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भारतीय भाषाओं के प्रति संघ का दृष्टिकोण

Jitendra Kumar by Jitendra Kumar
13/09/22
in मुख्य खबर, राष्ट्रीय, साहित्य
भारतीय भाषाओं के प्रति संघ का दृष्टिकोण

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लोकेन्द्र सिंह
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार हैं। वर्तमान में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में सहायक प्राध्यापक हैं।


तुर्की जब स्वतंत्र हुआ, तब आधुनिक तुर्की के संस्थापक कमालपाशा ने जिन बातों पर गंभीरता से ध्यान दिया, उनमें से एक भाषा भी थी। कमालपाशा ने विरोध के बाद भी बिना समय गंवाए शिक्षा से विदेशी भाषा को हटा कर तुर्की को अनिवार्य कर दिया। क्योंकि, वह तुर्की के लोगों में राष्ट्रीयता की भावना का विस्तार करना चाहते थे, इसके लिए उन्हें अपनी भाषा की आवश्यकता थी। चूँकि उस समय तुर्की अरबी लिपि में लिखी जाती थी, इसलिए उन्होंने एक घोषणा और की जिसमें उन्होंने स्पष्ट कहा कि वे लोग सरकारी नौकरी से वंचित कर दिए जाएंगे, जिन्हें लैटिन लिपि का ज्ञान नहीं होगा। इसी प्रकार दुनिया भर में बिखरे यहूदियों को जब उनकी भूमि प्राप्त हुई, तो उन्होंने भी अपनी भाषा ‘हिब्रू’ को ही अपनाया। सोचिए, भूमिहीन यहूदियों की भाषा कहीं लिखत-पढ़त के व्यवहार में नहीं थी। इसके बाद भी जब यहूदियों ने इजराइल का नवनिर्माण किया तो राख के ढेर में दबी अपनी भाषा हिब्रू को जिंदा किया। आज जिस अंग्रेजी की अनिवार्यता भारत में स्थापित करने का प्रयास किया जाता है, उसके स्वयं के देश ब्रिटेन में वह एक जमाने में फ्रेंच की दासी थी। बाद में ब्रिटेन के लोगों ने आंदोलन कर अपनी भाषा ‘अंग्रेजी’ को उसका स्थान दिलाया। अपनी भाषा में समस्त व्यवहार करने वाले यह देश आज अग्रणी पंक्ति में खड़े हैं। अपनी भाषा में शिक्षा-दीक्षा के कारण ही यहाँ के नागरिक अपने देश की उन्नति में अधिक योगदान दे सके। अपनी भाषा का महत्व दुनिया के लगभग सभी देश समझते हैं। इसलिए उनकी आधिकारिक भाषा उनकी अपनी मातृभाषा है। किंतु, हम अभागे लोग जब स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भी मानसिक दासिता से मुक्ति नहीं पा सके। महात्मा गांधी के आग्रह के बाद भी अंग्रेजी का मोह नहीं छोड़ सके।

भारत में जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की चर्चा अकसर हिंदू संगठन या फिर राजनीतिक संदर्भ में होती है, वह संगठन सदैव अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाने के लिए उपाय करता रहता है। किंतु, इस नाते उसका उल्लेख कम ही हो पाता है। अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता को स्थापित करने के प्रयत्नों में आरएसएस ‘मातृभाषा’ के महत्व को भी रेखांकित करता है। दरअसल, संघ मानता है कि- “भाषा किसी भी व्यक्ति एवं समाज की पहचान का एक महत्त्वपूर्ण घटक तथा उसकी संस्कृति की सजीव संवाहिका होती है। देश में प्रचलित विविध भाषाएँ एवं बोलियाँ हमारी संस्कृति, उदात्त परंपराओं, उत्कृष्ट ज्ञान एवं विपुल साहित्य को अक्षुण्ण बनाये रखने के साथ ही वैचारिक नवसृजन हेतु भी परम आवश्यक हैं”। अंग्रेजी के प्रभाव में जिस तरह भारतीय भाषाओं को नुकसान हो रहा है। यहाँ तक कि भारतीय भाषाओं के बहुत से शब्द विलुप्त हो गए हैं। उनमें अंग्रेजी और विदेशी भाषाओं के शब्दों की भरमार हो गई है। इस अनधिकृत घुसपैठ से कई बोलियाँ और भाषाएँ या तो पूरी तरह विलुप्त हो चुकी हैं या फिर विलुप्त होने की कगार पर हैं। भारतीय भाषाओं की इस स्थिति को देखते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पहल करते हुए 2015 में नागपुर में आयोजित अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में ‘भारतीय भाषाओं के संरक्षण एवं संवर्द्धन की आवश्यकता’ शीर्षक से प्रस्ताव पारित कर महत्वपूर्ण कदम उठाया। हालाँकि, संघ अपने प्रारंभ से ही भारतीय भाषाओं के संवर्द्धन के लिए प्रयासरत है। किंतु, आज की स्थिति में भारतीय भाषाओं पर आसन्न विकट संकट को देखकर संघ ने सभी सरकारों, अन्य नीति निर्धारकों और स्वैच्छिक संगठनों सहित समस्त समाज से आग्रह किया है कि वह अपनी भाषाओं को बचाने के लिए आगे आएं। इसके लिए संघ ने अपने प्रस्ताव में कुछ करणीय कार्यों एवं उपायों का उल्लेख किया है।

भारत के राजनेताओं की स्वार्थपरक नीतियों एवं संकीर्ण सोच के कारण देश का बहुत अहित हुआ है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भी हिंदी उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक संपर्क की भाषा थी। हम चाहते तो उस समय हिंदी को राष्ट्रभाषा का सम्मान दे सकते थे। उसे राजकाज की भाषा बना सकते थे और अन्य भारतीय भाषाओं को भी यथोचित सम्मान दे सकते थे। राज्यों में उनकी भाषा और देश स्तर पर हिंदी के प्रचलन को बढ़ा सकते थे। किंतु, हमारे औपनिवेशिक दिमागों ने यह स्वीकार नहीं किया और अंग्रेजी को ही राज-काज की भाषा बनाए रखा। भाषाओं का ऐसा झगड़ा प्रारंभ किया कि भारतीय भाषाएं अपने ही घर में आपस में एक-दूसरे के विरुद्ध हो गईं और अंग्रेजी उन सबके ऊपर हो गई। पिछले 70 वर्षों में इस भाषा नीति का परिणाम यह हुआ कि आज हमें अपनी भाषाओं को बचाने के लिए अभियान और आह्वान लेकर निकलना पड़ रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज भारतीय भाषाओं की चिंता नहीं कर रहा है, बल्कि उसने स्वतंत्रता के तीन वर्ष पश्चात ही हिंदी को न केवल राष्ट्रभाषा अपितु विश्वभाषा बनाने का आह्वान किया था। दो मार्च, 1950 को रोहतक में हरियाणा प्रांतीय हिंदी सम्मेलन का आयोजन हुआ था। इस अवसर पर संघ के सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ‘श्रीगुरुजी’ ने जो उद्बोधन दिया था, उसका शीर्षक ही था- ‘हिंदी को विश्वभाषा बनाना है’। संघ जिस राष्ट्रीयता, भारतीयता, संस्कृति की ध्वजपताका थामकर चल रहा है, उसका महत्वपूर्ण घटक भाषा है। यह केवल हिंदी नहीं है। हिंदी तो समूचे हिंदुस्थान की प्रतीक है। किंतु, हिंदुस्थान की पहचान उसकी विविधता है। यह विविधता भाषाओं में भी है। बोलियों में भी। संघ उसी विविधता में एकात्म संस्कृति का प्रचारक है, इसलिए वह सभी भारतीय भाषाओं एवं बोलियों को लेकर सजग है।

भारतीय भाषाओं की वर्तमान स्थिति, उसमें बेहतरी और समस्त भारतीय भाषाओं को नजदीक लाने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा से वर्ष 2015 में ‘भारतीय भाषा मंच’ मंच की स्थापना भी की गई है। भारतीय भाषा मंच ने अपने उद्देश्य में 18 बिन्दु शामिल किए हैं। प्रतिनिधि सभा ने जिन आग्रहों का उल्लेख अपने प्रस्ताव में किया है, वह सब भारतीय भाषा मंच के उद्देश्यों में शामिल हैं। मंच के प्रयासों का प्रतिफल भी आ रहा है। यहाँ उल्लेखनीय होगा कि प्रतिनिधि सभा ने वर्ष 2015 में भी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा हेतु एक प्रस्ताव पारित किया है। उस प्रस्ताव में संघ ने जोर देकर कहा था कि प्रारंभिक शिक्षण किसी विदेशी भाषा में करने पर जहाँ व्यक्ति अपने परिवेश, परंपरा, संस्कृति और जीवन मूल्यों से कटता है वहीं पूर्वजों से प्राप्त होने वाले ज्ञान, शास्त्र, साहित्य आदि से अनभिज्ञ रहकर अपनी पहचान खो देता है। भारत को अपनी पहचान न केवल बचानी है, बल्कि जिस गुरुतर भूमिका के निर्वाहन की ओर वह बढ़ रहा है, उसके लिए भी उसे अपनी भाषाओं का संरक्षण एवं संवर्द्धन करना ही होगा। संभव है कि अपनी भाषा के बिना भी वह विश्व पटल पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा दे, लेकिन वह उपस्थिति बहुत कमजोर होगी। अपनी संस्कृति को खोकर कोई भी राष्ट्र टिक नहीं सकता है। ‘एक भारत-श्रेष्ठ भारत’ और ‘नये भारत’ के निर्माण के लिए भी अपनी सांस्कृतिक तत्वों को सहेजना और उनको व्यवहार में लाना आवश्यक है।

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