श्री कृष्ण यादव, प्रतापगढ़
परास्नातक छात्र, हिंदी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
कविता, कहानी और वर्तमान विषय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेखन
प्रेमचंद सिर्फ साहित्यिक प्राणी ही नहीं थे, बल्कि उनकी कलम सामाजिक विमर्श और तत्कालीन समस्याओं पर भी चली। प्रेमचंद ने 19वीं सदी के अंतिम दशक से लेकर 20वीं सदी के लगभग तीसरे दशक तक भारत में फैले हुए तमाम सामाजिक समस्याओं पर कलम चलाई । उन्होंने गरीब मजदूरों व किसानों पर हो रहे अत्याचार और शोषण को बड़ी निकटता से देखा था, यही कारण है कि उन्होंने समाज से जुड़ी इस तरह की घटनाओं को अपनी रचनाओं में यथार्थ रूप से स्पष्ट वर्णन किया है ।
जब भारतीय इतिहास के संधि काल में कथा सम्राट प्रेमचंद का आविर्भाव हुआ, उस समय गुलाम भारत के राजनीतिक, सामाजिक ,आर्थिक विसंगतियों का अस्त-व्यस्त परिदृश्य का मानचित्र अंग्रेजी साम्राज्यवादी शोषण नीतियों से और ज्यादा दयनीय हो कर बिखर चुका था। यही कारण है कि 1905 ई. में रूसी क्रांति के पश्चात समस्त एशिया के साथ-साथ भारतीय जन आंदोलन भी जागरूकता व विद्रोह की नई लहरों से उद्वेलित हो उठा। उत्तर प्रदेश के दक्षिणी हिस्से में देशप्रेम नामक छोटी-छोटी कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ , जिसमें पांच छोटी-छोटी कहानियां संग्रहित थी, लेखक थे प्रेमचंद।
प्रेमचंद के साहित्यिक जीवन का सूत्रपात इसी तरह हुआ जिसका वास्तविक विकास प्रथम महायुद्ध के पश्चात सन 1919 से 1959 के बीच हुआ। उन्होंने जिस दौर में सक्रिय रूप से लिखना शुरू किया वह दौर था छायावाद। प्रसाद पंत निराला महादेवी वर्मा उस समय चरम पर थी। पर प्रेमचंद अपने को किसी वाद से जोड़ने के बजाय तत्कालीन समाज में व्याप्त छुआछूत ,संप्रदायिकता, हिंदू-मुस्लिम एकता ,दलितों के प्रति सामाजिक समरसता जैसे ज्वलंत मुद्दों को जोड़ा। एक लेखक से परे भी उनकी चिंताएं थी और उनकी रचनाओं में इसकी मुखर अभिव्यक्ति हुई है । उनकी कहानियों तथा उपन्यासों के पात्र सामाजिक व्यवस्थाओं से जूझते हैं ,और अपनी नियति के साथ-साथ भविष्य की इबारत भी गढते हैं। नियति में उन्हें यातना, दरिद्रता व नउम्मीदी भले ही मिली हो पर वह अंततः हार नहीं मानते और संघर्षों की जिजीविषा के बीच भविष्य की नींव रखते हैं ।
प्रेमचंद ऐसे राष्ट्र राज्य की कल्पना करते हैं जिनमें किसी भी तरह का भेदभाव ना हो, ना वर्ण का, न जाति का, ना रंग का और ना धर्म का । प्रेमचंद का सपना हर तरह की विषमता सामाजिक कुरीतियों और सांप्रदायिक वैमनस्य से परे था जिसमें समता सर्वोपरि हो ।अपने एक लेख में वे लिखते हैं-” क्या अब भी हम अपने बड़प्पन का, अपनी कुलीनता का ढिंढोरा पीटते फिरेंगे ?यह ऊंच-नीच छोटे-बड़े का भेद हिंदू जीवन में रोम रोम में व्याप्त हो गया है। हम किसी तरह नहीं भूल सकते कि हम वर्मा हैं, हम शर्मा हैं, सिन्हा हैं या चौधरी”। प्रेमचंद्र के राष्ट्र राज्य में दलितों के साथ स्त्रियां और किसान समान भाव से मौजूद हैं जिनके विकास के बीच भारत के विकास की कल्पना भी बेमानी है । स्त्रियों के साथ समाज में हो रहे दोयम दर्जे के व्यवहार को प्रेमचंद ने कड़ा विरोध किया और अपनी रचनाओं में उसे स्वतंत्र व्यक्तित्व का दर्जा देते हुए विकास की धुरी बनाया।
जहां तक कहानी कला का प्रश्न है इस संदर्भ में प्रेमचंद ने जो मान्यताएं आदर्श जीवन में आत्मसात किए उनका सफल निर्वाह का निर्धारण कहानियों में किया। उनमें मानवतावाद की कला उनकी कला से कहीं अधिक महान थी।रचनाओं में जिन दलितों के जीवन का सजीव चित्रण किया उनके प्रति केवल मौखिक सहानुभूति नहीं थी अपितु इस सहानुभूति को अनेक बार व्यावहारिक रूप में व्यक्त कर परिवर्ती पीढ़ी के लिए अनुकरणीय आदर्श छोड़ गए। भाव अनुभूतियों के समान प्रेमचंद्र भाषा के भी सम्राट कहलाए । हिंदी कथा साहित्य को सर्वप्रथम प्रेमचंद ने ही प्रवाह युक्त, मुहावरेदार, शुगम ,सुबोध ,साधारण बोलचाल की बहुलता लिए पात्रानुकूल भाषा प्रदान की ।जो उनकी उलझी मन स्थिति तथा बाहरी संघर्ष के यथार्थ का सशक्त प्रतिबिंब प्रस्तुत करती है।
प्रेमचंद गांधी के सबसे निकट आते हैं। विचारधारा के स्तर पर वे गांधी से प्रभावित हैं ।वे मरजाद वाले कथाकार हैं। गोदान में होरी अपने विद्रोही होते पुत्र को समझाता है-” फिर मरजाद भी तो पालना ही पड़ता है ।खेती में जो मरजाद है वह नौकरी में तो नहीं है “। हिंदी के अतिरिक्त उर्दू के भी साहित्यकार रहे हैं। उनका रचनात्मक मूल्यांकन कई कारणों से समस्या उत्पन्न करता है वह पाठक को जितना सरल है आलोचक को उतना ही कठिन।