गौरव अवस्थी
नई दिल्ली: स्वाधीनता संग्राम के सिलसिले में आमतौर पर अगस्त का महीना ‘अगस्त क्रांति’ या महात्मा गांधी द्वारा 9 अगस्त को छेड़े गए ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के रूप में जाना जाता है। यह महीना केवल इसी क्रांति से नहीं जुड़ा है। 1858 के इसी माह में अवध के ‘जन विद्रोह’ को दबाने या खत्म करने के लिए राजाओं, सामंतों, तालुकदारों जमींदारों और जनता को अपने पक्ष में करने के लिए ब्रिटिश संसद ईस्ट इंडिया कंपनी (कंपनी सरकार) का राज खत्म करके साम्राज्ञी के हाथ में शासन-सत्ता सौंपकर नई चाल चलने को मजबूर हुई थी। भारत की यह पहली ‘अगस्त क्रांति’ थी। भारत के अन्य भागों में तो राजा और सामंत ही कंपनी सरकार के खिलाफ लड़ रहे थे लेकिन अवध की क्रांति में राजा से लेकर जनता तक फिरंगियों के खिलाफ उठ खड़ी हुई थी। इसलिए इसे ‘जन विद्रोह’ का नाम दिया गया।
पेरिस से सुंदर और बड़ा था लखनऊ
उस समय अवध 12 जिलों में विभाजित था और 25000 वर्ग मील के क्षेत्र में फैला हुआ था। अवध का केंद्र लखनऊ था। भारत में यह युद्ध कवर करने वाले लंदन टाइम्स के संवाददाता रसेल ने लिखा था कि 30 मील के घेरे में बसे लखनऊ नगर के महलों, मीनारों, नीले और सुनहरे गुंबदों, सुंदर चौड़ी छतों, खंभों की लंबी पंक्तियां और हरियाली देखकर लगता है यह शहर पेरिस से बड़ा है और सुंदर भी (रसेल माई डायरी)।
अवध में सबसे लंबी चली लड़ाई
10 मई 1857 को क्रांतिकारी मंगल पांडे के विद्रोह से शुरू हुए इस विद्रोह को कंपनी सरकार ने म्यूटनी, सिपाही विद्रोह या गदर के रूप में प्रचारित किया। भारतीय इतिहासकारों ने इसे ‘प्रथम स्वाधीनता संग्राम’ की संज्ञा दी। भारत के अन्य भागों की तरह अवध में भी कंपनी सरकार के खिलाफ विद्रोह शुरू हुआ। कंपनी सरकार ने अन्य भागों में विद्रोह तो कुछ दिनों में ही दबाने में सफलता पा ली लेकिन अवध में उसे डेढ़ साल तक नाको चने चबाने पड़े। ब्रिटिश अधिकारी टीएच कैवना ने अपनी एक रिपोर्ट में माना कि अक्टूबर’1858 के मध्य तक अवध का एक चौथाई इलाका भी ब्रिटिश शासन के अंतर्गत नहीं आ सका था।
बेगम हजरत महल के नेतृत्व में लड़ा गया युद्ध
दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह जफर और अवध के बादशाह वाजिद अली शाह को गिरफ्तार कर कोलकाता भेजने के बाद बेगम हजरत महल ने शहजादे बिरजिसकदर को बादशाह नियुक्त कर फिरंगियों के खिलाफ मोर्चा संभाला था। बैसवारा के राजाओं जमीदारों और तालुकेदारों ने भी डटकर सामना किया। बेगम हजरत महल, नाना साहब पेशवा, तात्या टोपे (बिठूर) मौलवी अहमदुल्लाह शाह, राना बेनी माधव सिंह, राव रामबक्श सिंह अंत तक फिरंगियों के खिलाफ युद्ध लड़ते रहे। अवध के क्रांतिकारियों का एक समय इतना खौफ फैल गया था कि अंग्रेज अफसर और सैनिक अरहर की खूंटियों को खेतों में गड़ी संगीन समझ कर भाग खड़े होते थे।
गद्दार सेवकों ने राव रामबख्श सिंह को पकड़ाया
डौंडियाखेड़ा (बैसवारा) के प्रतापी राजा राव रामबख्श सिंह ब्रिटिश फौजों से परास्त होने के बाद बनारस में साधुवेश में एक गोसाई के मकान पर ₹4 महीने में रहने लगे। ब्रिटिश सरकार ने उन पर ₹8000 का पुरस्कार घोषित किया। रुपए के लालच में गद्दार सेवकों ने मुखबिरी करके उन्हें गिरफ्तार करा दिया। उन्हें 28 दिसंबर 1858 को डौंडियाखेड़ा (उन्नाव) के उसी स्थान पर पेड़ पर फांसी से लटकाया गया, जहां उन्होंने कानपुर से भाग रहे 8 अंग्रेज अफसरों को मौत के घाट उतारा था। फांसी के पहले गंगा स्नान किया और गीता के 23 श्लोकों का पाठ किया। उनको फांसी देने के वक्त दो बार रस्सी टूटी लेकिन ब्रिटिश हुकूमत नहीं पसीजी और तीसरी बार फांसी दिए जाने पर उनका प्राणांत हुआ।
दगाबाज राजा ने मौलवी का सिर कलम किया
महान क्रांतिकारी फैजाबाद (अयोध्या) के मौलवी अहमदुल्लाह शाह ने बहादुरी से फिरंगी फौजों का सामना किया था। बेगम हजरत महल के वह खास सिपहसालार थे। मौलवी अहमदुल्लाह शाह रूहेलखंड में फिरंगियों का सामना कर रहे थे। 15 जून 1858 को पुवायां (शाहजहांपुर) के राजा जगन्नाथ सिंह के यहां गए। द्रोही राजा ने धोखे से अपनी गढ़ी में उनका सिर कलम करके शाहजहांपुर के मजिस्ट्रेट के सामने रख दिया। मजिस्ट्रेट ने उनके सिर को कोतवाली के गेट पर लटका दिया। इस दगाबाजी के बदले राजा को अंग्रेज सरकार से 50000 चांदी के रुपए पुरस्कार स्वरूप मिले थे। 22 जून 1858 वन को क्रांतिकारियों को मारडाला।
ऐसे लड़ाके पूरे भारत में कहीं नहीं देखे
ब्रिटिश हुकूमत के जनरल होपग्रांट ने बैसवारे में लड़े गए युद्ध का आंखों देखा वर्णन 2 जून 1858 को करते समय लिखा-‘ हिंदुस्तान में मैंने अनेक युद्ध देखे हैं और वीरों को जीतने या मरने का निश्चय लेकर लड़ते देखा लेकिन बैसवारे के जमींदारों से बड़े योद्धा नहीं देखे।’ इस युद्ध में उसे अपनी सेना लेकर पुरवा की तरफ भागना पड़ा था।