से पीछे हैं। 72 वर्षों में मतदान प्रतिशत में अभी तक अधिकतम 22% की वृद्धि ही हुई है। वह भी स्थाई नहीं। सेंसेक्स की तरह इसमें चुनाव-दर-चुनाव उतार-चढ़ाव देखे गए हैं।
आजाद भारत का पहला चुनाव अक्टूबर 1951 से फरवरी 1952 के बीच हुआ। तब देश में 17.32 करोड़ मतदाता थे और आबादी करीब 30 करोड़। उस वक्त देश में लोगों को मतदान प्रक्रिया समझाने की जरूरत थी। तबकी सरकार ने देश भर के 3000 सिनेमा घरों में मतदान प्रक्रिया समझाने के लिए मूवी चलवाई। अखबारों में विज्ञापन दिए। अनुभवविहीनता के बावजूद पहले आम चुनाव में 44.5% वोटरों ने मतदान किया। बाद की सरकारों ने भी मतदान प्रतिशत बढ़ाने के अनेक उपाय किए। इन उपायों का नतीजा ही था कि तीसरी आम चुनाव में वोटों में करीब 10% की एकसाथ वृद्धि हुई।
वर्ष 2011 में चुनाव आयोग के स्थापना दिवस 25 जनवरी को राष्ट्रीय मतदाता दिवस पूरे देश में मनाने की शुरुआत हुई। पहले राष्ट्रीय मतदाता दिवस पर मतदान का महत्व बताने के लिए देशभर के साढ़े आठ लाख मतदान केंद्रों के अतिरिक्त देश भर के 40 हजार शिक्षण संस्थानों में सेमिनार, गोष्ठियां और रैलियां आयोजित की गईं। यह काम आज भी जारी है। इधर कुछ वर्षों से मतदान बढ़ाने के लिए चर्चित हस्तियों को ब्रांड एंबेसडर बनाने का काम भी चल रहा लेकिन मतदान प्रतिशत में अपेक्षित बढ़ोतरी के परिणाम नहीं निकल सके।
अभी तक के चुनावी इतिहास में अधिकतम मतदान 2019 के चुनाव में 67.40% तक ही पहुंचा है। इसमें भी मतदाता जागरूकता का कारण कम परिस्थितियां ज्यादा जिम्मेदार हैं। मसलन, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देशभर में उपजी सहानुभूति लहर के बीच हुआ 1984 का चुनाव हो या 2014 में मोदी के चेहरे पर लड़ा गया चुनाव। 2014 के मोदी मैजिक ने मतदान प्रतिशत में करीब 8 प्रतिशत वृद्धि की छलांग तो लगाई लेकिन 1962 के आम चुनाव की बढ़ोतरी का रिकॉर्ड यह मैजिक भी तोड़ नहीं पाया। 62 के चुनाव में मतदान प्रतिशत में 9.98 % की वृद्धि दर्ज की गई थी। 18वीं लोकसभा के लिए भारत निर्वाचन आयोग ने 70% मतदान का लक्ष्य निर्धारित किया है। इसके लिए व्यापक प्लानिंग भी है।
यह अफसोसनाक है कि सात दशक की लंबी अवधि में अभी हम सिक्के के एक पहलू पर ही केंद्रित हैं। दूसरा पहलू देखना ही बाकी है। आर्थिक तरक्की की दौड़ और अमेरिका और यूरोपीय देशों के बराबर पहुंचने ने की अंधी होड़ में माल्टा जैसे छोटे देशों के मतदाताओं की परिपक्वता को दरकिनार कर देते हैं, जहां मतदान 91% तक पहुंच चुका है। इस मामले में हम सिंगापुर जैसे छोटे देश को भी नजर नजरअंदाज करते हैं। सिंगापुर के 2020 के आम चुनाव में 95.81% मतदान हुआ था। मतदान प्रतिशत के मामले में ऑस्ट्रेलिया का उदाहरण भी हमें सामने रखना चाहिए। 2016 के संघीय चुनाव में ऑस्ट्रेलिया में प्रतिनिधि सभा के लिए 91% और सीनेट के लिए 95 प्रतिशत मतदान हुआ था।
आज देश की आबादी 140 करोड़ से ऊपर है और मतदाताओं की संख्या करीब 97 करोड़। यानी मतदाता और आबादी आजादी के वक्त से करीब 5 गुना अधिक। आजादी के वक्त भारत की अर्थव्यवस्था केवल 2.7 लाख करोड़ की ही थी। आज देश की अर्थव्यवस्था 272 का लाख करोड़ रुपए से आगे बढ़ चुकी है। आंकड़े कहते हैं कि आजादी के बाद भारत की अर्थव्यवस्था का आकार 100 गुना बढ़ा। आजादी के समय देश में प्रति व्यक्ति आय 60 डाॅलर से बढ़कर 2200 डाॅलर तक पहुंच चुकी है। इन वर्षों में साक्षरता दर भी बढ़ी और इंफ्रास्ट्रक्चर भी। चुनाव खर्च भी 60 पैसे प्रति मतदाता से बढ़कर 72 रुपए प्रति मतदाता पहुंच गया लेकिन अपेक्षा के अनुरूप मतदान प्रतिशत नहीं बढ़ा।
यह गौर करने लायक बात है कि जब हर क्षेत्र में भारत ने कई पायदान चढ़कर तरक्की के नए इतिहास लिखे हैं तो मतदान प्रतिशत में बढ़ोतरी के मामले में हम इतने पिछड़े क्यों है? किसी ने सही ही कहा है कि किसी भी देश की तरक्की का असली अक्स मतदान प्रतिशत में ही देखा जाना चाहिए। मतदाता जितने जागरूक होंगे उतना ही लोकतंत्र स्वस्थ होगा और तरक्की की इबारत भी उतनी ही मजबूत। स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के राजनीतिक वैज्ञानिक एडम बोनिका एवं माइकल मैकफाॅल बहुत पहले कह चुके हैं-‘जब अधिक लोग मतदान करते हैं तो लोकतंत्र बेहतर प्रदर्शन करता है।’
इसके लिए जरूरी है कि मतदाता पंजीकरण की प्रक्रिया जर्मनी, फ्रांस एवं स्पेन की तरह आसान की जाए और ऑस्ट्रेलिया की तरह अनिवार्य। ऑस्ट्रेलिया में मतदाता पंजीकरण और मतदान केंद्र पर उपस्थिति अनिवार्य है। फ्रांस और स्पेन में 18 वर्ष से अधिक उम्र का प्रत्येक नागरिक का नाम आटोमैटिक मतदाता सूची में दर्ज हो जाता है। बोलीविया में तो मतदान नहीं करने पर बैंक में 3 महीने पैसा निकालने पर रोक लग जाती है।
कम मतदान एक ऐसा अहम मसला है जिस पर हमारे राजनेताओं और राजनीतिक दलों ने कोई गंभीर विमर्श आज तक धरातल पर किया ही नहीं। यहां भी पुरानी कहावत ही लागू है- मर्ज कुछ और-इलाज कुछ और। ऐसे में सवाल है कि कम मतदान के असली कारण खोजने की कोशिश अमृतकाल में शुरू नहीं होगी तो कब होगी? 5 ट्रिलियन की इकोनॉमी दुनिया में भारत का मान तो बढ़ा सकती है पर स्वस्थ लोकतंत्र नहीं बना सकती। जहां एक बड़ी आबादी मतदान में भाग लेती ही न हो उस देश की सरकार से समग्र विकास की उम्मीद भी बेमानी ही समझी जानी चाहिए। अब समय आ गया है कि देश के हर वर्ग, धर्म, दल के चिंतकों-विचारकों और विकासवादी नेताओं को इस मुद्दे पर अपना मौन तोड़कर मतदान प्रतिशत बढ़ाने का नया तोड़ निकालने के संयुक्त जतन शुरू करने चाहिए। इससे दुनिया में अपने लोकतंत्र की प्रतिष्ठा ही बढ़ेगी। इसके बिना हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र तो हो सकते हैं लेकिन परिपक्व लोकतंत्र की मिसाल नहीं कायम कर सकते। हालांकि वर्तमान हालात में जब सभी दलों को अपनी-अपनी ही पड़ी हो तब यह बात दूर की कौड़ी ही लगती है।