कन्नड लेखक- नं श्रीकंठकुमार
हिंदी अनुवाद- करुणालक्ष्मी.के.एस.
मैसूरु। सनातनियों के लिए अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, आवंतिपुरी और द्वारकापुरी मोक्षदायक सप्त क्षेत्र माने जाते हैं। इनमें अयोध्या प्रथम पुण्यक्षेत्र है। कहा जाता है कि सरयू नदी के किनारे स्थित धन-धान्य से समृद्ध कोसल नामक विशाल राज्य की प्रजा उत्तरोत्तर अभिवृद्धि पाते हुए आनंद से निवास करती थी। अयोध्या नामक लोकप्रसिद्ध नगर उसकी राजधानी था। यह प्रतीति है कि मनु नामक चक्रवर्ती ने अयोध्या नगर का निर्माण किया। माना जाता है कि वह महानगर बारह योजन लंबा और तीन योजन चौडा था। नगर में बडे बडे रास्ते थे। उन सुंदर रास्तों को हर रोज बुहारकर पानी छिडकाकर स्वच्छ करके उन पर फूल बिछाये जाते थे। अयोध्यानगरी देवेंद्र की नगरी के समान सुंदर द्वारों, तोरणों से नित्य सुशोभित होती थी। नगर में दूकान आदि क्रमबद्ध थे।
अयोध्या में नाना प्रकार के कुशल कलाओं में निपुण शिल्पी लोग बसे हुए थे। अनेक प्रकार के युद्धोपयोगी यंत्र, आयुध, भरे हुए थे। हाथी, घोडा, गाय, बैल, ऊँट आदि प्राणी विशेष रूप से पाले जाते थे। सामंत राजा अयोध्या के महाराजा को अर्पित करने के लिए उपाहारों को लेकर प्रतीक्षा करते थे। नाना देशों से वणिज आकर व्यापार किया करते थे। विस्मय से भरी अयोध्या चतुरंग की तरह विन्यस्त थी । सात मंजिलवाले विमान नामक गृहपंक्तियों में सिद्ध पुरुष, सज्जन वास करते थे। ऐसी अयोध्या सुमनोहर थी। कहा जाता है कि वहाँ सफेद चावल समृद्ध रूप से मिल रहा था। इतना ही नहीं, नगर में गन्ने के रस जैसा मीठा पानी हमेशा मिलता था। दुंदुभि, तबला, मृदंग, वीणा, आदि वाद्यों की मधुर ध्वनि से भरी अयोध्यापुरी सारी पृथ्वी में अत्युत्तम नगरी मानी जाती थी।
अयोध्या शस्त्रास्त्र विशारद और महारथी वीर योद्धाओं से रक्षित थी। ऐसे ही अहिताग्नि, शम दमादि गुणशाली, वेद वेदांगों के पारंगत, दानशील, सत्यशील, ब्राह्मण श्रेष्ठ,ऋषि, महर्षि वहाँ के निवासी थे। वे अपनी अपनी संपत्ति से तृप्त थे, पराये धन का लोभ उन्हें नहीं था। यह ध्यातव्य है कि अयोध्या में कामुक, क्रूरी, विद्याहीन अथवा नास्तिक नहीं थे। अयोध्या सत्यनगरी भी कही जाती थी। सभी स्त्री पुरुष धर्मशील, इंद्रियों को अपने वश में रखनेवाले थे, सौजन्य सदाचारी होकर, संतुष्ट रहनेवाले, परिशुद्ध हृदयी थे। यह विशेष बात थी कि हर कोई कानों में कुंडल पहनता था। सारी प्रजा राजभक्ति संपन्न थी।
वंशावली
माना जाता है कि अगोचर ब्रह्मवस्तु से अनादि, नाशरहित, परिणामरहित ब्रह्माजी का आविर्भाव हुआ। ब्रह्माजी के वंशस्थ होने पर भी श्री सूर्यनारायण देव के आराधक मरीचि के वंशजों में उंनचालीस महापुरुष, राजा-महाराजा, चक्रवर्तियों ने अयोध्या को राजधानी बनाकर कोसल राज्य पर राज किया था। प्रथम रूप से श्री ब्रह्माजी के श्रेष्ठ पुत्र महर्षि मरीचि के पुत्र कश्यप, बाद में विवस्वत मनु, काकुत्थ्स्य, इक्श्वाकु महाराज, कुक्षी, विकुक्षी, बाण, अनरण्य, पृथु, त्रिशंकु महाराज, धुंधुमार, युवनाश्व, मांधातृ चक्रवर्ती, सुसंधि, ध्रुवसंधि, भरत चक्रवर्ती, असीत, सगर महाराज, असमंज, अंशुमंत, दिलीप चक्रवर्ती, भगीरथ महर्षि, काकुत्थ्स्य, रघु चक्रवर्ती, प्रवृद्ध, शंखण, सुदर्शन, अग्निवर्ण, श्रीव्रग, मरु, प्रशश्रुक, अंबरीष महाराज, नहुष चक्रवर्ती, ययाति, नाभाग, अज महाराज, दशरथ चक्रवर्ती, प्रभु श्रीरामचंद्र महाराज और उनके पुत्र लव-कुश ने अयोध्या पर राज किया। इसकी जानकारी महर्षि वाल्मीकीजी ने श्रीमद्वाल्मीकि रामायण में विस्तृत रूप से दी है। इनमें ऋषि श्रेष्ठ कश्यप जी, त्रिशंकु महाराज, मनु चक्रवर्ती, सगर चक्रवर्ती, दिलीप चक्रवर्ती, महर्षी भगीरथ, रघु चक्रवर्ती, अंबरीष महाराज, दशरथ महाराज, श्रीरामचंद्र प्रभु प्रमुख हैं।
महा तेजस्वी मनु धर्म का पालन करते हुए प्रजाओं की रक्षा करते थे। उसके सैनिक अग्नि के समान तेजस्वी थे। साथ ही वे प्रजाओं से सौजन्यपूर्ण बर्ताव करते थे। कहा जाता है कि वे युद्ध तंत्र में परिणत थे। त्रिशंकु सत्यवादी के रूप में ख्यात थे। जानकारी के अनुसार, बडे धर्मनिष्ठ, उदारशील इनसे ही इक्ष्वाकु वंश का प्रारंभ हुआ। एक बार त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग में जाने की प्रबल इच्छा हुई। उन्होंने अपनी यह इच्छा अपने कुल गुरु वशिष्ठ जी से निवेदित की पर वशिष्ठ जी ने असंभव कहकर इस प्रस्ताव को तिरस्कृत किया। उसके बाद वशिष्ठ जी के पुत्र के पास जाकर अपनी यह अभिलाषा प्रकट करने पर उन्होंने क्रोधित होकर त्रिशंकु को शाप दिया। श्रापित त्रिशंकु को देखकर उस पर तरस खाकर महर्षि विश्वामित्र ने उन्हें अपने पास आसरा देकर यज्ञ की तैयारी करके यज्ञ में हविर्भाग ग्रहण करने के लिए समस्त देवताओं को आमंत्रित किया। कोई देवता हविस स्वीकार करने के लिए यज्ञ में नहीं आया।
इससे क्रोधित होकर विश्वामित्रजी ने त्रिशंकु महाराज को अपने तपोबल से सशरीर होकर स्वर्ग जाने के लिए कहने पर त्रिशंकु सशरीर स्वर्ग में गए। त्रिशंकु के देवलोक में प्रवेश करने पर अन्य देवताओं के साथ आकर देवेंद्र ने उनका रास्ता रोका और अधोमुख होकर वापस जाने के लिए कहा। तुरंत त्रिशंकु नीचे गिरने लगे और त्राहि त्राहि कहते हुए विश्वामित्र को पुकारने लगे। विश्वामित्र ने तुरंत वहीं पर रुकने का आदेश देकर उन्हें आसमान में ही रोक दिया। इतना ही नहीं, सप्तर्षि मंडल की सृष्टि करके उसके अनुरूप नक्षत्रों की पंक्ति की रचना की। तब ऋषि, देवासुर भीत होकर विश्वामित्र से विनती करने पर विश्व्वामित्र जी ने कहा कि जब तक यह जग रहेगा, तब तक अपने द्वारा निर्मित सारे नक्षत्र, उनके बीच त्रिशंकु उल्टा लटकते हुए प्रकाशित होते हुए स्थिर रहेंगे।
आगे सगर नामक धर्मात्मा राजा ने अधिपति बनकर अयोध्या में राज किया। सगर चक्रवर्ती समुद्र को खुदवाकर उसे सागर नाम आने के लिए कारण बने। उनकी पहली पत्नी विदर्भ राजा की बेटी केशनी थी और दूसरी पत्नी कश्यप ऋषि की बेटी सुमति थी। केशनी का एक पुत्र हुआ। उसका नाम असमंज रखा गया। असमंज ने अयोध्या में कई साल राज किया। कालानंतर असमंज को अंशुमंत नामक पुत्र का जन्म हुआ। वह महारथी, वीर, प्रियंवद होकर सब लोगों का प्रीतिपात्र था। अंशुमंत को दिलीप नामक पुत्ररत्न का जनन हुआ। अंशुमंत कई सालों तक राज्यभार करते हुए बाद में अपने पुत्र दिलीप को राज्याधिकार सौंपकर हिमालय शिखर पर तपस्या करके स्वर्गस्थ हुआ।
उत्तम रूप से राज्यभार करनेवाले दिलीप अपने पितामहों को तर्पण न देने के कारण बहुत चिंतित थे। धर्ममार्ग पर चलनेवाले दिलीप को भगीरथ नामक पुत्र हुआ। दिलीप अपने अंतिम दिनों में भगीरथ का राज्याभिषेक करके स्वर्गस्थ हुआ। भगीरथ कई वर्षों तक राज्यभार करके राज्य को मंत्रियों के वश में देकर देवगंगा को भूमि पर लाने का अचल संकल्प लिए दीर्घ तप करने लगे। तपस्या से सुप्रीत होकर समस्त देवताओं के साथ दर्शन देकर ब्रह्माजी ने उनसे अभीष्ट वर मांगने के लिए कहा। तब भगीरथ ने तप के फल के रूप में अपने पूर्वज सगर के पुत्रों को तर्पण देने का वर प्रदान करने की विनती की। उन महात्माओं के भस्म पर गंगा प्रवाह बहाकर अपने प्रपितामहों को स्वर्ग की प्राप्ति होने का और अपने लिए पुत्र संतान का वर मांगा । उसके बाद वे अयोध्या लौटे।
आगे अज महाराज के पुत्र राजा दशरथ ने चक्रवर्ती बनकर अयोध्या पर राज किया। वे वेदवेदार्थों के ज्ञाता, विद्वानों, शूर वीरों के प्रोत्साहक थे। वे दीर्घदर्शी तथा तेजस्वी होकर सभी के प्रीतिपात्र थे। दस हजार महारथियों के साथ अकेले युद्ध करने की सामर्थ्यवाले अतिरथी थे। कहा जाता है कि दशरथजी के पास चतुरंग सेना थी। देवेंद्र के समान, कुबेर के समान वे धन-कनक से समृद्ध तथा जितेंद्रिय थे। दशरथजी के वश में कांबोज, बाह्लीक, वनायु और सिंधु देशों के श्रेष्ठ अश्व थे। उनके पास महान बलशाली पर्वताकार के विशालकाय हाथियों का समूह था। उनमें कई विंध्य पर्वत, हिमवत्पर्वत में जन्मे हुए थे। दशरथ के दरबार में दृष्टि, जयंत, विजय, सिद्धार्थ, अर्थसाधक, अशोक, मंत्रपाल और सुमंत नामक आठ अमात्य थे, जो गुणशाली तथा राजकार्यों में दक्ष थे। वे दूसरों के इंगित जानने में निपुण , राजा को प्रिय और हितकर कार्यों में सदा निरत रहते थे। वे सभी निष्कपट रीति से महाराजा में अनुरक्त होकर क्रम से राजाज्ञा का परिपालन करते थे। वशिष्ठ और वामदेव नामक दो व्यक्ति उनके मुख्य पुरोहित थे।
प्रभावी राजा दशरथ को अपने कुलोद्धारक पुत्र संतान न होने की वजह से चिंता थी। वशिष्ठ महर्षि जी की सलाह के अनुसार उन्होंने सरयू नदी के किनारे पर वेदपारंगत महर्षि ऋष्यशृन्ग जी को आमंत्रित करके उनके नेतृत्व में पुत्रकामेष्टि यज्ञ आयोजित किया। यज्ञ के लिए देव देवादियों को आमंत्रित करके, महाविष्णु जी की स्तुति करते हुए उनसे लोकहित के लिए दशरथ महाराजा का पुत्र बनकर अवतरित होने की प्रार्थना करने लगे। यज्ञकुंड में से प्रजापत्य पुरुष आविर्भूत होकर दशरथ को पायस देकर उसे अपनी पत्नियों में बांटने के लिए कहा और उन्होंने यह भी सूचना दी कि यज्ञ के फलस्वरूप दशरथ को पुत्रों की प्राप्ति होगी। इस तरह दशरथ के मनोरथ के पूर्ण करने के बारहवें महीने चैत्रमास शुक्ल पक्ष के नवमी तिथि के पुनर्वसु नक्षत्र में रवि, कुज, गुरु और शुक्र ग्रहों के उच्च स्थान में रहने के सुमुहूरत में महारानी कौशल्या देवी के गर्भ से सर्वलोक पूजित, दिव्य लक्षण संयुत श्री रामचंद्र जी का जन्म हुआ। उसके बाद साक्षात महाविष्णुजी के एक अंशवाले भरत कैकई के तथा लक्ष्मण-शत्रुघ्न सुमित्रा के पुत्र बनकर आश्लेष नक्षत्र कर्काटक लग्न में जन्मे।
मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीरामचंद्र ने राष्ट्र की आत्मा बनकर, राष्ट्र धर्म निरूपक बनकर, कोशल प्रदेश पर अयोध्या से राज किया। आज भी श्री रामचंद्र प्रभुजी के राज्यभार की रीति को रामराज्य के रूप में स्मरण किया जाता है। बाद में श्री रामचंद्र प्रभुजी के पुत्र लव-कुश ने वंश को आगे बढाया। कहा जाता है कि श्री रामचंद्र प्रभुजी के जन्मस्थान अयोध्या में कुश ने पहली बार भव्य दिव्य मंदिर की स्थापना की। इस तरह त्रेतायुग में इक्ष्वाकु वंशजों ने सुभिक्ष रूप से राज्यभार किया। वे सभी प्रशासन दक्षता में सार्वकालिक श्रेष्ठ माने जाते हैं। यह जानकारी संस्कृत भाषा में आदिकवि वाल्मीकीजी ने विस्तार से दी है।