गौरव अवस्थी
डॉ राधाकृष्णन को महान शिक्षाविद् एवं दार्शनिक के रूप में आज पूरी दुनिया जानती है। गरीब परिवार में जन्मे डॉक्टर राधाकृष्णन ने परिश्रम, एकाग्रता और स्वाध्याय के बल पर राष्ट्रपति पद प्राप्त किया। नई पीढ़ी को यह पता ही नहीं होगा कि डॉ राधाकृष्णन का बचपन किन हालत में गुजरा? गरीबी में पले-बढ़े राधाकृष्णन के लिए वही गरीबी वरदान भी साबित हुई और उसी ने जीवन भी दिया। उनके जीवन में एक वक्त ऐसा भी आया जब माता-पिता भाई-बहन और पत्नी बच्चों के भरण- पोषण के लिए उन्हें जमीन पर खाना परोसकर तक खाना पड़ा। गरीबी न होती तो देश और दुनिया के फलक पर डॉक्टर राधाकृष्णन न होते। हम सबको शिक्षक दिवस मनाने का अवसर भी नसीब न होता। आइए! डॉ राधाकृष्णन के अभाव में गुजरे जीवन को भी जानें..
सर्वपल्ली डॉक्टर राधाकृष्णन का जन्म 5 सितंबर 1888 को चेन्नई से 200 किलोमीटर दूर तिरुतानी नामक एक छोटे से कस्बे में हुआ था। पिता का नाम सर्वपल्ली वीरास्वामी और मां का नाम सीतम्मा था। उनके पिता तिरुतानी के जमींदार के अधीन एक साधारण कर्मचारी थे। 6 भाई-बहनों वाले भरे पूरे परिवार का भरण-पोषण एक साधारण कर्मचारी पिता के लिए बहुत ही मुश्किल था।
डॉ राधाकृष्णन घूमने फिरने के शौकीन थे। वर्ष की अवस्था में पैसा बचाकर घूमने निकल गए। एक बार सुनसान रास्ते पर यात्रा कर रहे थे तभी लुटेरे की नजर पड़ी। वक्त लुटेरे ब्राह्मण बच्चों को उठाकर सोने के आभूषण इत्यादि छीनने के बाद मारकर कुएं में फेंक देते थे। लुटेरों ने उन्हें भी पकड़ा तलाशी में कुछ भी न मिलने पर धक्का देकर छोड़ दिया।
दर्शनशास्त्र उनका प्रिय विषय कभी नहीं रहा। इस विषय में उनका कोई आकर्षण भी नहीं था। चचेरे भाई ने दर्शनशास्त्र में स्नातक की परीक्षा पास की थी। उन्होंने अपनी सारी किताबें डॉ राधाकृष्णन को देने का वादा किया। गरीबी के चलते डॉक्टर राधाकृष्णन ने उधार में मिली किताबें के चलते बीए में दर्शनशास्त्र को मुख्य विषय के रूप में लिया और दुनिया के जाने-माने दार्शनिक बन गए।
बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के डॉक्टर राधाकृष्णन कानून की पढ़ाई करना चाहते थे। गरीबी के चलते कानून की डिग्री हासिल नहीं कर पाए लेकिन गरीबी उनकी पढ़ाई में बाधक नहीं बन पाई। 25 रुपए प्रतिमाह छात्रवृत्ति प्राप्त कर दर्शनशास्त्र से एमए किया। दर्शनशास्त्र से एमए की परीक्षा पास करने के बाद उनकी इच्छा लंदन जाकर उच्च अध्ययन की थी लेकिन पैसे की कमी के कारण वह लंदन जाकर उच्च अध्ययन नहीं कर पाए।
उनकी ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ने की भी इच्छा अधूरी रह गई। तब उन्होंने कहा कि मैं भले ही ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ा नहीं पाया लेकिन एक दिन ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ाऊंगा। स्वाध्याय के बल पर उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय में नौकरी के दौरान ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में भी पढ़ाया।
अनेक संस्थाओं में नौकरी के लिए उन्होंने प्रार्थना पत्र भेजे लेकिन कहीं नौकरी नहीं मिली। तब उन्होंने अपनी समस्या अपने प्रोफेसर स्नेकर के सामने रखी। प्रोफेसर स्नेकर ने सिफारशी पत्र लिखकर पब्लिक इंस्ट्रक्शन के डायरेक्टर के पास भेजा। उसके आधार पर उन्हें प्रेसीडेंसी कॉलेज चेन्नई में मलयालम के मास्टर की नौकरी मिली जबकि वह मलयालम भाषा जानते ही नहीं थे। स्थान रिक्त होने पर उन्हें दर्शनशास्त्र का प्रवक्ता नियुक्त किया गया।
वर्ष 1910 में उन्हें प्रशिक्षण के लिए भेजा गया। आर्थिक अभाव का आलम यह था कि वह भोजन के लिए थाली के रूप में इस्तेमाल होने वाले केले के पत्ते भी खरीद नहीं पाते थे। प्रशिक्षण के दौरान उन्होंने भोजन जमीन पर परोस कर भी खाया। परिवार के भरण पोषण के लिए उन्होंने अपने जीते हुए जिन मेडल को गिरवी रखा था उनका ब्याज चुकाना भी उनके सामने मुश्किल था। बास न चुकाने पर 1913 में साहूकार ने उन पर मुकदमा भी कर दिया। पुणे कोर्ट के कटघरे में खड़ा होना पड़ा। तब उन्होंने कोर्ट में माफी मांग कर दिन-रात मेहनत कर कर्ज चुकाने का वादा किया। दिन-रात की मेहनत ने उन्हें बीमार भी कर दिया।
डॉ राधाकृष्णन 1939 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलाधिपति नियुक्त हुए। उस समय भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हो चुका था। विश्वविद्यालय गवर्नर के दबाव में था। गवर्नर युद्ध के अस्पताल के रूप में विश्वविद्यालय कैंपस को बदलना चाहता था लेकिन डॉक्टर राधाकृष्णन के नैतिक बल की बदौलत वह सफल नहीं हुआ तो उसने विश्वविद्यालय को अनुदान देना बंद कर दिया। इसके बाद राधा कृष्ण ने चंदा वसूल कर विश्वविद्यालय को कर्ज मुक्त करके आगे भी बढ़ाया।
यह भी ऐतिहासिक तथ्य है कि डॉक्टर राधाकृष्णन ने कभी कांग्रेस की सदस्यता नहीं ली लेकिन गांधी जी के आंदोलन को आगे बढ़ाने में उन्होंने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी और दो बार उपराष्ट्रपति व एक बार राष्ट्रपति चुने गए।
ऐसे सर्वपल्ली डॉक्टर राधाकृष्णन को 125वीं जयंती पर शत-शत नमन!