मानव जीवन की बेचैनी को कथा-साहित्य में पनाह मिलती रही है। जब बेचैनी का आलम बढ़ जाता है तब कलम की तासीर जाग्रत हो उठती है। देह के खोह में दर्द का दरिया बहता रहता है, स्त्री मवाद को भूलकर मुस्कुराती है और धरती को जन्नत तकसीम करने की जुगत में जुटी रहती है।
मेहरून्निसा परवेज़ अपनी कहानियों में स्त्री जीवन के त्रासद पक्ष को बेहद क़रीने ढंग से उकेरती हैं मानों दर्द पर बर्फ़ के फाहें रख रही हों। जब कहानी में चरित्र गढ़ती हैं, वह केवल कहानी की स्वर में नहीं बोलती हैं वरन समाज के चेहरे पर मौजूद झुर्रियों के बरक्स आसमानी तकलीफ़ को थपकी देती हैं। ‘पासंग’ की नायिका कुमसुम की जिंन्दगी का फ़ैसला इद्दत के साथ तय की जाती है जो कि मेहरूम जमाने में बेहद दर्दनाक है। प्रेम के पत्ते झड़ जाने के बाद इंतज़ार का पतझड़ पाकिस्तान में जाकर सिंधु में विभक्त हो जाता है। घर में घर की लाज रखने की रवायत ने किसी भी स्त्री को आज़ाद करने के बाद भी कैंद सी ज़िन्दगी बक्सी है।
दरख़्त के दरिया में ज़िन्दगी-ज़िन्दगी की तलाश करती है लेकिन दूर तक नज़र दौड़ाने के बावजूद कहीं कोई नज़र नहीं आता है। कथाकार मेहरून्निसा ने अपने युगीन परिवेश का निरीक्षण किया है। उनकी रचनायें इस बात तफ़तीश करती हैं कि वह नारीमन की पीड़ा को विभिन्न रूपों, स्वरूपों और समस्याओं को नज़दीक देखा है, जिसे अपनी रचना में सिरजा है।
“बेटी भाई के सपनों की तासीर समझकर सहमी माँ के आँचल का छोर पकड़े ठनकती घूमती है। माँ की पुरानी साड़ी, बेरंग पुराने क्लिप-काँटें, टूटी माला को पहनकर बस माँ की तरह एक सुघढ़ गृहणी बनने का सपना देखने लगती है। इससे ऊँचा तो सोच भी नहीं पाती। सपनों की पतंग को उड़ाने वाला कोई नहीं, शह देकर उकसाने वाला कोई नहीं। खुदा ने जब बिना भेदभाव के यह संसार बनाया है तो इस सुन्दर संसार को बदरंग करने वाले हम कौन होते हैं ?” यह कथन प्रमाण देते हैं कि परवेज़ जी अपनी कहानियों में नारी के हक़ की बात कितनी शिद्दत से उठाती हैं।
समकालीन परिप्रेक्ष्य में स्त्री-पुरूष संबंध के विविध स्वरूपों के अंतर्गत गहन अध्ययन किया है जिसकी दर्शन आपकी कहानियों में परिलक्षित होता है। ‘लौट आओ बाबूजी’ कहानी की नायिका शालू और गिरीश के प्रेम के माध्यम से नई परिपाटी का संकेत ही नहीं देती है बल्कि उदाहरण भी रखती हैं। अंतर्जातिय विवाह की दृष्टि से एक मज़बूत किरदार की कहानी कहती हैं। “शालू बेटा, अब तुम स्वयं अपना अच्छा-बुरा सोच सकती हो। तुम्हें अपने निर्णय लेने का हक़ है। मैं तुम्हारे निर्णय में तुम्हारे साथ हूँ, दूसरों की नहीं कह सकता।” ऐसा कहने के साथ ही बेटी को गिरीश का हाथ पकड़कर सफ़र पर निकल जाने की सलाह देते हैं। कहानी में परिवर्तन की बयार तेज बारिश की तरह है।
शादी के बाद बेटी का घर लौटना दरअसल लौटना नहीं होता है बल्कि नये सिरे जीवन की जद्दोजहद शुरू हो जाती है। ‘बूँद का हक़’ बेटी का ससुराल से लौटने पर माँ प्रतिरोध करती है लेकिन पिता कहते हैं “स्थिति को समझने की कोशिश करो, लड़की यहाँ न आती तो कहाँ जाती ! क्यों उसके दु:खों पर तुम दिन-रात नमक छिड़कती हो!” विवश पिता – बेटी की मॉर्मिक कहानी है। माँ के घर में भाई और माँ दोनों ही ख़िलाफ़त करते हैं तब पिता बड़े ही निठोहरे मन से बेटी से कहते हैं- “मैं भी यही सोचता हूँ बेटा, जब तू इन ख़ूँख़ार भेड़ियों के बीच रह सकती है तो वहाँ भी रह सकती है।” कमोबेश ऐसे ही पिता की परिणति की कहानी ‘अयोध्या से वापसी’ में भी चित्रित है। एक पिता मजबूर भी हो सकता है और एक स्त्री बेहद कठोर भी हो सकती है।
एक स्त्री को अक्सर ही पुरूष मानसिकता का शिकार बनना पड़ता है। अपनी कहानी ‘सिर्फ़ एक आदमी’ में सुमी और अतुल दो प्रेमी जोड़ी के बीच उभरे अंतर्द्वंद्व को बेहद खूबसूरत से बयां करती हैं। एक तरह से पुरूष सोच से मुठभेड़ करती स्त्री की मन:स्थिति का बारीक विशेषज्ञ की तरह विश्लेषण करती चलती हैं। पाँच बेटियों का पिता हाथ में बेंत लेकर चलता है, किसी ने ज़रा भी चूँ किया तड़का से देता था। सुमी, जब अतुल से कहती है कि हमें शादी के लिये बप्पा के मौत तक रूकना होगा, तब वह आँखों के कोरों को भींगो देती है। यह स्थिति समाज में आज तब मौजूद है। ‘चमड़े का खोल’ की नायिका की वापसी पिता की उपेक्षा से शुरू होती है। यह उपेक्षितों के लिये दरवाज़े खुलने का दौर सरीखा है। वहीं ‘जाने कब’ कहानी एक बेहद मजबूर व गरीब पिता की दुखदायी दिन का वर्णन है। अपनी बेटी की शादी करने में अक्षम पिता बीमारियों से घिर जाता है और हड्डियों का ढाँचा नज़र आने लगता है। जिसकी क़ीमत बेटी शन्नों को ताने के रूप में समाज से उपहार स्वरूप मिलते हैं और दारुण दुख को दयनीय दशा मानकर शिरोधार्य करती है। परिस्थितियाँ हमें तोड़ देती हैं जिससे हम लड़ने का सोचकर भी नहीं लड़ पाते हैं।
‘पाँचवीं कब्र’ रजिया के पिता रहमान की कहानी है। यह कहानी नहीं है बल्कि हमारे समाज का वह सच है जिसने छवियों को ध्वस्त किया है। गिरहों को तोड़ा है और हिम्मत बांधकर चलने वालों को बेवक्त मौत के घाट उतरना पड़ा है। पाई-पाई के जुगाड़ में क़ब्र खोदता रहमान स्वयं मौत को गले लगा लेता है और हैज़ा उसे अपने साथ ले जाता है, पीछे रजिया के सामने पहाड़ सी ज़िन्दगी छोड़ जाते हैं। बेटी-पिता के दुखों के पारावार की कहानी है।
नीना एक ख़ामोश, ठहरे दर्द और सूख चूके ठूंठ पेड़ की कहानी ‘विद्रोह’ है। वह विद्रोह करती है मगर स्वयं के अंदर के मानवीय गुणों के आगे हार मान जाती है। ‘जुगनू’ कहानी का नायक बावर्ची है। अपनी बेटी को कुयें में धकेल देता है। बेटी के साथ शोषण होता है। गुलशन के साथ तारिक रेप करता है। वह गर्भवती हो जाती है। पीरू मालिक की मान-प्रतिष्ठा बचाने के लिये अपनी ही बेटी की बलि चढ़ा देता है। यह झूठे शानों-ऐब की कहानी है। मरजाद के नाम पर सदियों से स्त्री की बलि चढ़ाई जाती है। पुलिस की भूमिका बड़ी अच्छी है। वह क़बूल कर लेता है कि उसने ही अपनी बेटी को मारा है।
‘ओढ़ना’ परिवार की कहानी है। माता-पिता के द्वारा ही बेटी को देह व्यापार के धंधे में ज़बरदस्ती भेज दिया जाता है। वह नहीं चाहते हुये भी पारिवारिक- सामाजिक दवाब के आगे घुटने टेक देती है। यह कहानी बदलाव की नींव में परिवर्तित हो सकती थी लेकिन कमजोर पटकथा के साथ अंत की तरफ़ बढ़ती है।
‘शनाख्त’ एक शराबी पिता के द्वारा पत्नी और बेटी में फ़र्क़ न करने के एक बेवड़े की कहानी है। पिता का घिनौना रूप सामने प्रकट होता है। जबकि ‘नया घर’ में पुत्री आँखों देखा हाल बयां करती है जिसमें पिता बेटी की उम्र की लड़कियों के साथ यौनाचार में निर्लिप्त रहता है। वह विरोध करना चाहती है मगर नहीं कर पाती है। ऐसे हालात की कहानी ‘पापा का घर’ भी है।
मेहरून्निसा परवेज़ की कहानियों में- समाज में परिवार, परिवार में लड़की, लड़की की दुर्दशा, पिता की भूमिका में पिता का नये-नये रंग-ढंग की कहानी है। अपनी रचनाओं के माध्यम से सामाजिक स्थितियों का चित्रण करते वक्त बेहद गम्भीर , गहन व गमगीन हालात को उभारती हैं। आपकी कहानियाँ वक्त का शिनाख्त करते हुये बदलाव को तरजीह देती हैं।