गौरव अवस्थी “आशीष”
युगों-युगों से सुनते आ रहे हैं कि प्रकृति वरदान है। कहा भी गया है कि प्रकृति के नजदीक रहने वाला कभी दुखी नहीं होता। प्रकृति केवल प्रेम करना नहीं सिखाती। आघात सहना सिखाती है। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी हंसना सिखाती है। प्रकृति की गोद में पले-बढ़े सुमित्रानंदन पंत प्रकृति के सुकुमार कवि ही नहीं प्राकृतिक गुणों से परिपूर्ण हैं। 28 दिसंबर को पंत जी के प्रकृति की गोद में समा जाने के 44 वर्ष पूरे हो जाएंगे लेकिन उनकी “प्रकृति” की चर्चाएं आज भी जीवित हैं। पंतजी के जीवन से जुड़े कई प्रसंग ऐसे हैं, जो उनकी प्रकृति (आचार-विचार-व्यवहार और ज्ञान) के परिचायक हैं।
देखिए! आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने पंतजी की पहली कविता “गिरजे का घंटा” लौटा दी, लेकिन बालमन पंतजी ने इसे अपना वाक्-चापल्य और बड़ों की श्रेणी में अपना नाम लिखाने का अबोध दुस्साहस मानकर संतोष कर लिया। निरुत्साहित होने के बजाय सुधार कर कविता लिखी “घंटा”। सरस्वती से अवकाश ग्रहण कर चुके आचार्य द्विवेदी के 1926 में छायावाद और छायावादी कवियों पर तीखा लेख लिखने पर पंत जी में युवकोचित गुस्सा चढ़ा। प्रत्युत्तर में अपने “वीणा” काव्य संग्रह की भूमिका में आचार्य द्विवेदी पर तीखे आक्षेप लिखे लेकिन पटल बाबू (इंडियन प्रेस प्रयाग के तत्कालीन व्यवस्थापक) के समझाने पर युवा जोश शांत कर लिया। इसका मलाल आखिरी सांस तक मन में रखे भी रहे। इसे प्रकट किया आचार्य द्विवेदी के निधन के 31 वर्ष बाद वर्ष 1969 में उनकी जन्मशती पर भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा प्रकाशित पत्रिका में लेख लिखकर।
वर्ष 1933 के प्रयाग में आयोजित किए गए “द्विवेदी मेले” में पहली और आखिरी मुलाकात में आचार्य द्विवेदी के कटाक्ष से आहत होने के बजाय उनका रामायण पढ़ने का उपदेश सिर-माथे लगाकर चार-पांच बार रामायण भी पढ़ी। उसके पहले श्रद्धा भाव प्रकट करने वाली दो कविताएं भी लिखीं-
“आर्य, आप के मन:स्वप्न को ले पलकों पर
भावी चिर साकार कर सके रूप रंग भर,
दिशि दिशि की अनुभूति, ज्ञान विज्ञान निरंतर
उसे उठावें युग युग के सुख-दुख अनश्वर,
आप यही आशीर्वाद दें, देव! यही वर।”
(कालाकांकर-प्रतापगढ़ राज्य के कुंवर सुरेश सिंह द्वारा संपादित “कुमार” पत्रिका में प्रकाशित)
“भारतेंदु कर गए भारती की वीणा निर्माण
किया अमर स्पर्श ने जिसका बहुविध स्वर-संधान
निश्चय उसमें जगा आपने प्रथम स्वर्ण झंकार
अखिल देश की वाणी को दे दिया एक आकार..
शत-कंठों से फूट आपके शतमुख गौरव-गान
शत-शत युग-स्तंभों में ताने स्वर्णिम कीर्ति-वितान
चिर स्मारक सा युग-युग में भारत का साहित्य
आर्य, आपके यश:काय को करे सुरक्षित नित्य”
(काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा 1933 में आचार्य जी को भेंट किए गए द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ में प्रकाशित)
प्रकृति प्रेम पंतजी के शब्दों-कविताओं में कूट-कूट कर भरा था और प्राकृतिक गुण उनके रोम-रोम में बसे थे। इसीलिए वह आजीवन अपने पूर्वज साहित्यकारों के प्रति श्रद्धा भाव भरे रहे। समय आने पर प्रकट भी किए। पूर्वजों का प्रेम भी पढ़ने-समझने लायक है। आचार्य द्विवेदी ने पंत जी की कविता अस्वीकृत की पर काशी नागरी प्रचारिणी सभा का प्रथम “द्विवेदी स्वर्ण पदक” पंतजी को ही दिया। स्वीकार-अस्वीकार, काट-छांट-डांट अपनी जगह और प्रेम स्नेह एवं श्रद्धा अपनी जगह। प्रेम और श्रद्धा के परस्पर उदाहरण इस जमाने में अब कहां?
पंत जी की पुण्यतिथि के बहाने दोनों ही साहित्यिक महापुरुषों को शत-शत नमन!