कृष्ण जन्माष्टमी 30 अगस्त दिन सोमवार को है। यह त्योहार हर साल भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। ऐसे में हम आपको भगवान कृष्ण के उन आठ स्थानों के बारे में बताने जा रहे हैं, जहां पहुंचने पर आप भगवान को अपने बेहद करीब महसूस करेंगे। यह स्थान आज भी कृष्ण की लीलाओं का गुणगान करते हैं। अगर आप भी कृष्ण की लीलाओं का अनुभव करना चाहते हैं तो ब्रजभूमि चले आइए। यहां आकर आपको महसूस होगा कि भगवान कृष्ण आपके आसपास ही हैं। यहां एक जगह ऐसी भी है कि आप कान्हा की बंसी की तान महसूस कर सकते हैं। आइए जानते हैं इन स्थानों के बारे में…
कृष्ण जन्मभूमि
भगवान कृष्ण को अपने करीब महसूस करना है तो जन्मभूमि चले आइए। मान्यता है कि द्वापर युग में यहां कंस का कारावास हुआ करता था, यहीं पर बाल गोपाल का जन्म हुआ था। कृष्ण जन्मभूमि मंदिर में एक ऊंचा चबूतरा बना हुआ है, बताया जाता है कि जन्म के बाद वहीं पर कृष्णजी के प्रथम चरण पड़े थे। उस समय मथुरा शूरसेन देश की राजधानी हुआ करती थी। कंस ने कृष्ण के पिता वासुदेव और माता देवकी को कारागार में डाल दिया था, जहां उनकी आठवीं संतान के रूप में कृष्ण ने जन्म लिया।
यमुना
बताया जाता है कि तीर्थराज प्रयाग यमुना के घाटों पर श्रीयमुना महारानी की छत्रछाया में श्रीकृष्ण की आराधना करते हैं। भगवान कृष्ण के जन्म के बाद उनके पिता वासुदेव यमुना से होकर मथुरा से गोकुल ले गए थे, तब यमुनाजी ने कृष्णजी के चरण स्पर्श किए थे। साथ ही यमुना के आसपास कृष्णजी ने कई लीलाएं की हैं। इन लीलाओं के दृश्य आज भी यमुना के आसपास देखने को मिल जाएंगे। यहां स्नान करने से मनुष्य के सभी पाप दूर हो जाते हैं और कृष्ण के होने के आभास भी होता है।
गोवर्धन
अगर आपको कृष्ण लीलाओं के दर्शन करने हैं और उनकी महत्ता को जानना है तो गोवर्धन की परिक्रमा करने एकबार जरूर आएं। गोवर्धन में आपको कृष्ण के बारे में ऐसी-ऐसी छोटी-छोटी जानकारी मिलेगी, जो आप कहीं नहीं जान सकते। यहां हर पल भक्तिमय माहौल रहता है और हर पल कृष्ण को अपने आसपास महसूस कर सकते हैं। गोवर्धन में कृष्ण कुंड और राधा कुंड की परिक्रमा की जाती है। गोवर्धन वही पर्वत है, जिसको कृष्णजी ने अपनी एक उंगली से उठा लिया था और ब्रजवासियों की रक्षा की थी।
नंदरायजी का मंदिर
कंस से रक्षा करने के लिए वसुदेवजी नंदगांव में अपने मित्र नंदरायजी के यहां पहुंचे थे। पहले जहां नंदरायजी का घर हुआ करता था, आज वहां मंदिर बना हुआ है। यहां आकर आपको बाल गोपाल की लीलाओं के बारे में जानकारी मिलेगी। आपको यहां आकर ऐसा महसूस होगा कि जैसे बाल गोपाल आपके आसपास ही किलकारी मार रहे हों। साथ ही उन्होंने यहां पर अपना पूरा बचपन बिताया था तो आपको वह भी दृश्य देखने को मिल जाएंगे।
निधिवन
वृंदावन राधा-कृष्ण की लीलाओं की नगरी रही है और यहां पर स्थित निधिवन तो रहस्यों का सागर है। बताया जाता है कि इसी वन से बांके बिहारीजी का विग्रह प्रकट हुआ था। यहां भगवान कृष्ण ने रासलीला रचाई थीं। इस वन में एक मंदिर भी है, जिसमें हर रोज भगवान के लिए सेज सजाई जाती है। मान्यता है कि यहां हर रोज बांके बिहारी राधा रानी के साथ विश्राम करते हैं और सुबह दातुन करके चले जाते हैं। मंदिर का जब दरवाजा खुलता है तो दातुन गिली मिलती है और सजा हुआ बिस्तर फैला हुआ रहता है, जैसे की कोई उस पर सोया हो। निधिवन में आज भी न सिर्फ व्यक्ति बल्कि कोई जानवर भी एक रात नहीं रुकता।
भांडीरवन
मथुरा से करीब 20 किमी की दूरी पर भांडारी वन जगह है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, ब्रह्माजी ने यहीं पर भगवान कृष्ण का राधा के साथ विवाह करवाया था। आज भी इस वन में राधा-कृष्ण के विवाह को जीवंत कर रखा है। यहां आज भी कृष्ण के जमाने के पेड़ देखने को मिल जाएंगे। यहीं पास में एक बंसीवट वन नाम की जगह भी है, जहां श्रीकृष्ण गायों को चराते हुए राधा को बंसी की तान सुनाया करते थे। बताया जाता है कि जब भगवान कृष्ण बंसी बजाते थे तब सभी वट वृक्ष कान लगाकर ध्यान से सुनते थे। अगर आप ध्यान से सुनेंगे तो आज भी बंसी की तान सुनाई पड़ेगी।
काम्यवन
मथुरा से 50 किमी की दूरी पर काम्यवन स्थित है, जिसे कामां भी कहा जाता है। यहां पर एक पहाड़ी है, जहां पर आज भी एक थाल और कटोरी का चिन्ह बना हुआ है। मान्यता है कि भगवान कृष्ण ने यहीं पर व्योमासुर नामक एक असुर का वध किया था, जो पास की ही एक गुफा में रहता है। साथ ही बताया जाता है कि परशुराम भगवान ने यहीं पर तपस्या भी की थी। महाभारत काल में पांडवों ने अपना कुछ समय इसी वन में बिताया था। अगर आप यहां आते हैं तो आज भी आप कृष्ण की लीलाओं के दर्शन कर सकते हैं।
मोर कुटी
मथुरा के बरसाने में ब्रह्मांचल पर्वत पर प्राचीन मोरकुटी स्थल है। बताया जाता है कि आज भी श्यामसुंदर मोर रूप में यहां विचरण करते हैं। मान्यता है कि एक बार राधारानी मोर कुटी में मोर देखने के लिए पहुंची थीं लेकिन उनको एक भी मोर नहीं मिला। जिससे राधाराधी मायूस हो गईं। जब भगवान कृष्ण ने देखा कि राधारानी मायूस हो गई हैं तो उन्होंने मोर रूप धारण नृत्य करने लगे, इसे देखकर राधारानी प्रसन्न हो गईं और लड्डू खिलाने लगीं। तभी उनकी सखियां पहचान गई थीं कि कृष्ण खुद मोर बनकर आ गए हैं। सखिया कहती हैं कि राधा ने बुलायो कान्हा मोर बन आयो।
खबर इनपुट एजेंसी से