देवेश त्रिपाठी
कोरोना महामारी की दूसरी लहर भयावह होने के साथ ही जानलेवा साबित हो रही है. देश में बीते 24 घंटों में कोविड-19 संक्रमण के दो लाख से ज्यादा मामले सामने आए हैं. कोरोना से जान गंवाने वाले लोगों को आंकड़ा भी बीते 10 दिनों में दोगुना से ज्यादा हो गया है. महाराष्ट्र, दिल्ली, गुजरात समेत कई राज्यों में स्वास्थ्य व्यवस्थाएं चरमरा गई हैं. राज्यों में कोविड-19 संक्रमण के मामलों पर रोक लगाने के लिए सख्ती की जा रही है. कई जगहों पर आंशिक तौर पर लॉकडाउन लगाने जैसे निर्णय भी लिए गए हैं. स्थितियां बद से बदतर होती जा रही है, लेकिन केंद्र सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंग रही है. देश में राजनीतिक दलों ने कोरोना के पनपने के लिए एक ऐसा इकोसिस्टम बना दिया है कि अब इसे रोकने के लिए कुछ कड़े फैसले लेने पड़ेंगे. आइए बात करते हैं ऐसे ही कुछ फैसलों की जिन्हें समय रहते ले लिया जाता, तो देश में आज कोरोना महामारी से हालात बेकाबू नहीं होते.
चुनावों को न टालने का फैसला
बीते साल कोरोना अनलॉकडाउन के बीच में बिहार में विधानसभा चुनाव हुए. उस दौरान कोरोना संक्रमण इतनी तेजी से नहीं फैला था. दरअसल, अनलॉकडाउन की वजह से कई पाबंदियां कायम थीं. जिसकी वजह से लोगों में कोरोना को लेकर बना भय बरकरार था. साल 2021 आते-आते अनलॉकडाउन खत्म हो गया और पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की तैयारियां शुरू हो गईं. बीती फरवरी के अंत में चुनाव आयोग ने चुनावी तारीखों की घोषणा कर दी. उस दौरान कोरोना के मामलों में बढ़ोत्तरी शुरू हो चुकी थी. इन चुनावों को निश्चित तौर पर टाला जा सकता था. लेकिन, चुनाव आयोग ने ऐसा नहीं किया. देश में कोरोना मामलों की संख्या को देखते हुए इन चुनावों को बीच में भी रोका जा सकता था. लेकिन, चुनाव आयोग ने इसके लिए कोई तत्परता नहीं दिखाई.
ममता बनर्जी ने कोरोना की स्थिति को देखते हुए बाकी के चार चरणों का चुनाव एक साध कराने का एक अच्छा सुझाव दिया है. लेकिन, यह सुझाव भी राजनीति की भेंट चढ़ता दिख रहा है. चुनाव आयोग को अव्वल तो चुनाव टालने का फैसला ले लही लेना चाहिए था. ऐसे समय में जब स्कूल-कॉलेज, परीक्षाएं आदि स्थगित कर दी गई हैं, तो चुनावों को स्थगित करने से कोई बड़ा नुकसान होता नहीं ही दिख रहा था. लेकिन, चुनाव आयोग ने इसे रोकने को लेकर इच्छाशक्ति दिखाई ही नहीं. हमारे देश में चुनाव आयोग एक ऐसी संस्था है, जिसके पास असीमित शक्तियां हैं. जिनमें से एक चुनाव को रद्द करने या रोकने की शक्ति भी है. कोरोना संक्रमण के मामले बढ़ने के बावजूद चुनाव आयोग ने इसे पर रोक नहीं लगाई.
चुनावी रैलियां और कुंभ में आ रही भीड़ पर नहीं लगाई रोक
देश के कई राज्यों में कोविड-19 संकमण के मामले सामने लगातार बढ़ रहे थे. चुनावी माहौल में राजनीतिक दलों की रैलियों में लाखों की भीड़ इकट्ठा की जा रही थी. देश की कई उच्च न्यायपालिकाओं ने कोरोना संक्रमण को लेकर चिंता जाहिर की है. बावजूद इसके चुनाव आयोग ने चुनावी रैलियों और रोड शो पर प्रतिबंध नहीं लगाया. चुनाव आयोग ने कोरोना को देखते हुए गाइडलाइन जारी की, लेकिन राजनीतिक दलों ने उसकी जमकर धज्जियां उड़ाईं. देश में कोरोना की स्थिति गंभीर हो चुकी है, इसके बावजूद चुनाव आयोग ने रैलियों औऱ रोड शो पर अभी तक कोई निर्णय नहीं लिया है.
देश में कोरोना की स्थिति गंभीर हो चुकी है, इसके बावजूद चुनाव आयोग ने रैलियों औऱ रोड शो पर अभी तक कोई निर्णय नहीं लिया है.
देश में कोरोना की स्थिति गंभीर हो चुकी है, इसके बावजूद चुनाव आयोग ने रैलियों औऱ रोड शो पर अभी तक कोई निर्णय नहीं लिया है.
दूसरी ओर आस्था के नाम पर हरिद्वार में हो रहे कुंभ में लाखों की संख्या में लोग गंगा में डुबकी लगा रहे हैं. सरकारों को यहां आए लोगों के स्वास्थ्य की रत्ती भर भी चिंता नहीं दिखती है. कोरोना संक्रमण के लगातार बढ़ रहे मामलों के बावजूद कुंभ को भव्यता के साथ आयोजित किया गया. इस पर रोक नहीं लगाई गई.
राजनीतिक दलों को भी खुद से सोचना चाहिए था कि अगर वह रैलियां न करते, तो लोगों में कोरोना संक्रमण की गंभीरता को लेकर एक अच्छा संदेश जा सकता था. संदेश देने में माहिर कहे जाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोगों को कोरोना के प्रति जागरूक करते रहे हैं. अगर वह चुनावी राज्यों में रैलियां या रोड शो न करने और कुंभ के आयोजन को टालने का फैसला लेते, तो लोगों के बीच एक बढ़िया संदेश जाता और कोरोना को लेकर जागरुकता भी बढ़ती. लेकिन, सत्ता के लोभ में फंसे राजनीतिक दलों से इसकी आकंक्षा नहीं की जानी चाहिए.
फिर से लॉकडाउन न लगाने का फैसला
बीते साल मोदी सरकार ने संपूर्ण लॉकडाउन लगाने से पहले लोगों को केवल कुछ घंटों की मोहलत दी थी. जिसके वजह से जो जहां था, वहीं फंस गया था. हजारों लोग पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने घरों की ओर रवाना हो गए थे. इसे एक भयानक मानवीय त्रासदी कहा गया था. इस बार मोदी सरकार के पास पूरा मौका है कि वह बिना किसी हड़बड़ाहट के आसानी से लॉकडाउन की घोषणा कर सकती थी. लोगों को उनके घरों तक पहुंचाने की व्यवस्था भी की जा सकती थी. लेकिन, मोदी सरकार ने इस बार लॉकडाउन लगाने से हाथ खड़े कर दिए हैं. मोदी सरकार ने अब ये जिम्मेदारी राज्य सरकारों के कंधों पर डाल दी है. राजनीतिक हित साधने के लिए कड़े फैसलों से मोदी सरकार अब मुंह चुरा रही है.
एक साल में चिकित्सा सुविधाओं को दुरूस्त न करना
मोदी सरकार और राज्य सरकारों ने कोरोना महामारी को लेकर शुरुआती दिनों में ही गंभीरता दिखाई. अनलॉकडाउन के बाद राज्यों ने आरटी-पीसीआर टेस्ट की जगह रैंडम एंटीजन टेस्ट को वरीयता देनी शुरू कर दी. जिसकी वजह से कोविड-19 संक्रमण के मामले कम होने लगे. इतना ही नहीं, राज्यों ने टेस्ट की संख्या भी घटा दी. मीडिया रिपोर्ट्स में सामने आए आंकड़ों के अनुसार, चुनावी राज्यों समेत कई राज्यों में कोरोना की टेस्टिंग कम की जा रही है. उत्तर प्रदेश के लखनऊ में प्राइवेट लैब्स में कोरोना की जांच योगी सरकार ने बंद करवा दी है. कोरोना संक्रमण के मद्देनजर एक साल में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की ओर से चिकित्सा सुविधाओं को बढ़ाने और मजबूत करने के लिए कोई कदम नहीं उठाए गए हैं. किसी भी आपात स्थिति से बचने के लिए सरकारों के पास कोई व्यवस्था नहीं है.