(पत्रकारिता दिवस पर विशेष)
सुनो पत्रकार
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वो समय कोई और था
जब तेरी बातों का कोई लेता था असर
पब्लिक ही क्यों
पुलिस
ब्यूरोक्रेट्स
लीडर्स
और सरकार की भी रहती थी तुझ पर नजर
सच है कि सुविधाओं से तुम बहुत दूर थे
सैलरी होती थी वही महीने के दस दिन वाली
मगर व्यक्ति व्यक्ति को अभिव्यक्त करते तुम
संस्थाओं-निकायों पर रहते थे हावी
कुर्ता-पैजामा पर टंगे झोले वाले तेरे लुक में
टंका होता था आदर और आकर्षण
हवाई चप्पलों में भी तेरे कदम होते थे प्रभावी
अपनी बिखरी खिचड़ी दाढ़ी पर फिरते तेरे हाथ
तेरी आंखों के पैनेपने की देते थे गवाही
चमचमाती कोठियों
बड़े बड़े पदधारियों
और शातिरों से तय था तेरा प्रतिकर्षण
तुम जनता की आवाज थे
तेरे सोच में नहीं होती थी कोई वैयक्तिक आरजू
क्योंकि लोकतंत्र के बाकी स्तंभों की तुलना में
बेमुरव्वती के साथ
तुमने थाम रखा था इंसाफ का तराजू
फिर अचानक से तुम पर हुआ वर्जनाओं का वार
बड़ी से बड़ी वारदात
घनी से घनी साजिश
तेरे लिखे पर विहंसने लगी
ठकुरसुहाती ने छीन ली तेरे शब्दों की धार
बाजारवाद, राष्ट्रवाद के जुए में जुतकर
तुम पब्लिक पर मढ़ने लगे पहला और आखिरी दोष
हर किसी पर धौंस की आकांक्षा में
कर उठे तुम अनुदारों से गलबहियां
सत्ता का व्यापार करने वालों की जयघोष
सुनो पत्रकार!
विकट अविश्वास से गुजर रहे हो तुम
अभी मत लो निडर, निष्पक्ष और ईमानदार होने का नाम
अभी वे निहायत बेअसर साबित होंगे
अपने दायित्वों का मर्म समझना पहले जरूरी है
अपने भीतर का मनुष्य बचाना सबसे जरूरी है
राजधानियों, संसदों, मुख्यालयों के मोह से निकलकर
सड़कों-पगडंडियों
पार्कों-बगीचों
सरायों-धर्मशालाओं
खेतों-खलिहानों
नदियों-पोखरों
परिवारों-विद्यालयों की जो चिंता करे
वही सच्चा कलमकार
वही समाज का असल प्रहरी है।
-रणविजय सिंह सत्यकेतु-
हिंदुस्तान टाइम्स
इलाहाबाद