डॉ. प्रणव पण्ड्या
‘‘तब अपनी स्मृतिकथा सुनाकर हमें अनुगृहीत करें।’’ वातावरण में कई स्वरलहरियाँ एक साथ स्पन्दित हुईं। वशिष्ठ ने भी सभी की सहमति को स्वीकार कर कहना प्रारम्भ किया- ‘‘यह कथा महर्षि वाल्मीकि एवं देवर्षि नारद के आध्यात्मिक सम्मिलन से पूर्व की है। उस समय मैं किसी कार्यवश परमपिता ब्रह्मदेव से मिलने के लिए ब्रह्मलोक गया हुआ था। कमलासन पर विराजमान ब्रह्मदेव थोड़ा सा चिन्तित लग रहे थे। पास में ही माता सरस्वती भी विराजमान थी। भगवती सरस्वती के समीप ही मेरे अग्रज भ्राता सनक-सनन्दन आदि खड़े थे जिन्हें माता यदा-कदा स्नेह-वात्सल्य भाव से देख लेती थीं। ब्रह्मदेव की उस सभा में अन्य त्रैलोक्यपूजित महर्षि भी थे। परमपिता मुझे देखकर मेरा अभिवादन स्वीकार करते हुए बोले- तुम बड़े ही शुभ अवसर पर पधारे हो पुत्र! तुम्हारे लिए एक शुभ सूचना है और मेरे लिए एक समस्या है वत्स, जिसका समाधान होना है। मैंने विनीत स्वरों में उनसे कहा, पहले मुझे शुभ सूचना दें भगवन्, फिर यदि मुझे योग्य समझें तो समस्या से भी अवगत कराएँ?
मेरे इस कथन पर ब्रह्मदेव बोले- तो सुनो पुत्र! शुभ सूचना यह है कि तुम जिस कुल के पुरोहित हो, उस कुल में भगवान नारायण शीघ्र ही अवतार लेने वाले हैं। ब्रह्मदेव के इस कथन ने तो मुझे विह्वल कर दिया। खुशी से मेरे नेत्र भीग गए। मैं कुछ बोल न सका, बस अहोभाव से मैंने उन पूर्णपुरूष के प्रति कृतज्ञ भाव से हाथ जोड़ लिए। अब मेरी समस्या सुनो वत्स- थोड़ा रूककर ब्रह्मदेव बोले। अवश्य भगवन्। मैं अपनी प्रसन्नता के अतिरेक में परमपिता ब्रह्मदेव की समस्या वाली बात विस्मृत कर चुका था। उदार ब्रह्मदेव ने मेरी विस्मृति के अपराध को क्षमा करते हुए कहा- मेरी समस्या यह है कि प्रभु के इस अवतार की लीलाकथा कौन कहेगा? इस कार्य के लिए किसे निमित्त बनाया जाय? सृष्टिकर्त्ता होने के कारण यह दायित्व मेरा है।
ब्रह्मदेव की समस्या सचमुच ही विचारणीय थी। मुझे भी तत्काल कुछ सूझ नहीं पड़ा। उस समय मैंने बस सुमतिदायिनी माता सरस्वती को प्रणाम किया और भगवान नारायण का पावन स्मरण किया। प्रभुस्मरण के साथ ही मेरे मन में यह विचार आया कि भगवत्कथा तो वही कह सकता है जो भगवान का कृपापात्र हो। जो प्रभु का स्नेही हो, आत्मीय हो, उनका स्वजन हो। मेरे इस विचार की अभिव्यक्ति पर ब्रह्मदेव बोले- इस समय ऐसा धरा पर कौन है? मैंने इस पर कहा- हे पिताश्री! आपके इस प्रश्न का सही उत्तर यदि कोई दे सकता है तो वे स्वयं नारायण ही हैं। नारायण! नारायण!! नारायण!!! इस नाम का सुमधुर स्वर में तीन बार उच्चारण करके ब्रह्मदेव ने नेत्र मूंद लिए। और वे समाधि के सोपान चढ़ते हुए स्वयं क्षीरशायी पुराण पुरूषोत्तम के सम्मुख खड़े हो गए। थोड़ी देर बाद जब उन्होंने नेत्र खोले तो वह चकित-थकित किन्तु आश्वस्त थे।
क्या हुआ भगवन्? पुत्र! प्रभु ने अपनी लीलाकथा के लिए एक दस्युकर्म में रत-रत्नाकर को चुना है। वह उन्हें अपना सहज स्नेही मानते हैं। प्रभु ने कहा है कि पहले रत्नाकर स्वयं राम नाम की महिमा से रूपान्तरित होकर दस्यु से ऋषि बनेंगे, फिर वह रामकथा कहेंगे। यही नहीं, उन्हें स्वयं महामाया भगवती सीता के धर्मपिता होने का सौभाग्य भी मिलेगा। आश्चर्य! महाआश्चर्य!! परम आश्चर्य!!! परम अविश्वसनीय किन्तु अटल विश्वसनीय। भला पूर्णब्रह्म परमेश्वर की वाणी मिथ्या भी कैसे हो सकती है। उसे होना भी नहीं था। इसके बाद जो घटनाक्रम घटित हुए उसे महर्षि पहले ही सुना चुके हैं। बस मुझे तो केवल इतना सुनाना था कि देवर्षि नारद तो बस भगवत्कृपा के संवाहक बनकर महर्षि वाल्मीकि से मिले थे क्योंकि भगवत्कृपा के बिना तो सन्त-महापुरूषों का सान्निध्य मिलता भी नहीं है। महर्षि तो सदा ही राम के अपने हैं।’’