अणु शक्ति सिंह
आज जैसा माहौल तैयार हुआ है तुलसीदास और रामचरित मानस को लेकर एक नयी डिबेट की शुरुआत हो गयी है. हर साल केवल गीता प्रेस रामचरित मानस की छः लाख से अधिक प्रतियां प्रकाशित करता है, बेचता है.
इस किताब को पीढ़ियां अपने आने वाली नस्ल को तोहफ़े में देती हैं. 2018 की एक रपट के अनुसार उस समय तक केवल गीता प्रेस तीन करोड़ से अधिक प्रतियां बेच चुका था. ग़ौरतलब है कि इसका प्रकाशन कई छोटे बड़े प्रकाशक करते हैं.
सदियों तक रामचरित मानस ’हिंदु’स्तान’ की प्रतिनिधि किताब रही है. यहां ‘हिंदू’ शब्द पर ध्यान देना आवश्यक है. यह उन किताबों में है जिसने कालांतर में कविता से कल्ट और फिर आस्था के सिरमौर की उपाधि पा ली है.
किसी किताब का आस्था से जुड़ जाना अमुक धर्म की रगों में घुस जाना है. यहां इस बात पर भी नज़र देना होगा कि भारत धर्मनिरपेक्ष होने के बाद भी व्यावहारिक रूप से हिंदुस्तान अधिक है. यह वही देश है जहां हिंदू-मुस्लिम करके, हिंदू राष्ट्र की स्थापना का विचार कई लोगों के मन में है. रामचरित मानस कहीं न कहीं इस विचार को पोषित करता है. इसके अतिरिक्त भी रामचरित मानस में कई ख़ामियां हैं. वे ख़ामियाँ भीषण जेंडर और कास्ट गैप क्रिएट करती हैं.
यह विचार उत्तर भारत में अधिक बलशाली है. अनाधिकारिक रूप से उत्तर भारत की सर्वमान्य भाषा हिन्दी है. इन प्रदेशों में विशेषतः दिल्ली, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में हिन्दू आबादी लगभग 80% या अधिक है.
हिन्दी पढ़ने वाले ये हिंदू रामचरित मानस को कई बार इच्छा से, कई बार कंडीशनिंग की वजह से अहम् किताब के रूप में सामने रखते हैं. इनमें कई स्कूलों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाते भी हैं. ज़ाहिर है पढ़ाते हुए वे अपने विचार रखेंगे.
रामचरित मानस को बदला नहीं जा सकता है. इसके प्रभाव को धीरे-धीरे ख़त्म करने की कोशिश हो सकती है. ऐसा केवल अधिक जागरूकता के ज़रिये ही किया जा सकता है. डंडे चलाने से तथ्य ख़त्म नहीं होते हैं. तथ्यों को पहचानते हुए ही जागरूकता फ़ैलाई जा सकती हैं. चाहते हैं कि तुलसीदास का प्रभाव विदेशों में कम हो. आपको ग़ुस्सा आता है कि जापान में तुलसी क्यों पढ़े जा रहे हैं तो ज़रूरी है कि उन कोशिशों को बल दिया जाए जिससे रामचरित मानस के आस्था प्रभाव को तार्किक रूप से कम किया जा सके