नई दिल्ली : मध्य प्रदेश सरकार को बैचलर ऑफ एजुकेशन (बी.एड) कोर्स में बनाई गई पॉलिसी पर सुप्रीम कोर्ट से झटका लगा है. जस्टिस दिनेश माहेश्वरी और जस्टिस सुधांशु धूलिया की डबल बेंच ने बीएड कोर्स में एडमिशन के लिए मध्य प्रदेश राज्य के निवासियों को 75 प्रतिशत आरक्षण देने की नीति की पड़ताल करने का निर्देश दिया है. बेंच ने इस नीति को ‘आरक्षण का ओवरडोज’ और असंवैधानिक बताया है.
वीणा वादिनी समाज कल्याण विकास समिति की जनहित याचिका पर कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया और टिप्पणी की कि पिछले दो वर्षों के आंकड़ों से संकेत मिलता है कि यह लक्षित उद्देश्य की पूर्ति नहीं करता है. मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने सरकार की इस आरक्षण नीति का समर्थन करते हुए फैसला सुनाया था, जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी.
‘जमीनी हकीकत का रखना चाहिए था ध्यान’
हालांकि, बेंच ने यह भी कहा है कि राज्य ने निवासियों के लिए सीटों का आरक्षण अपने अधिकारों के दायरे में रह कर ही किया है, लेकिन ऐसा करते समय उसे जमीनी हकीकत का ध्यान रखना चाहिए था. लिहाजा, अगले अकादमिक सत्र से राज्य के स्थानीय निवासियों और बाकी देशवासियों के लिए सीट की संख्या फिर से निर्धारित की जाए.
’75 प्रतिशत आरक्षण देना अनुचित है’
कोर्ट ने ये भी स्पष्ट किया कि स्थानीय निवासियों के लिए आरक्षण की अनुमति है. फिर भी कुल सीटों का तीन चौथाई यानी 75 प्रतिशत तक आरक्षण अनुचित है. सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी प्रदीप जैन बनाम सरकार मामले में कोर्ट इसे असंवैधानिक और संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) का उल्लंघन करने वाला बता चुका है.
‘अत्यधिक आरक्षण किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं करता’
कोर्ट ने राज्य सरकार से इस विषय से संबंधित पिछले कुछ वर्षों के आंकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन करने को कहा है ताकि यह पता चल सके कि इस तरह का आरक्षण किस हद तक होना चाहिए. बेंच ने कहा कि हमने देखा है कि आरक्षण के उद्देश्य को विफल करने के अलावा अत्यधिक आरक्षण किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं करता. इस विषय में फैसला करते समय प्राधिकारों को इसे ध्यान में रखना होगा.
बता दें कि राज्य की नीति के अनुसार, बीएड की 75 प्रतिशत सीटें मध्य प्रदेश के निवासियों के लिए आरक्षित हैं और सिर्फ 25 प्रतिशत सीट अन्य राज्यों के लोगों के लिए हैं.