सौरभ तिवारी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भारत से लेकर अखिल विश्व तक विस्तारित हो चुकी अपार लोकप्रियता विपक्षी दलों की सत्ता प्राप्ति की राह में सबसे बड़ी बाधा है। मोदी को तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने से रोक पाना किसी अकेले दल के बूते की बात नहीं रह गई है। 2014 और 2019 में सिद्ध हो चुकी इस बात पर विपक्ष को तीसरी बार भी मुहर लगने की आशंका सता रही है। इस आशंका को दूर करने के लिए पटना में भाजपा विरोधी 15 दलों का महाजुटान हुआ। बैठक का एजेंडा सिर्फ एक था, हर हाल में मोदी को रोकना। जुलाई में शिमला में फिर से मिलने के वादे के साथ बैठक तो खत्म हो गई लेकिन ये सवाल छोड़ गई कि क्या विपक्ष की ‘मोदी हटाओ-देश बचाओ’ मुहिम कामयाब हो पाएगी। इसका जवाब इतना आसान नहीं है क्योंकि मतभेद और विरोधाभाषों के साथ हुए आगाज ने अंजाम का अंदाजा लगाने का मौका दे दिया है।
दरअसल मोदी विरोधियों की पहली ही बैठक में उभरे अंतर्विरोधों की वजह से इस गठबंधन के अपने उद्देश्य प्राप्ति पर शंका जाहिर की जा रही है। ‘सब मिले हुए हैं जी’ का आरोप लगाकर जो केजरीवाल कभी जिन नेताओं को जेल भेजने का दम भरते थे, वही केजरीवाल अपनी सियासी मजबूरी के चलते उन्हीं नेताओं से मिले हुए थे जी। केजरीवाल मिलने तो पहुंच गए लेकिन गठबंधन को आगाह करना नहीं भूले कि दिल्ली सरकार के अधिकारों पर अंकुश लगाने वाले अध्यादेश के खिलाफ कांग्रेस के स्पष्ट समर्थन का ऐलान करने पर ही आगे का समर्थन संभव है। कांग्रेस ने भी केजरीवाल की सौदेबाजी को तवज्जो ना देते हुए ‘वेट एंड वॉच’ मोड में डाल दिया है। कांग्रेस के इस रुख से तिलमिलाई आप का कांग्रेस और भाजपा के बीच मिलीभगत का आरोप लगाना ये बताता है कि सर जी ने रायता फैला दिया है।
दरअसल मोदी की लोकप्रियता के भंवर में अपनी-अपनी कश्ती को डूबने से बचाने के 15 दलों ने एक बड़ी क्रूज में सवार होने की समझदारी दिखाई है । इन दलों में कांग्रेस, टीएमसी, सपा, जेडीयू, आरजेडी,एनसीपी, शिवसेना(उद्धव), आप, झामुमो, टीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस, डीएमके,सीपीआई, सीपीआईएम, सीपीआईएमएल और एआईडीयूएफ शामिल हैं। ये दल अपनी-अपनी नाव छोड़कर क्रूज में सवार होने को राजी तो हो गए हैं लेकिन इनमें से क्रूज का कैप्टन कौन बनेगा, ये मगजमारी जारी है। आलम ये है कि क्रूज में भी सभी अपनी-अपनी पतवार भांज रहे हैं। केजरीवाल ने तो क्रूज की रवानगी से पहले ही उससे उतरने की धमकी दे ही दी है। तो वहीं बीआरएस, जेडीएस, वाइएसआर कांग्रेस, बसपा, आरएलडी, अकाली दल, बीजद जैसे कई दलों ने गठबंधन के क्रूज में बैठने से ही इंकार कर दिया है। इन सबने अपने-अपने इलाकों में अपनी अपनी नाव से चुनावी नैया पार करने का फैसला किया है। इधर अघोषित कैप्टन नीतीश कुमार पूरे देश में घूम-घूम कर माझियों को अपनी क्रूज में बैठने के लिए मनाते फिर रहे थे, उधर उनके अपने ‘माझी’ जीतम राम अपनी नाव लेकर निकल लिए।
विपक्षी गठबंधन की इस स्थिति ने भाजपा को तंज कसने का मौका दे दिया है। भाजपा पूछ भी रही है कि सारे बाराती तो इकट्ठा हो गए हैं, लेकिन दूल्हा कौन है ये तो बता दो। दूल्हे का नाम बता पाना इतना आसान है भी नहीं। क्योंकि किसी एक के सर पर सेहरा सजते ही बाकी बारातियों के फूफा बन जाने की आशंका है। इसी व्यवहारिक दिक्कत के चलते गठबंधन दलों की पहली कोशिश एक साथ चुनाव लड़ कर मोदी को सत्ता से बेदखल करने की है। 2024 का देवगौड़ा, गुजराल, वीपी सिंह या चंद्रशेखर कौन बनेगा इसका फैसला नतीजों के बाद के लिए छोड़ दिया गया है। भाजपा भले गठबंधन के प्रयासों का उपहास उड़ाती हो लेकिन ये बात उसे भी पता है कि परिस्थितियों के तकाजे को भांपते हुए अगर कहीं शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीने को राजी हो गए तो फिर उसके लिए बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाएगी।
मोदी को मात देने का ‘वन टू वन फार्मूला’ तैयार है। विपक्षी रणनीतिकारों ने करीब 450 ऐसी सीटें चिन्हित की हैं जहां अगर भाजपा के खिलाफ साझा उम्मीदवार खड़ा कर दिया जाए तो भाजपा को 100 सीटों से नीचे समेटा जा सकता है। फार्मूला पिछले चुनाव के वोट गणितीय समीकरण के आधार पर तैयार किया गया है। भाजपा विरोधी दलों को पिछले चुनाव में करीब 62 फीसदी वोट मिले थे। इस बार अगर इन वोटों को बिखरने से रोक दिया जाए तो वाकई भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी हो जाएगी। मोदी को तिकड़ी लगा पाने से रोकने के लिए ही सारी तिकड़म आजमाई जा रही है। कागज पर जीत की गारंटी नजर आने वाला ये सियासी फार्मूला क्या वाकई अमल में आ सकता है, यही सबसे बड़ा सवाल है। इसी सवाल में ही भविष्यगत राजनीति के सारे जवाब छिपे हैं।
विपक्ष ने वन टू वन फार्मूला के तहत 450 सीटें तो चिन्हित कर ली हैं, लेकिन इन सीटों का बंटवारा होगा कैसे, यही सबसे बड़ा पेंच है। इन सीटों के बंटवारे का गठबंधन के दलों का अपना-अपना उप फार्मूला है। पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी के प्रस्ताव के मुताबिक जिन राज्यों में कांग्रेस की सीधी लड़ाई भाजपा से है वहां गठबंधन के बाकी दल उसका समर्थन करेंगे। बदले में कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के गढ़ में खुद को चुनाव से दूर रखे। यानी कांग्रेस के लिए संदेश साफ है कि वो मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हिमांचल प्रदेश, गुजरात समेत उन राज्यों तक ही खुद को सीमित रखे जहां उसने 2019 में जीत दर्ज की थी या वह भाजपा के मुकाबले दूसरे नंबर पर थी।
इस प्रस्ताव के लिहाज से कांग्रेस के हिस्से में करीब 200 सीटें ही आ पाएंगी। अगर इस फार्मूल में 34 उन सीटों को भी शामिल कर लिया जाए जहां कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के मुकाबले दूसरे नंबर पर थी तो भी कांग्रेस के हिस्से में अधिकतम 230 सीटें ही आती हैं। कांग्रेस के हिस्से में आ रहा सीटों का ये कोटा उसके पिछले चुनाव का आधा रह जाता है। 2019 में कांग्रेस 421 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, जबकि 2014 में तो वो 464 सीटों पर हाथ आजमा चुकी है। सवाल उठना लाजिमी है कि मोदी को रोकने की एवज में कांग्रेस क्या इतनी बड़ी कुर्बानी देने को तैयार होगी? ये अलग बात है कि पिछले चुनाव में 424 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस की दुर्गति हो गई थी। कांग्रेस के हिस्से में 52 सीटें ही आई थीं और वोट शेयर भी महज 8.10 फीसदी था। लेकिन हिमाचल के बाद कर्नाटक में मिली शानदार जीत ने कांग्रेस की सियासी हैसियत में इजाफा करके उसे पुष्पा बना दिया है। सीटों के बंटवारे पर उसका जवाब यही रहने वाला है- मैं झुकेगा नहीं….। अध्यादेश के मुद्दे पर कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी को उसकी हैसियत दिखाकर अपने पुष्पाई तेवर दिखा भी दिए हैं।
कर्नाटक की जीत से कांग्रेस पूरी ऐंठन में है। कांग्रेस का जोश हाई है। इस जोश में वो कितना होश रख पाती है, इसी पर भविष्य के सारे गठबंधनीय समीकरण टिके हैं। ममता के वन टू वन फार्मूला पर अमल हुआ तो फिर सवाल उठता है कि कांग्रेस पंजाब और दिल्ली में क्या रुख अख्तियार करेगी। आम आदमी पार्टी ने तो कांग्रेस को ब्लेकमेलिंग वाले अंदाज में कह भी दिया है कि वो पंजाब और दिल्ली छोड़ दे हम राजस्थान और मध्यप्रदेश छोड देंगे। पंजाब, दिल्ली, गुजरात जैसे राज्यों में कांग्रेस की बर्बादी की वजह बनने वाली आप के लिए कांग्रेस क्या पीछे हटने को तैयार होगी? उधर पश्चिम बंगाल में भाजपा को हराने के लिए क्या लेफ्ट और कांगेस अपनी परंपरागत प्रतिद्वंद्वी टीएमसी को वाकओवर देने को राजी होंगे? केरल में कांग्रेस और लेफ्ट के बीच फाइट का स्वरूप क्या होगा? उत्तरप्रदेश और बिहार में कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के आगे कितना सरेंडर करती है, जैसे सवालों की लंबी फेहरिश्त है जिसके जवाब पर ही गठबंधन का भविष्य टिका है। इब्तिदा-ए-इश्क है रोता है क्या, आगे-आगे देखिए होता है क्या।
कुल मिलाकर बहुत कठिन है डगर गठबंधन की। सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि ‘नहीं तो गब्बर आ जाएगा’ के डर से गठबंधन के दल अपनी राजनीतिक भविष्य की संभावनाओं और स्वार्थ की बलि चढ़ाने के लिए कितना राजी हो पाते हैं। दिल को बहलाने को गालिब ख्याल अच्छा है कि गठबंधन दलों की पहली बैठक में मोदी के खिलाफ एकजुट होकर लड़ने की सहमति बन गई है। और रही बात गठबंधन का संयोजक और सीटों का बंटवारा जैसे जटिल मसलों पर सहमति बनाने की तो अगली बैठक में इस पर भी फैसला ले लिए जाने का भरोसा जताया गया है। मोदी के खिलाफ निर्माणाधीन एकजुटता क्या अंतिम स्वरूप अख्तियार करती है, इस पर ही 2024 के सियासी संग्राम के जय-पराजय की पटकथा लिखी जानी है। अब देखना है कि पहली बैठक में बनी शुरुआती सहमति दूसरी बैठक में कितना परवान चढ़ पाती है। निदा फाजली का शेर बड़ा मौजूं है कि “दुश्मनी लाख सही ख़त्म न कीजे रिश्ता, दिल मिले या न मिले हाथ मिलाते रहिए।”