कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन के लिए इस बार प्रदेश से 99 नामों पर मुहर लगी, जबकि पिछली बार 135 थे। कितने लोग जाएंगे, यह प्रदेश में जिला एवं ब्लाक इकाइयों की संख्या के आधार पर तय होता है। 2017 में जितने ब्लाक थे, उससे अधिक स्वीकृत होने की उम्मीद में ज्यादा डेलीगेट्स बना लिए गए, जिससे समीकरण बिगड़ा। इस बार संख्या और भी बढ़ने की उम्मीद में भोपाल से 200 नाम दिल्ली भेजे गए। मगर संगठन के अंकगणित ने कइयों की उम्मीदों पर कैंची चला दी। चुनावी साल में पार्टी नाराजगी मोल नहीं ले सकती। इसलिए अधिवेशन से पहले नया मंथन चल रहा है। चर्चा है जो एआइसीसी प्रतिनिधि नहीं बन सके, उन्हें कोई अन्य जिम्मेदारी दी जा सकती है। इंदौर में भी कई नाराज चेहरे हैं, जिन्हें जिम्मेदारी का इंतजार है।
दंगल से पहले दंगल
शहर में सालों के बाद महापौर केसरी कुश्ती होने जा रही है। आयोजन में नगर निगम पैसा लगा रहा है इसलिए एक नेताजी अपना नाम आगे रखते हैं। कुश्ती का खेल पहलवानों के लिए, नेता के लिए राजनीति का खेल ही प्राथमिकता होता है। नाम नहीं होगा तो काम कराने का क्या फायदा। वैसे राजनीति कुश्ती में भी कम नहीं, लेकिन दंगल कराने में पहलवानों की जरूरत है। इस काम में जुटे कई चेहरों में एक मनोज सोमवंशी भी हैं, जो पर्दे के पीछे ही रहते हैं। सुर्खियों में कम रहकर मिल क्षेत्र के गरीब बच्चों को अखाड़े के जरिए खेलों से जोड़े हुए हैं। हालांकि आयोजन में प्रदेश संगठन के चेहरे नजर नहीं आ रहे। शहरी कुश्ती से जुड़े कुछ नाम नाराज भी हैं। दंगल से पहले आपसी दंगल से आयोजन समिति कैसे निपटती है इसपर सबकी निगाह है।
क्रिकेट के किस्सों का हिस्सा बनने की आस
प्रदेश के क्रिकेट प्रशंसक होलकरकालीन क्रिकेट के किस्से सुनकर बड़े हुए हैं। किस्सों का हिस्सा बनने के लिए सफलता की इबारत चाहिए। प्रदेश से अंतरराष्ट्रीय फलक तक छाने वाले खिलाड़ी तो कई निकले, लेकिन कभी रणजी का रण नहीं जीता। सफलता के उन किस्सों को कालजयी बनाने के लिए स्टेडियम में होलकर टीमों की बड़ी तस्वीरें लगाई गई हैं। मगर सफलता के इस सूखे को गत वर्ष प्रदेश के युवाओं ने समाप्त कर किस्सों में खुदको शामिल किया था। जीत को एक साल बीत गया, लेकिन युवाओं की सफलता को वह सम्मान नहीं मिल सका। अब देश को नया रणजी चैंिपयन भी मिल चुका है। आज भी होलकर स्टेडियम में प्रवेश करने वाले क्रिकेटर पुरानी तस्वीरों को देखते हैं, सोचते हैं कि पता नहीं कब हमें भी यह सम्मान मिलेगा।
गुमनाम ओलिंपियन
खेलो इंडिया के दौरान प्रशासन कमर की पेटी बांधकर व्यवस्था संभालने में जुटा था। मैदान पर जीवन गुजारने वाली बूढ़ी आंखों में यह नजारा चमक बिखेर गया था। मगर सप्ताहभर में ही नजारे बदल गए। दोगुने से भी ज्यादा संख्या में देशभर के बधिर खिलाड़ी इंदौर पहुंचे। खिलाड़ियों की भीड़ में दर्जनों चेहरे ओलिंपियन थे। इतना बड़ा आयोजन शहर में कभी किसी खेल का नहीं हुआ। अलग-अलग मैदानों में खेल हुए, लेकिन कहीं कोई पूछपरख नहीं। जो बोल नहीं सकते, वे खिलाड़ी भी इशारों में बता गए कि हमें ओलिंपिक के बाद भी नौकरी के लाले हैं, आप अपनी चिंता कीजिए। इसके बाद शहरी मैदानों में चर्चा चल पड़ी कि ऐसे कैसे खेलेगा इंडिया। खेलों और खिलाड़ियों के प्रति नजरिया बदलना जरूरी है।