गौरव अवस्थी
जिस साल उसकी पैदाइश हुई वह साल रूसी क्रांति का था। जिस महीने में वह पैदा हुई उसी महीने में लेनिन ने उस महान क्रांति को शुरू किया, जिससे रूस और साइबेरिया की कायापलट हो गई। यह याद दिलाते हुए पिता जवाहर लाल नेहरू ने खत लिखकर कहा था-‘मैं कामना करता हूं कि तुम बड़ी होकर भारत की सेवा के लिए एक बहादुर सिपाही बनो’ और सचमुच वह बहादुर सिपाही ही नहीं अपनी बहादुरी, नेतृत्व के गुण, कौशल और ज्ञान से भारत की पहली और अब तक की एकमात्र महिला प्रधानमंत्री बनीं। भूतो न भविष्यित..!
19 नवंबर 1917 को संपन्न नेहरू परिवार में जन्मी इंदिरा नेहरू गांधी को यह पद तोहफे में नहीं ‘कद’ के हिसाब से मिला था। तब गांधी थे न नेहरू और न ही उनके आदर्श लाल बहादुर शास्त्री। ताशकंद में 11 जनवरी को शास्त्री जी की असमय मृत्यु। पार्टी के अंदर 19 जनवरी को प्रधानमंत्री पद की जोर आजमाइश। सामने कद्दावर मोरारजी देसाई। इंदिरा को वोट मिले 355 और देसाई पाए 169। 186 वोट से पीएम पद का रास्ता साफ हुआ। 22 जनवरी 1966 को प्रथम महिला प्रधानमंत्री का पद संभाला। यह वही इंदिरा थी जो अपने पुणे के प्यूपिल्स ओन स्कूल के माॉक पार्लियामेंट वाले आयोजन में भी प्रधानमंत्री बन चुकी थी। वह उनका रिहर्सल था और यह असल। तब उन्हें पिता के उसे पत्र की याद आई, जिसमें लिखा गया था-”तुम बहादुर बनो बाकी चीजें तुम्हारे पास अपने आप आती जाएंगी। हमें सूरज को अपना दोस्त बनाना चाहिए और रोशनी में काम करना चाहिए।”
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में इतने महत्वपूर्ण पद पर महिला की ताजपोशी से बाहरी दुनिया हैरान हुई। सबसे ज्यादा हैरान हुआ संयुक्त राज्य अमेरिका। सिर्फ दो माह बाद ही दौरे पर गई इंदिरा को अमेरिका में आश्चर्य से देखा गया। तमाम भौंडे प्रचार (समाचार) अखबार में छपे। संवाददाताओं ने ऊल-जुलूल सवाल पूछे। संयत इंदिरा ने बस इतना ही कहा-‘ मैं अपने को औरत नहीं व्यक्ति समझती हूं, जिसे काम करना है। मेरी इस स्थिति से भारत की बुनियादी सच्चाई में न तो कोई वृद्धि होती है और न कमी क्योंकि भारत में नारी पूजी जाती रही है। हमारे यहां तो शक्ति शिव से भी बड़ी है।’ यह इंदिरा के व्यक्तित्व का जादू ही था कि उस समय के अमेरिकी राष्ट्रपति जॉनसन भारत के राजदूत द्वारा दिए गए रात्रि भोज में बिना निमंत्रण पहुंचे। दावत की पोशाक न पहने होने के बावजूद खाने की मेज पर बैठकर सारा समय वार्ता और इंदिरा गांधी के साथ ही रात्रि भोज।
यह साहसी इंदिरा ही थीं जो 1967 की आम चुनाव में उड़ीसा में नाक पर वार (पत्थर फेंक कर मारा गया) के बावजूद घंटे भर भाषण देती रहीं। पश्चिम बंगाल का दौरा टाला नहीं। दिल्ली आने के बाद नाक की सर्जरी और चिंतित बुआ को मज़ाक़िया अंदाज में दिया गया जवाब-”होश में आते ही मैंने डॉक्टर से पूछा-”प्लास्टिक सर्जरी करके मेरी नाक को सुंदर तो बना दिया है न? आप तो जानती ही हैं कि मेरी नाक कितनी लंबी है; उसे खूबसूरत बनाने का एक मौका अनायास हाथ लग गया था लेकिन कमबख्त डॉक्टर ने कुछ न किया और मैं वैसी की वैसी ही रह गई!” वह भी इंदिरा ही थीं जो पहले केंद्रीय मंत्री की हैसियत से पाकिस्तान द्वारा छेड़े गए युद्ध में मोर्चे पर डटे जवानों का हौसला बढ़ाने कश्मीर गई।
पीछे मुड़कर देखें तो तस्वीर और साफ होती है। वह तब 4 बरस की ही तो थीं जब दादा और पिता को विदेशी वस्तु के बहिष्कार में अंग्रेज पुलिस घर से गिरफ्तार कर ले गई। अदालत में बिना सुनवाई दोनों को 6 माह की कैद और ₹500 जमाने की सजा। इतने से भी मन नहीं भरा तो दूसरे दिन कीमती कालीन ज़ब्त करने जब पुलिस घर पहुंची। तब इंदिरा गुस्से में पैर पटकते हुए चिल्ला कर बोली-”तुम इन चीजों को नहीं ले जा सकते, यह हमारी हैं।” वही तो थी जो घूंसा तानकर अंग्रेज दरोगा पर झपट पड़ी।
स्वाधीनता संग्राम में दादा-पिता, मां, बुआ को जेल जाते देखते हुए बड़ी हुई इंदिरा को सारी सीख जेल के सीखचों के पीछे से पिता द्वारा लिखे गए पत्रों से ही मिली। इन्हीं पत्रों से उन्हें यह भी सीख मिली थी-‘विचार तभी सार्थक हैं जब वह कर्म में प्रकट हो। कर्म ही विचार की अंतिम परिणिति है।’ जब 5 साल की थी तब पिता जवाहर ने जेल से पहला खत लिखा था-‘ खत लिखना सीख लो। मुझसे मिलने के लिए जेल में ही मुलाकात करने आना पड़ेगा।” जेल से जवाहर लाल नेहरू द्वारा लिखे गए ”पिता के पत्र पुत्री के नाम” आज इतिहास भी हैं और साहित्य भी।
स्वाधीनता संग्राम में पूरे परिवार की आहुतियों के चलते ही इंदिरा की परवरिश और पढ़ाई बस ऐसी ही रही लेकिन गुणी, ज्ञानी और तेजतर्रार इंदिरा जहां गई वहां सबकी प्रिय ही रही। भले ही पिता जवाहर और मां कमला नेहरू दादा मोतीलाल के अपनी मां का नाम देने की इच्छा के आगे उसे अपना मनपसंद नाम ‘प्रियदर्शनी’ न दे पाए हों। कहते हैं यथा नाम तथा गुण..। इंदिरा की परदादी का नाम भी इंदिरा था। और बकौल बुआ (कृष्णा हठीसिंग) वह भी दबंग और दृढ़ इच्छाशक्ति वाली महिला थीं और भतीजी इंदिरा भी।
अबोध इंदिरा के मन मस्तिष्क पर माहौल का पूरा असर था। उसे घर में गुड्डे-गुड़िया के साथ जलसे-जुलूस वाले राजनीतिक खेल ही खेलने पसंद थे। गुड़ियों की एक कतार लाठी के साथ बनाती और बंदूकधारी गुड्डे सिपाहियों के सामने खड़ा कर देती। किसान बेशधारी गुड़ियों के हाथ में कागज के कांग्रेसी झंडा पकड़ाती और नेता बनकर उनके आगे भाषण करती।
गुड्डे-गुड़ियों से आगे महज 15 की उम्र में घर में सभी महिला-पुरुष, बड़े-छोटे की गिरफ्तारी के बाद अकेली रह गई इंदिरा ने मोहल्ले के सैकड़ों बच्चे घर के पीछे लान में जमा किए। बाल सेवा दल (जिसे बाद में वानर सेना कहा गया) बनाया। वानर सेना नाम उसने खुद रामायण कथा से लिया। स्वाधीनता संग्राम को रामकाज माना और अपने को हनुमान। वानर सेना के यह सदस्य रात में सभाओं के पोस्टर चिपकाते। लिफाफे पर पते लिखते। जुलूस में स्वयंसेवकों को पानी पिलाते। एक दल का संदेश दूसरे दल तक पहुंचाते। भेदिए का काम करते। इन सबकी नेता थी इंदिरा। पता चलने पर मोतीलाल ने जेल से 16 जुलाई 1930 को इंदिरा को चिट्ठी लिखी-
‘मेरा सुझाव है कि वानर सेवा के हर मेंबर के दुम होनी चाहिए। पद के हिसाब से दुम लंबी और छोटी हो। बिल्ले पर हनुमान की छाप ठीक है मगर हनुमान के हाथ में गदा का न रहना ही ठीक है। गदा का मतलब है हिंसा और हम अहिंसक फौज हैं।
जन्म के समय दादी स्वरूप रानी नेहरू द्वारा बिदकाए गए मुंह और कहे गए शब्द-‘ अरे! होना तो लड़का ही चाहिए था’ पर जवाहरलाल नेहरू द्वारा दिए गए जवाब वाले शब्दों-‘देखना तो सही जवाहर की यह बेटी हजारों बेटों से सवाई होगी’ को इंदिरा ने अपने हौसले और बहादुरी से सच साबित करके ही दिखा दिया। भारत के लोकतंत्र में ‘इंदिरा युग’ एक इतिहास भर नहीं है। एक लकीर है और नज़ीर भी।