गौरव अवस्थी
नई दिल्ली: ग्रीस के एथेन्स नगर के उच्च कुल (कबीले) में 630 ईसा पूर्व में जन्मे महान कवि सोलोन को दार्शनिक और समाज सुधारक के रूप में भी जाना जाता है। देशभक्ति और संवैधानिक सुधार पर उन्होने कई गीत लिखे। उनके एक गीत की पंक्तियां है-‘कुछ दुष्ट लोग धनी होते हैं, कुछ अच्छे लोग निर्धन होते हैं,हम उनके भण्डार के बदले अपना पुण्य नहीं बदलेंगे, पुण्य ऐसी वस्तु है जिसे कोई छीन नहीं सकता, परन्तु धन तो दिन भर मालिक बदलता रहता है..’ ‘..उन दोनों के सामने मैंने अपनी शक्ति की ढाल थामी और किसी को भी दूसरे के अधिकार को छूने नहीं दिया..’।
पुराने ज़माने में ग्रीस के एथेन्स नगरवाले मेगारावालों से वैरभाव रखते थे। सोरोनिक खाड़ी में सलामिस टापू पर कब्जे के लिए एथेंस और मेगारा वालों के बीच कई बार लड़ाइयां हुई पर हर बार एथेन्सवालों ही को हार का सामना करना पड़ता। इस पर सोलोन को बड़ी आत्मग्लानि हुई। उन्होने एक राष्ट्रवादी कविता लिखी-“आओ हम सलामिस चलें और उस द्वीप के लिए लड़ें जिसे हम चाहते हैं, और अपनी कड़वी शर्म से दूर भागें!”। अपनी इस कविता को सोलन ने एक ऊँची जगह पर चढ़कर एथेन्सवालों को सुनाया।
कविता का भावार्थ यह था- “मैं एथेन्स में न पैदा होता तो अच्छा था। मैं किसी और देश में क्यों न पैदा हुआ ? मुझे ऐसे देश में पैदा होना था जहाँ के निवासी मेरे देशवासियों से अधिक वीर, अधिक कठोर-हृदय और उनकी विद्या से बिलकुल बेखबर हों। मैं अपनी वर्तमान अवस्था की अपेक्षा उस अवस्था में अधिक सन्तुष्ट होता। यदि मैं किसी ऐसे देश में पैदा होता तो लोग मुझे देखकर यह तो न कहते कि यह आदमी लड़ाई में हार गये और लड़ाई के मैदान से भाग निकले। प्यारे देशबन्धु, अपने शत्रुओं से जल्द हार का बदला लो। अपने इस कलंक को धो डालो। लज्जाजनक पराजय के अपयश को दूर कर दो। जब तक अपने अन्यायी शत्रुओं के हाथ से अपना छिना हुआ देश न छुड़ा लो तब तक एक मिनट भी चैन से न बैठो।”
कहते हैं कि लोगों के दिल पर इस कविता का इतना असर हुआ कि फौरन मेगारावालों पर फिर चढ़ाई कर दी गयी और जिस टापू पर कब्जे के लिए बार-बार हार का सामना करना पड़ रहा था, उसे एथेन्सवालों ने जीत लिया। खास बात यह थी कि इस लड़ाई में सोलोन ही सेनापति भी थे। कवि सोलोन ग्रीस के सात संतों में से एक हैं। फूलदार पौधों की एक प्रजाति सोलोनिया का नाम सोलोन के नाम पर ही रखा गया है। सोलोन की मृत्यु साइप्रस में लगभग 70 वर्ष की आयु में हुई। उनकी इच्छा के अनुसार, उनकी राख को सलामिस के आसपास बिखेर दिया गया। यह वह द्वीप है जहाँ उनका जन्म हुआ था। दुनिया में बहुत कम कवि हैं, जिनकी कविता का इतना अधिक प्रभाव आम जनमानस पर हुआ।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती के जुलाई’1907 अंक में ‘कवि और कविता’ नामक निबंध में कवि सोलोन के इस प्रसंग को उद्धृत करते हुए आधुनिक कविता के संदर्भ में कुछ मानक निर्धारित किए थे। यह आज भी प्रासंगिक हैं। उन्होने लिखा था-‘जिस पद्य के पढ़ने या सुनने से चित्त पर असर नहीं होता, वह कविता नहीं, वह नपी-तुली शब्द स्थापना मात्र है। गद्य और पद्य दोनों में कविता हो सकती है। तुकबन्दी और अनुप्रास कविता के लिए अपरिहार्य नहीं। संस्कृत का प्रायः सारा पद्य समूह बिना तुकबन्दी का है और संस्कृत से बढ़कर कविता शायद ही किसी और भाषा में हो। अरब में भी सैकड़ों अच्छे-अच्छे कवि हो गये हैं। वहाँ भी शुरू-शुरू में तुकबन्दी का बिलकुल ख़याल न था। अंग्रेज़ी में भी अनुप्रासहीन बेतुकी कविता होती है। हाँ, एक ज़रूरी बात है कि वज़न और क़ाफ़िये से कविता अधिक चित्ताकर्षक हो जाती है पर कविता के लिए यह बातें ऐसी ही हैं जैसे शरीर के लिए वस्त्राभरण।
उनका मानना है कि पद्य के लिए काफ़िये वगैरह की जरूरत है, कविता के लिए नहीं। कविता के लिए तो ये बातें एक. प्रकार से उलटी हानिकारक हैं। तुले हुए शब्दों में कविता करने और तुक, अनुप्रास आदि ढूँढ़ने से कवियों के विचार-स्वातन्त्र्य में बड़ी बाधा आती है। पद्य के नियम कवि के लिए एक प्रकार की बेड़ियों हैं। उनसे जकड़ जाने से कवियों को अपनी स्वाभाविक उड़ान में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कवि का काम है कि वह अपने मनोभावों को स्वाधीनता पूर्वक प्रकट करे। काफिया और वजन उसकी स्वाधीनता में विघ्न डालते हैं। अच्छी कविता की सबसे सबसे बड़ी परीक्षा यह है कि उसे सुनते ही लोग बोल उठें-‘ सच कहा’। जिस देश में ऐसे कई पैदा होते हैं, वह देश भी धन्य है। ऐसे कवियों की कविता ही चिरकाल तक जीवित रहती है।
यद्यपि आचार्य जी के साहित्यिक जीवन का आरंभ 1889 में बृजभाषा में लिखी कविताओं से ही हुआ पर उन्होने ईमानदारी से स्वीकार किया-‘कविता करना आप लोग चाहे जैसा समझें हमें तो एक तरह दुस्साध्य ही जान पड़ता है। अज्ञता और अविवेक के कारण कुछ दिन हमने भी तुकबन्दी का अभ्यास किया था। पर कुछ समझ आते ही हमने अपने को इस काम का अनधिकारी समझा।
अतएव उस मार्ग से जाना ही प्रायः बन्द कर दिया ।” अपने स्वाध्याय के बल पर उन्होने कविता को बृजभाषा की जकड़न से निकालने के लिए समय-समय पर ‘कविता’, ‘कवि कर्तव्य’, ‘कविता का भविष्य’, ‘कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता’ और ‘आजकल के छायावादी कवि और कविता’ लेखों के माध्यम से अपने समय के कवियों का मार्गदर्शन भी किया।