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चौथी पुण्यतिथि पर विशेष : कवि-राजनेता बालकवि बैरागी का वैराग्य

Jitendra Kumar by Jitendra Kumar
14/05/21
in मुख्य खबर, राष्ट्रीय
चौथी पुण्यतिथि पर विशेष : कवि-राजनेता बालकवि बैरागी का वैराग्य
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गौरव अवस्थी
रायबरेली (उप्र)


हिंदी ओज के प्रतिष्ठित कवि एवं राजनेता बालकवि बैरागी की आज चौथी पुण्यतिथि है. मंगता (मांगने और खाने) बिरादरी में 10 फरवरी 1931 को मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले के रामपुर गांव में पैदा होने वाले नंदराम दास के जीवन में मां और पिता द्वारा दी गई ‘सीख’ ही सारी उम्र आदर्श रही. अपाहिज और लाचार पिता के प्रतिभाशाली संतान के रूप में जन्मे बालकवि बैरागी ने साहित्य हो या राजनीति ऊंचे से ऊंचे मुकाम तय किए लेकिन इन पदों को सुशोभित करने के बाद भी ‘मायामोह’ पर उनके सिद्धांत और आदर्श का पलड़ा सदैव भारी रहा. बैरागी जी ‘वैराग्य’ रूप धारण किए रहे. कभी उनकी कलम बिकी और ना राजनीति.

बैरागी जी पर मां और पिता का प्रभाव पूरी जिंदगी बना रहा. वह सार्वजनिक रूप से कहते भी थे कि मैं पूरी तरह से मां का निर्माण हूं. मां ने ही मुझे कभी टूटने नहीं दिया. वर्ष 2001 में बेबाकी से डायरी लिखने वाले बैरागी जी कि इस डायरी में दर्ज सच्चाई को पड़ाव प्रकाशन-भोपाल ने ‘बैरागी की डायरी’ नाम से वर्ष 2004 में पुस्तक रूप में प्रकाशित कर समाज के सामने रखा. इस पुस्तक की भूमिका में खुद बैरागी जी पिता से मिली सीख को इस तरह लिखते हैं-‘ मेरे स्वर्गीय पिता का एक वाक्य मुझे सदैव जागृत और ज्योतित रखता है-‘ बेटा! भीख मांगने वाला बर्तन वापस तेरे हाथ में नहीं आ जाए तब तक तो तेरा कुछ बिगड़ा ही नहीं राजकाज करते वक्त और भले ही कुछ हो जाए पर मेरी गरीबी का सिर नीचा नहीं हो इसका ध्यान रखना’

अपनी इसी भूमिका में वह आगे उल्लेख करते हैं मां से मिली सीख का-‘ मेरी स्वर्गवासी मां ने बार-बार मुझसे कहा था-‘नंदा (मेरा जन्म नाम नंद रामदास है) गरीबी ईश्वर की सबसे अधिक खूबसूरत बेटी होती है और खूबसूरत बेटी को वह कभी निकम्मे और आवाराओ को नहीं सौपता. संकल्प कभी कुंवारा नहीं मरता. संघर्ष कभी हार नहीं मानता. रोने पर कोई आंसू पोछने वाला नहीं आता. हंसने पर आकाश भी छोटा पड़ जाता है’ मां मुझे हंसना सीखाती रही मैं आज तक हंसता चला जा रहा हूं मैं जानता हूं कि अभावों से अच्छा कोई मित्र नहीं होता आज भी बड़ी तादाद में वह मेरे मित्र हैं. पता नहीं घूम फिर कर वहीं वापस मेरे पास कैसे चले आते हैं. कभी दोस्ती नहीं छोड़ते?”
मां के प्रति अगाध श्रद्धा के चलते ही वह कविता हो या साहित्य की अन्य विधा का लेखन सबकी शुरुआत सबसे ऊपर और पहले ‘मां’ शब्द लिखकर ही करते थे. यही वजह है कि मां सरस्वती की ‘कृपा’ भी उन पर सारे जीवन बनी रही. उनकी तमाम कविताएं कालजई है. अपने समय में उनकी कविताएं लोगों की जुबान पर रटी होती थी. रामधारी सिंह दिनकर को श्रद्धा स्वरूप लिखी गई उनकी कविता आज भी रोंगटे खड़े कर देने वाली है.

बैरागी का वैराग्य

यह भी एक संयोग ही है कि बाल्यकाल से कांग्रेस के सच्चे सिपाही रहे नंदराम दास को अपना चर्चित नाम ‘बालकवि बैरागी’ जनसंघ के उस समय के बड़े नेता सुंदरलाल पटवा से मिला था. बैरागी की चौथी कक्षा के विद्यार्थी रहते एक कविता लिखी थी-

भाई सभी करो व्यायाम
कसरत ऐसा अनुपम गुण है
कहता है नंदराम
भाई सभी करो व्यायाम..

बहुत कम उम्र से वह मंचों से कविता पाठ करने लगे थे. बात 1968 की है. तब उनकी उम्र 37 वर्ष की ही थी. एक काव्य मंच पर जोशीले अंदाज में कविता पढ़ते हुए सुंदरलाल पटवा ने उन्हें सुना और मंच से ही उन्हें ‘बालकवि’ का नया नाम दे दिया. यहीं से वह नंदराम दास से बालकवि बैरागी के रूप में पहचाने जाने लगे. मात्र 14 वर्ष की अवस्था में कांग्रेस के सदस्य बने बालकवि बैरागी को जीवन भर यह अफसोस रहा कि वह स्वाधीनता संग्राम सेनानी का दर्जा नहीं प्राप्त कर सके. इंदिरा गांधी ने उन्हें मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार में वह उप मंत्री और राज्य मंत्री बनाया. राजीव गांधी ने लोकसभा और सोनिया गांधी ने राज्यसभा का रास्ता दिखाया. राजनीति में भी वह ‘पाक साफ’ ही रहे.

बैरागी का वैराग्य

दलबदल करने वालों पर तभी उन्होंने यह कटाक्ष किया था-‘ पता नहीं लोग मां की को कैसे बदल लेते हैं?’ वर्ष 2004 में राज्यसभा का कार्यकाल खत्म होने के बाद कुछ नेताओं ने दल बदल के लिए उनके मन को टटोलना चाहा था इस पर बहुत तल्ख लहजे में उन्होंने जवाब दिया था-‘ हां! मैं अपने बारे में सोच रहा हूं कि मेरे मरने के बाद मेरे आंगन में से मेरी लाश को जलाने के लिए कुत्ते अपने आंगन में नहीं लिए चले जाएं मुझे बचाना अपने उत्तराधिकारियो से कह रहा हूं..’ रहीम के एक दोहे-

सर सूखे पंछी उड़े औरे सरन समाहि
दीन मीन बिना पंख के कहु रहीम कह जाहि

का उदाहरण देते हुए वह स्पष्ट करते है कि तालाब सूख जाने पर पक्षी हरियाली की तलाश में दूसरे तालाब के किनारे जा सकते हैं लेकिन सूखते तालाब की मछलियां तड़प तड़प कर उसी में जान दे देती है. ऐसी उनकी राजनीतिक निष्ठा भी आजीवन रही.

बैरागी जी से अपने परिवार का नाता भी काफी पारिवारिक और घनिष्ठ रहा. बैरागी की डायरी पुस्तक में कोटा में रहने वाली दीदी के 19 मार्च को फोन का जिक्र भी वह करते हैं-‘ कोटा से शिखा का फोन आया. केंद्र की सरकार की तबीयत पूछ रही थी. क्या बताता?’ पिता जी (कमला शंकर अवस्थी) से भारती परिषद के बैनर तले उन्नाव में हर साल होने वाले कवि सम्मेलन के आयोजनों के सिलसिले में शुरू हुआ संपर्क का सिलसिला संबंधों में तब्दील हो गया था. उनकी तमाम आत्मीय यादें अभी भी हम सबके जेहन में जिंदा है. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ‘स्मृति पर्व’ का शिलान्यास (यानी पहला कार्यक्रम) बैरागी जी के एकल काव्यपाठ से ही वर्ष 2005 में रायबरेली में प्रारंभ हुआ था. यह परंपरा आज भी उनकी स्मृतियों के सहारे चल रही है.
ऐसे पित्रतुल्य बैरागी जी को चौथी पुण्यतिथि पर शत शत नमन…

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