डॉ प्रज्ञा अवस्थी
निराला का दांपत्य जीवन ना बहुत लंबा रहा और ना बहुत सुखकर। बच्चों का लालन-पोषण ज्यादातर ननिहाल में ही हुआ। यदा-कदा उनकी देखरेख में। यह उन दिनों की बात है, जब गौने के बाद ‘गवहीं’ में पहली बार निराला ससुराल डलमऊ में थे। दूसरा ही दिन था। सासु ने निराला को कुल्ली भाट के साथ जाने से रोका। न मानने पर उन्हीं के साथ आए नौकर चंद्रिका को भी भेज दिया पर निराला ने चंद्रिका को बहाने से दूसरे काम के लिए भेजकर कुल्ली के साथ डलमऊ की सैर की। सासू मां पहले से सशंकित ही थीं। लौटने में देर होने पर सासू मां की शंका और बढ़ गई पर जमाई से पूछ कैसे? जमाई के बजाय नौकर चंद्रिका से बातों ही बातों में सारा हाल जानना चाहा, पर वह साथ हो तब तो बताए। निराला के कहने पर बताने से बचने या झूठ बोलने पर सासू मां की फटकार मिली अलग। सासू मां और मनोहरा दोनों कुल्ली कथा से भन्ना गई। उसी माहौल के बीच निराला ने ससुराल में दूसरी रात पत्नी मनोहरा देवी से हुई मीठी नोकझोंक का मजेदार किस्सा हास्य व्यंग का पुट समेटे अपने उपन्यास ‘कुल्ली भाट’ में कुछ यूं दर्ज किया है-
‘घर भर का भोजन हो जाने पर कल की तरह आज भी श्रीमती जी आईं। लेकिन गति में छंद नहीं बजे। पान दिया पर दृष्टि में वह अपनापन न था। बेमन पैर दबाकर वह लेटीं। उनका मनोभाव आज क्यों ऐंठ गया था, यह कुछ-कुछ मेरी समझ में आया। पर चुपचाप पड़ा रहा। सोचा, कमजोर दिल अपने आप बोलना शुरू करता है। अंदाजा ठीक लड़ा। कुछ देर तक चुपचाप पड़ी रहकर उन्होंने कहा, ‘इत्र की इतनी तेज खुशबू है कि शायद आज आंख नहीं लगेगी।’
मैंने कहा, ‘अनभ्यास के कारण। एक कहानी है। तुमने न सुनी होगी। एक मछुआइन थी। एक दिन नदी किनारे से घर आते रात हो गई। रास्ते में राजा की फुलवारी मिली। उसमें एक झोपड़ी थी, वहीं सो रही। फूलों की महक से बाग गमक रहा था। मछुआइन रह-रहकर करवट बदल रही थी। आंख नहीं लग रही थी। फूलों की खुशबू में उसे तीखापन मालूम दे रहा था। उसे याद आई, उसकी टोकरी है। वह मछली वाली टोकरी सिरहाने रखकर सोई, तब नींद आई।’
श्रीमती जी गर्म होकर बोलीं, ‘तो मैं मछुआइन हूं।’
‘यह मैं कब कहता हूं।’ मैंने विनयपूर्वक कहा, कि तुम पंडिताइन नहीं मछुआइन हो; मैने तो एक बात कही जो लोगों में कही जाती है।’
श्रीमती जी ने बड़ी समझदार की तरह पूछा, ‘तो मैं भी मछलियां खाती हूं।’
मैंने बहुत ठंडे दिल से कहा, इसमें खाने की कौन सी बात है। बात तो सूंघने की है। अपने बाल सूंघो, तेल की ऐसी चीकट और बदबू है कि कभी-कभी मुझे मालूम देता है कि तुम्हारे मुंह पर कै कर दूं।’
श्रीमती जी बिगड़ कर बोलीं, ‘तो क्या मैं रंडी हूं जो हर वक्त बनाव सिंगार के पीछे पड़ी रहूं।’
‘लो,’ मैंने बड़े आश्चर्य से कहा, ऐसा कौन कहता है, लेकिन तुम बकरी भी तो नहीं हो जो हर वक्त गंधाती रहो। न मुझे राजयक्ष्मा का रोग है, जो सूंघने को मजबूर होऊं।’
श्रीमती जी जैसे बिजली के जोर से उठ कर बैठ गईं । बोलीं, तुम्हारी ऐसी ही इच्छा है तो लो मैं जाती हूं।’
सिर्फ मेरे जवाब के लिए जैसे रुकी रहीं।
मैंने बड़े स्नेह के स्वर से कहा, ‘मेरी अकेली इच्छा से तो तो यहां सोती नहीं, तुम अपनी इच्छा की भी सोच लो।’
श्रीमती जी ने जवाब न दिया, जैसे मैंने बहुत बड़ा अपमान किया हो, इस तरह उठीं, और दरवाजा खुला छोड़ कर चली गईं।
मैंने मन में कहा, ‘आज दूसरा दिन है।’