गौरव अवस्थी
नई दिल्ली: 1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम सभी को याद ही है। इस संग्राम में उन्नाव के रणबांकुरों ने अंग्रेजी फौजों से जम कर युद्ध किया था। उन्नाव की वीर भूमि पर सेनानियों ने कई बार फिरंगियों को पीछे धकेला। इसी का नतीजा था कि कानपुर में नाना राव पेशवा सरकार का पतन करके आगे बढ़ाने वाले जनरल हैवलॉक को दो बार कदम पीछे हटाने पड़े थे।
कानपुर और बिठूर जीतने के बाद हैवलॉक जनरल नील को कानपुर की जिम्मेदारी देकर क्रांतिकारियों की कैद से अंग्रेज सैनिकों और उनके परिजनों को छुड़ाने के लिए गंगा पार करके लखनऊ की ओर बढ़ा। 28 जुलाई को गंगा पार करके वह मगरवारा पहुंचा। मगरवारा के घर घर में क्रांति की ज्वाला धड़क रही थी। फिरंगियों को धूल चटाने के लिए हर घर में छिद्र बनाए गए थे ताकि बंदूक और टॉप से लैस फिरंगियों को आगे बढ़ने से रोका जाए।
असफल होने के बाद जनरल हैवलॉक 29 जुलाई को उन्नाव की ओर बढ़ा लेकिन क्रांतिकारियों ने घेरा डाल दिया। क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी सेनाओं का डटकर सामना किया। क्रांतिकारी सेना की कई देसी तोपें दलदल में फंस गईं। उन्नाव के उस युद्ध में क्रांतिकारियों की 15 तोपें टूट कर बेकार हो गईं। हैवलॉक ने इन तोपों को हथिया लिया। उस समर में 300 क्रांतिकारी शहीद हुए।
उन्नाव के युद्ध में क्रांतिकारियों को असफल करने के बाद हैवलॉक बशीरतगंज की तरफ बढ़ा। बशीरतगंज तब ऊंची दीवारों से गिरा एक शहर था। यहां क्रांतिकारी और अंग्रेजी सेनाओं के बीच तीन बार भीषण युद्ध हुए। फिरंगी सेनाओं को दो बार क्रांतिकारियों ने खदेड़ दिया। बशीरतगंज के प्रथम युद्ध में जनरल हैवलॉक की 1/6 सेना नष्ट हो गई थी। उसकी सेना के 88 लोग मारे गए। उसने कानपुर में जनरल नील से सैनिक सहायता मांगी लेकिन खुद क्रांतिकारियों से घिरा होने के कारण उसने असमर्थता जता दी। इसके चलते हैवलॉक अपने कदम पीछे हटाकर फिर मगरवारा पहुंच गया।
सैनिक सहायता मिलने के बाद 4 अगस्त को हैवलॉक फिर लखनऊ की ओर आगे बढ़ा और बशीरतगंज में क्रांतिकारियों से दूसरा युद्ध हुआ। इस युद्ध में क्रांतिकारियों के साथ अनेक तालुकदार और जमींदार की सेनाएं भी शामिल हुईं थीं। दूसरे युद्ध में 25 अंग्रेज अफसर मारे गए और करीब ढाई सौ क्रांतिकारी शहीद हुए। बशीरतगंज के इस द्वितीय युद्ध के बारे में हैवलॉक ने खुद लिखा-‘ लखनऊ मार्ग का प्रत्येक गांव हमारे विरुद्ध था आम लोग भी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ उठ खड़े हुए थे।’ बशीरतगंज से 12 मील की दूरी पर फतेहपुर 84 में अपने सैनिकों के साथ नाना साहब पेशवा के जमे होने और ग्वालियर की सेनाओं के कालपी तक पहुंच जाने की खबरों की वजह से हैवलॉक लखनऊ बढ़ने के बजाय फिर मगरवारा वापस लौटने को मजबूर हुआ।
तीसरी बार जनरल हैवलॉक 11 अगस्त को गंगा पार करके लखनऊ की ओर चला। इस बार क्रांतिकारियों ने बसेरतगंज के पहले बुढ़िया की चौकी गांव के पास ही अंग्रेजी सेनन से मोर्चा लिया। इस युद्ध में भी हैवलॉक को काफी क्षति पहुंची 32 अंग्रेज सैनिक मारे गए और करीब 300 क्रांतिकारी शहीद हुए। बशीरतगंज के इस युद्ध में लौंडिया खेड़ा के राव रामबक्स सिंह, रसूलाबाद के मंसब अली और बांगरमऊ (तरफसराय) के जस्सा सिंह जनवार की सेनाओं के साथ जनसाधारण ने भी भाग लिया। युद्ध में सफल होने के बावजूद हैवलॉक क्रांतिकारी अवरोध के चलते लखनऊ की ओर बढ़ नहीं पा रहा था। इस पर कानपुर बिठूर पर काबिज उसकी सेना के द्वितीय अधिकारी जनरल नील ने पत्र लिखकर अपनी नाराजगी भी जाहिर की थी।
क्रांतिकारियों के अवरोध के भीषण अवरोध के चलते ही हैवलॉक को लखनऊ पहुंचने में 2 महीने का वक्त लग गया था। मगरवारा में 21 सितंबर को हुए दूसरे युद्ध में भी ब्रिटिश फौजों को भीषण युद्ध का सामना करना पड़ा था। अगर उन्नाव में युद्ध घनघोर न होता तो ब्रिटिश हुकूमत लखनऊ पर 8 महीने पहले ही काबिज हो सकती थी।
जनरल हैवलॉक कानपुर में नाना साहब की सरकार के पतन के बाद जब पहली बार गंगा पार करके मगरवारा में डेरा डाले था तब मगरवारा के घर-घर से फिरंगियों पर हमले हुए थे फिरंगियों से निपटने के लिए घर-घर में छेद बनाए गए थे इसका विवरण खुद हैवलाक ने अपने संस्मरण में लिखा है। उन्नाव के इन रणबांकुरों पर आज हम सभी को नाज तो है लेकिन हम अपने इन बहादुर पूर्वजों के स्वर्णिम इतिहास से ही अपरिचित हैं। प्रथम स्वाधीनता संग्राम से जुड़े मगरवारा, बशीरतगंज, नवाबगंज की पवित्र माटी को माथे पर लगाने का नया रिवाज क्यों शुरू नहीं होना चाहिए।
प्रथम स्वाधीनता संग्राम में अपनी आहुति देने वाले सभी ज्ञात-अज्ञात रणबांकुरों को शत-शत नमन्