नई दिल्ली : सरकार ने 3 अगस्त को एक बम फोड़ा। इसने उद्योग और उपभोक्ताओं, दोनों को भयभीत कर दिया। पर्सनल कंप्यूटरों, लैपटॉप और टैबलेट के मुक्त आयात पर तत्काल प्रभाव से प्रतिबंध लगा दिया गया। कंप्यूटर आयात करने के लिए लाइसेंस की जरूरत होगी। ऐपल, डेल और सैमसंग ने विदेशों से ऑर्डर रोक दिए। छात्रों ने पूछा कि लाइसेंस के लिए कहां कतार में लगना है। माता-पिता को चिंता थी कि क्या कीमतें बढ़ जाएंगी। आईटी कंपनियों को इस बात की चिंता थी कि भविष्य में उनके बिजनस का क्या होगा। विदेशी निवेशकों के पास भी कॉल आने लगे कि क्या भारतीय अर्थव्यवस्था मुश्किल में है। एक ने पूछा, ‘क्या भारत के पास पर्याप्त भंडार नहीं है?’ दूसरे ने उम्मीद जताई कि भारत, श्रीलंका और पाकिस्तान की राह पर नहीं है।
इस उहापोह के माहौल में सरकार ने डैमेज कंट्रोल के लिए कदम उठाया। उसने अगले दिन ही लाइसेंस की समय-सीमा तीन महीने बढ़ा दी। यह देश को संदेश देने की कोशिश है कि लाइसेंस उदारतापूर्वक दिए जाएंगे और कीमतें नहीं बढ़ेंगी। सरकार ने समझाया कि आयात पर निर्भरता को कम करना और देश में मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ाना था। एक प्रवक्ता ने निजी तौर पर कहा कि सुरक्षा कारणों से भारत को चीन से आयात को कम करने की जरूरत है, जो 60% कंप्यूटरों की आपूर्ति करता है।
तो क्या यह ‘लाइसेंस राज’ की वापसी है? बिल्कुल नहीं। लेकिन भारत को दुनियाभर के दिग्गजों को ‘मेक इन इंडिया’ के लिए प्रेरित करने की जरूरत है। इसके साथ ही, वैध सुरक्षा चिंताओं को ध्यान में रखते हुए चीन के साथ 100 अरब डॉलर (करीब 8,285 अरब रुपये) के व्यापार घाटे को भी रोकना होगा। यह लक्ष्य बिल्कुल शांति और समझदारी से हासिल किया जा सकता था, लाइसेंस राज की भयानक व्यवस्था की वापसी के बिना।
दूसरा सवाल यह है कि भारत ने खुद कंप्यूटर क्यों नहीं बनाए हैं? वैश्विक आईटी पावर के रूप में उदय के साथ भारत को अब तक कंप्यूटर का प्रमुख निर्यातक देश बन जाना चाहिए था। अगर यह सॉफ्टवेयर और आईटी सर्विसेज का लीडिंग एक्सपोर्टर बन सकता है, तो कंप्यूटर हार्डवेयर का क्यों नहीं? इसका एक महत्वपूर्ण कारण भारत का विश्व व्यापार संगठन (WTO) के साथ हुए 1997 के सूचना प्रौद्योगिकी समझौते में कंप्यूटर आयात को ड्यूटी फ्री रखने का किया वादा है। हालांकि इस समझौते से कई लाभ हुए हैं, जिसमें हमारी सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री का उदय शामिल है लेकिन इसने हार्डवेयर इंडस्ट्री को मार डाला।
भारत में विदेश निर्मित ड्यूटी फ्री कंप्यूटरों की बाढ़ आ गई। लोकल कंप्यूटर उनसे मुकाबला नहीं कर सके। इसकी मुख्य वजह लॉजिस्टिक्स और इन्फ्रास्ट्रक्चर का बुरा हाल का होना है। ऊपर से फैक्ट्री लगाने के लिए जगह, बिजली और पूंजी की बड़ी लागत की भी मार पड़ी। नतीजा यह हुआ कि एचसीएल और विप्रो जैसी होनहार कंपनियों को अपने हार्डवेयर डिवीजनों को बंद करना पड़ा।
उसी समय हमसे मुकाबला कर रहे देशों, विशेष रूप से चीन ने विदेशी कंपनियों को अपने यहां प्रॉडक्शन करने पर सब्सिडी देना शुरू कर दिया। उधर, भारत सरकार ने कंपनियों को लुभाने के लिए प्रॉडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव (PLI) की शुरुआत कर दी। हालांकि, इसे खास सफलता नहीं मिली और मुट्ठीभर कंपनियां ही आकर्षित हुईं क्योंकि भारत में मैन्युफैक्चरिंग 8-12% महंगा था जबकि पीएलआई के तहत सब्सिडी सिर्फ 3% निश्चित की गई। फिर सरकार ने ज्यादा आकर्षक पीएलआई स्कीम शुरू की, लेकिन वो भी सफल होती नहीं दिख रही है। ऐसे में सामान्य कदम यह होता कि आयात शुक्ल बढ़ाकर लोकल मैन्युफैक्चर को प्रोत्साहित किया जाए। यही सेल फोन निर्माण के लिए किया गया था। लेकिन भारत डब्ल्यूटीओ के साथ जीरो ड्यूटी के वादे से बंधा हुआ था। हम मोबाइल मैन्युफैक्चरिंग के मोर्चे पर बच गए क्योंकि वे इन्फॉर्मेशन टेक्नॉलजी अग्रीमेंट में शामिल नहीं था।
अंत में भारत सरकार कंप्यूटर के लोकल प्रॉडक्शन के लिए कंपनियों को लाइसेंस देने लगी। यह गलत कदम था जिसे अर्थशास्त्रियों और व्यवसायियों ने जमकर निंदा की। इससे 1991 से पहले के लाइसेंस राज याद दिला दी जब लाइसेंस लेने में वर्षों लग जाते थे और नौकरशाही बेपनाह भ्रष्टाचार के दलदल में धंस गई थी। आम लोगों की प्रतिक्रिया समझ में आती है। आज कंप्यूटर सर्वव्यापी है, इसे प्रतिबंधित करना पेंसिल और कागज पर प्रतिबंध लगाने जैसा है। हर छात्र, व्यवसाय और सरकार इस पर निर्भर है। अचनाक ऐसे कदम से भारत की छवि एक ऐसे देश की बनती है जहां बिजनस करना कठिन है।
लाइसेंसिंग की घोषणा ने दिग्गज कंपनियों समेत तमाम मैन्युफैक्चरर से यह वादा लेने में कामयाब रही कि वो भारत में प्रॉडक्शन करेंगे। खबरों के अनुसार, पीएलआई सब्सिडी लेने वालों की संख्या दो से बढ़कर 44 हो गई है। फिर भी कंपनियों को छह महीने की समय-सीमा देते हुए शांत, सभ्य बातचीत के जरिए रास्ता निकालना बेहतर होता। इससे काम बन जाता। अराजकता, घबराहट, भरोसे को ठेंस और देश की प्रतिष्ठा को नुकसान से बचा जा सकता था।
वैश्विक कंपनियां खुद ही चीन को लेकर सतर्क हैं और अपना रिस्क कम करने के लिए दूसरे देशों में संभावनाएं तलाश रहे हैं। हालांकि, चीनी आयात को रातोंरात नहीं रोका जा सकता है। राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए लाइसेंस के अलावा लैपटॉप पर ट्रैपडोर और अंतर्निहित सुरक्षा खामियों की जांच करने के बेहतर तरीके हैं जो पर्सनल और इंडस्ट्री डेटा को खतरे में डालते हैं। निकट भविष्य में भारत सरकार के सामने अपना चेहरा बचाकर लाइसेंसिंग सिस्टम से बाहर निकलने की चुनौती होगी।
यह एक चेतावनी है जिसमें नियामकों के लिए सबक है। उद्योग जगत के साथ काफी गर्मजोशी से ऑफ-द-रिकॉर्ड बातचीत की जरूरत है। लाइसेंसिंग जैसे कदमों से निवेशकों का विश्वास और कड़ी मेहनत से देश को मिली प्रतिष्ठा को ठेस लगेगी। लगातार बाचतीत से ही पता चल पाएगा कि निवेशक भारत के बड़े बाजार के बावजूद हम पर वियतनाम को ज्यादा तवज्जों क्यों देते हैं। डराने की जगह लालच देने का विकल्प हमेशा अच्छा होता है। पीएलआई का लालच बढ़िया विकल्प है। हालांकि, हमें पीएलआई स्कीम को ऐसे ढांचे में ढालना चाहिए जिससे लोकल डिजाइन को बढ़ावा मिले और कंपोनेंट बनाने वाले अपनी फैक्ट्रियां भारत ले आएं।
पीएलआई कॉन्ट्रैक्ट में हाई टैरिफ की आखिरी तारीख जरूर लिखी होनी चाहिए। पीएलआई स्कीम सफल है, इसका प्रमाण तब मिलता है जब देश ग्लोबल सप्लाई चेन में शामिल हो जाए और दुनिया का मैन्युफैक्चरिंग हब बन जाए। यह कारों के मामले में हुआ है और जल्द ही मोबाइल के साथ होगा। सफल देशों का मंत्र है ‘निर्यात को बढ़ावा देना’ न कि ‘आयत रोकना’। भारत को भी यही मंत्र अपनाना चाहिए। हमें व्यापार, निवेश और टेक्नॉलजी में खुलापन कायम रखना चाहिए।
लेखक : गुरचरण दास