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“भिटौली” : मेरे पहाड़ की अनूठी परंपरा

Frontier Desk by Frontier Desk
13/03/20
in साहित्य
“भिटौली” : मेरे पहाड़ की अनूठी परंपरा
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दीपशिखा गुसाईं


“अब ऋतु रमणी ऐ गे ओ चेत क मेहना, भटोई की आस लगे आज सोरास बेना….”
यह गीत सुन शायद सभी पहाड़ी बहिनों को अपने मायके की याद स्वतः ही आने लगती है, “भिटौली” मतलब भेंट, कुछ जगह इसे “आल्यु” भी कहते हैं।

चैत माह हर एक विवाहिता स्त्री के लिए विशेष होता है ,,,अपने मायके से भाई का इंतजार करती उससे मिलने की ख़ुशी में बार बार रास्ते को निहारना, हर दिन अलसुबह उठकर घर की साफ सफाई कर अपने मायकेवालों के इंतजार में गोधूलि तक किसी भी आहट पर बरबस ही उठखड़े होना शायद कोई आया हो l

मायके से विशेष रूप से आए उपहारों को ही “भिटौली” कहते हैं,,,जिसमे नए कपडे ,माँ के हाथों से बने कई तरह के पकवान आदि शामिल है ,,,जिन्हे लेकर भाई अपनी बहिन के घर ले जाकर उसकी कुशल क्षेम पूछता है ,,एक तरफ से यह त्यौहार भाई और बहिन के असीम प्यार का द्योतक भी हैl

बसंत ऋतू के आगमन पर चैत्र माह की संक्रांति “फूलदेई” के दिन से बहिनो को भिटौली देने का सिलसिला शुरू हो जाता है ,,बसंत से छाई हरियाली,कोयल,न्योली और अन्य पक्षियों की मधुर कलरव ,सरसों ,फ्योंली के फूलों को घर घर जाकर फूलदेई मनाना ,,बरबस ही सभी बचपन की यादें ताजा हो जाती हैं,

पहाड़ों में यह परम्परा रही है कि जो मायके से काल्यो भटौली आती हैं उसे आस पड़ोस से लेकर पूरे गांव में बांटा जाता है ,,अभी भी कई जगह यह रिवाज और परम्परा जीवंत हैं l

पिथौरागढ में भटौली से संबन्धित एक और त्यौहार मनाया जाता है.. चैंतोल चैत के अन्तिम सप्ताह में मनाये जाने वाले इस त्यौहार में एक डोला निकलता है. मुख्य डोला पिथौरागढ के समीपवर्ती गांव चहर/चैसर से निकलता है. यह डोला 22 गांवों में घूमता हैl

चैंतोल का यह डोला भगवान शिव के देवलसमेत अवतार का प्रतीक है जो 22 गांवों में स्थित भगवती देवी के थानों में भिटौली के अवसर पर पहुंचता है. हर मन्दिर पर पैदल पहुंच कर देवलसमेत देवता ‘धामी’ शरीर में अवतार होकर के अपने भक्तों को आशीर्वाद देते हैं.
आज समय बदलने के साथ-साथ इस परंपरा में भी काफी कुछ बदलाव आ चुका है। शहरो में अब ये औपचारिकता मात्र रह गयी है. कुछ लोग तो इस परंपरा की भूल चुके है या फ़ोन पर बात करके या कोरियर से गिफ़्ट या मनीआर्डर/ड्राफ़्ट से अपनी बहनों को रुपये भेज कर औपचारिकता पूरी कर देते हैं। लेकिन गाँवों में यह परंपरा आज भी जीवित है।

अपनी परंपरा बिलकुल भी नहीं भूलनी चाहिए बल्कि हमारे बच्चो को गर्व से उत्तराँचल और यहाँ के त्योहारों के बारे में जरूर बताना चाहिए. ये भी बताना चाहिए की उत्तराँचल देव भूमि के साथ साथ प्रकृति की एक अनुपम देन है जिस पर हम सभी उत्तराखंड वासियों को गर्व होना चाहिए।
“घुघूती घुराण लगी मेरा मैत की ,,
बोडी बोडी ऐजा ऋतू ,ऋतू चैत की”..
‘कभी कभी खुद के लिए भी’
“दीप”


दीपशिखा गुसाईं
कौलागढ़ देहरादून उत्तराखंड
अनेक पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित
सोशल वर्कर
को फाउंडर
अपनत्व फाउंडेशन
समाज सशक्तिकरण केंद्र ,,

gusaindeepshikha@gmail.com

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