डॉ जयनारायण बुधवार
लखनऊ
फिर नज़र से उतारता है कोई
देख लो कितना चाहता है कोई।
जीतने के लिए बना ही नहीं
प्यार में रोज़ हारता है कोई।
इतने टुकड़े कि कोई गिन न सके
ऐसे पत्थर तराशता है कोई?
अश्क थमते नहीं किसी सूरत
मुझको ऐसे दुलारता है कोई।
किसी कोने में कोई याद नहीं
घर को ऐसे बुहारता है कोई?
रूह जिस नजर से उतर आए
बुत को ऐसे निहारता है कोई ?
डांटने से ही प्यार हो जाए
प्यार से इतना डांटता है कोई?
गोद में सर था, हाथ हाथों में
इस तरह छल से मारता है कोई?
प्यार होगा जरूर सीने में
इतनी तेज़ी से भागता है कोई?
ये खतरनाक सा बयान है अब
शहर में हमको जानता है कोई।