नई दिल्ली: अमेरिका के राष्ट्रपति पद पर डोनाल्ड ट्रंप की वापसी से दुनिया पर क्या असर पड़ेगा, इस पर बहस और चर्चा हो रही है। इस वापसी का कारोबार, आपसी रिश्ते और हित बनेंगे या बिगड़ेंगे इसका आंकलन हर एक देश कर रहा है। दुनिया के सबसे पुराने लोकतांत्रिक और सबसे ताकतवर देश में बदलाव हुआ है तो जाहिर है कि इसका असर हर जगह दिखना शुरू होगा। दुनिया को चलाने की जो एक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था है, उसमें अमेरिका का किरदार सबसे बड़ा है। आर्थिक और सैन्य मोर्चे पर वह आज भी सबसे समृद्ध और शक्तिशाली देश है, यानी ट्रंप आए हैं तो वह अपने हिसाब से चीजों को देखेंगे और चलाएंगे। विदेश नीति, कूटनीति, कारोबार, युद्ध और टकराव सभी में बदलाव होना तय है। यह बदलाव कुछ देशों के लिए फायदेमंद तो कुछ के लिए घाटे का सौदा हो सकता है जो देश ट्रंप के आगमन से खुश हैं और जिनकी उनके साथ बनती रही है, उनके लिए तो ठीक है लेकिन पिछले टर्म यानी 2016 से 2020 के कार्यकाल में जिनकी उनसे ठन गई थी या जिनका उनके साथ टकराव और 36 का आंकड़ा था। ऐसे देश डरे और सहमे हुए हैं, ट्रंप का अगला रुख क्या होगा इसे लेकर वे भयभीत हैं।
अमेरिका के साथ चीन का कई मोर्चों पर है टकराव
सहमे हुए देशों में सबसे बड़ा नाम पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना यानी चीन का है। चीन का अमेरिका के साथ एक नहीं कई मोर्चों पर टकराव है। विदेश नीति, सुरक्षा, सैन्य, कारोबार, मानवाधिकार, स्पेस से लेकर हर एक क्षेत्र में दोनों के बीच नूरा-कुश्ती तो है ही। टकराव का दायरा साउथ चाइना सी, हिंद-प्रशांत से लेकर ताइवान तक फैला हुआ है, यानी अमेरिका को सबसे ज्यादा चुनौती अगर किसी देश से मिल रही है तो वह चीन है। चीन लगातार उसके सुपरपावर के दर्जे को चुनौती दे रहा है। चूंकि ट्रंप अपने पहले कार्यकाल के दौरान चीन पर नकेल कसने के लिए कई तरह कदम उठा चुके हैं और चीन के प्रति उनका जो रुख और रवैया है, वह दोनों देशों के बीच गतिरोध और टकराव को नए सिरे से बढ़ाएगा। खासकर, कारोबार ऐसी दुखती रग है जहां ट्रंप सबसे पहले चोट कर सकते हैं।
एक समय था जब चीन-अमेरिका में कारोबार नहीं होता था
एक समय ऐसा भी था जब चीन और अमेरिका के बीच कोई व्यापार नहीं होता था। 1949 में चीन के गठन के बाद से तीन दशकों यानी 30 सालों तक एक तरह से दोनों देशों के बीच व्यापारिक रिश्ते नहीं थे। करीब तीन दशक के बाद चीन में डेंग शिआपिंग ने आर्थिक सुधार करने शुरू किए, फिर 1979 में दोनों देशों ने अपने रिश्ते सामान्य किए। साल 1986 में चीन ने जनरल अग्रीमेंट ऑन टैरिफ एंड ट्रेड में शामिल हुआ। फिर इसके बाद दिसंबर 2001 में वह विश्व व्यापार संगठन जिसे डब्ल्यूटीओ कहा जाता है, उसका सदस्य देश बना। डब्ल्यूटीओ से पहले भी अमेरिका और चीन के बीच कारोबार बढ़ रहा था लेकिन इस संगठन में शामिल हो जाने के बाद दोनों देशों के बीच कारोबारी रिश्ते तेजी से सामान्य और आगे बढ़ने लगे। इसका नतीजा यह हुआ कि अमेरिका और पश्चिमी देशों की कंपनियां सस्ती मजदूरी और कम लागत की लालच में बड़ी संख्या में चीन में निवेश करना शुरू कर दिया। फिर धीरे-धीरे चीन मैन्यूफैक्चरिंग यानी उत्पादन का सबसे बड़ा हब बन गया।
पहले कार्यकाल में ट्रंप ने चीनी सामानों पर टैरिफ बढ़ाया
चीन में सस्ते सामान बनकर अमेरिका सहित पूरी दुनिया के बाजार में पहुंचने लगे। इन वर्षों में अमेरिका और चीन के बीच कारोबार कई गुना बढ़ गया लेकिन इस व्यापार में भारी असंतुलन भी आया। अभी अमेरिका करीब 200 अरब डॉलर का सामान चीन को निर्यात करता है तो चीन का अमेरिका को निर्यात 448 अरब डॉलर है। मतलब व्यापार का फायदा चीन को ज्यादा है। 2020 से पहले 2018 के आस पास जब ट्रंप एडमिनिस्ट्रेशन ने चीन के सामानों पर टैरिफ बढ़ाया तो चीन का निर्यात जो कि उस समय 558 अरब डॉलर पर था वह लुढ़क कर 2020 में 449 अरब डॉलर पर आ गय। इसके बाद बाइडेन प्रशासन में चीन का अमेरिका को निर्यात फिर बढ़ना शुरू हुआ और फिर इसमें कमी आनी शुरू हुई।
दुनिया की सप्लाई चेन चीन पर हुई निर्भर
जाहिर है कि इस कारोबार से दोनों देशों को फायदा हुआ है। अमेरिकी वस्तुओं एवं सेवाओं के लिए चीन सबसे बड़े बाजारों में से एक है। वहीं, अमेरिका भी चीन के लिए सबसे बड़े बाजारों में से एक है। एक तरह से देखें तो दोनों देश एक दूसरे की जरूरत हैं। अमेरिका में चीनी सामानों के पहुंचने से वहां वस्तुओं की कीमत कम हुई और इससे अमेरिकी कंपनियों को बड़ा फायदा पहुंचा लेकिन इन सस्ते सामानों की कीमत अमेरिका को चुकानी पड़ी। सस्ते सामानों की वजह से अमेरिका में लाखों लोगों की नौकरियां गईं। लोगों को बेरोजगार होना पड़ा, दूसरा चीनी कंपनियों के निवेश से अमेरिका में राष्ट्रीय सुरक्षा का खतरा भी पैदा हुआ। 2001 में अमेरिका और चीन के बीच 100 अरब डॉलर का कारोबार हुआ और यह 2023 में बढ़कर 400 अरब डॉलर तक पहुंच गया। चीन अपने यहां हर तरह के माल बनाने लगा और फिर आगे चलकर वह दुनिया की सप्लाई चेन का सबसे अहम किरदार बन गया। दुनिया की सप्लाई चेन एक तरह से उस पर निर्भर हो गई।
अमेरिकी में चीनी कंपनियों ने किया है बड़ा निवेश
अब बात करते हैं कि आखिर अमेरिका, चीन से खरीदता क्या है तो इसमें एक नंबर पर हैं इलेक्ट्रानिक सामान। चीन हर साल 100 अरब डॉलर का केवल इलेक्ट्रानिक सामान अमेरिका को बेच देता है। इसके अलावा मशीनरी, एप्लॉयंसेस, खिलौने, गेम्स, टेक्सटाइल्स, चेमिकल प्रोडक्ट, मेटल्स, प्लास्टिक, रबड़ और फर्नीचर जैसे उत्पादों से चीन मोटी कमाई करता है। कनाडा और मैक्सिको के बाद अमेरिकी उत्पादों की सबसे ज्यादा खपत चीन में होती है। यूएस चाइना बिजनेस काउंसिल की 2023 की रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन को होने वाले निर्यात से अमेरिका में 10 लाख से ज्यादा लोगों को जॉब मिला। चीन में सामान बेचकर अमेरिकी कंपनियां हर साल सैकड़ों अरबों डॉलर कमाती करती आई हैं तो अमेरिका में चीनी कंपनियों ने हजारों अरबों डॉलर का निवेश किया है। कमाई का यह मामला दो-तरफा तो है लेकिन यह चीन की तरफ ज्यादा झुका हुआ है। ट्रंप इसी व्यापारिक अंसतुलन को पाटने के लिए चीनी उत्पादों पर टैरिफ बढ़ा सकते हैं।
टेलिकॉम कंपनी हुवेई को ब्लैकलिस्ट किया
अपने पहले कार्यकाल में ट्रंप ने राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाले देकर चीन की बहुत बड़ी टेलिकॉम कंपनी हुवेई को ब्लैकलिस्ट कर दिया। इस बार अपने चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप ने वादा किया है कि वह चीन से बनकर आने वाली सभी वस्तुओं पर 60 फीसद टैरिफ लगाएंगे। इतना भारी टैक्स लगने के बाद चीन से बनकर आने वाली वस्तुओं-सामानों की कीमत काफी बढ़ जाएगी। क्या कोई भी अमेरिकी चीनी समान खरीदने के लिए इतना पैसा खर्च करेगा। जवाब है नहीं। अगर ट्रंप चुनाव में किए हुए अपने वादे पर आगे बढ़ते हैं और चीन निर्मित वस्तुओं पर 60 फीसद टैरिफ लगा देते हैं तो चीन की अर्थव्यवस्था के लिए यह बहुत बड़ा झटका होगा। चीन की अर्थव्यवस्था नाजुक दौर से गुजरी है। कोविड में उसकी अर्थव्यवस्था को बहुत नुकसान हुआ। फिर रियल स्टेट में गिरावट, देश में कमजोर मांग, गिरती कीमतों और स्थानीय सरकारों के बढ़ते कर्ज जैसे झंझावातों से उबरकर वह धीरे-धीरे अपनी अर्थव्यवस्था को दोबारा पटरी पर ला रहा है कि इसी बीच, ट्रंप उसके सामने आ गए हैं।
दो प्वाइंट नीचे आ जाएगा चीन का ग्रोथ
इन्वेस्टमेंट बैंक मैक्वॉयर का मानना है कि चीन निर्मित उत्पादों पर यदि 60 फीसद टैरिफ लगता है तो चीन की अर्थव्यवस्था की ग्रोथ दो प्वाइंट तक नीचे आ जाएगी। इससे चीन की अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा असर पड़ सकता है। चीन ने उम्मीद की है कि पूरे साल उसकी इकोनॉमिक ग्रोथ पांच फीसद की रफ्तार से होगी लेकिन उसमें दो प्रतिशत की कमी उसके उम्मीदों पर पूरी तरह से पानी फेर देगी। मैक्वॉयर में चीन के मुख्य अर्थशास्त्री लैरी हू का तो यहां तक कहना है कि अमेरिका के साथ ट्रेड वार 2.0 चीन के ग्रोथ मॉडल को समाप्त कर देगी। कुल मिलाकर ट्रंप के आने के बाद कारोबार के मोर्चे पर अमेरिका और चीन के बीच नए सिरे से ट्रेड वार की शुरुआत होनी तय है। ट्रंप राजनीतिज्ञ बाद में हैं, पहले कारोबारी हैं। वह चीजों को फायदे और नुकसान के चश्मे से देखते हैं। अपनी अमेरिका फर्स्ट नीति को आगे बढ़ाने के लिए वह टैरिफ बढ़ाने के अपने इरादे से पीछे नहीं हटेंगे। इसलिए दुनिया को अमेरिका और चीन के बीच ट्रेड वार 2.0 देखने के लिए तैयार रहना चाहिए।