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आरा से आजमगढ़ तक क्रांतियुद्ध के नायक कैसे बने वीर कुंवर सिंह

Jitendra Kumar by Jitendra Kumar
22/04/22
in मुख्य खबर, राष्ट्रीय
आरा से आजमगढ़ तक क्रांतियुद्ध के नायक कैसे बने वीर कुंवर सिंह
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अरविंद शर्मा। आम तौर पर लोग जिस अवस्था में खाट पकड़ लेते हैैं और अंतिम यात्रा की तैयारी करते हैैं, उस अवस्था में बाबू कुंवर सिंह ने तलवार पकड़ी और महासंग्राम किया। बाबू कुंवर सिंह आजादी की पहली लड़ाई के सर्वश्रेष्ठ योद्धा थे, जिन्होंने 80 वर्ष की उम्र में भी अंग्रेजों के दांत खट्टïे कर दिए। उन्होंने कभी अंग्रेजों के समक्ष घुटने नहीं टेके। हार कर भी हौसला नहीं खोया।

वर्ष 1857 की लड़ाई में दानापुर छावनी के बहादुर सैनिकों और भोजपुर के वीर जवानों के साथ बिहार के पटना, सोनपुर, सासाराम, आरा से लेकर उत्तर प्रदेश के बलिया, गाजीपुर, बनारस, आजमगढ़ एवं गोरखपुर तक देश के दुश्मनों से लड़ते रहे और उन्हें पराजित करते रहे। आजमगढ़ में उन्होंने अंग्रेजों को दो-दो बार हराया और उस इलाके को 81 दिनों तक स्वतंत्र रखा। मरने से तीन दिन पहले तक इस वयोवृद्ध स्वाधीनता सेनानी ने दुश्मनों से मोर्चा लिया और मातृभूमि की रक्षा की। जगदीशपुर स्टेट को अंग्रेजों के कब्जे से मुक्त कराया। अंतिम सांस तक बहादुरी से लड़ते हुए अंग्रेजों को परास्त किया।

इतिहासकार पंडित सुंदरलाल ने इनकी बहादुरी की चर्चा करते हुए लिखा है, ‘कुंवर सिंह क्रांतिकारियों के प्रमुख नेता और वर्ष 1857 के सबसे बहादुर सेनानियों में थे। वृद्ध कुंवर सिंह अपने सफेद घोड़े पर सवार होकर युद्ध भूमि में बिजली की तरह इधर-उधर लपकते-चमकते दिखाई देते थे। बहादुरी ऐसी कि दुश्मन भी उनके कायल हो जाते थे। अंग्रेज इतिहासकार होम्स ने लिखा है, ‘शुक्र है कि क्रांति के समय बाबू कुंवर सिंह 80 वर्ष के वृद्ध थे। अगर नौजवान होते तो काफी पहले ही भारत में ब्रिटिश सत्ता का अंत हो जाता। उस बूढ़े योद्धा की मृत्यु भी विजेता की तरह हुई। होम्स ने कुंवर सिंह की आखिरी लड़ाई का वर्णन एक चश्मदीद अंग्रेज अधिकारी के हवाले से किया है। उस अधिकारी ने लिखा था, ‘मैैंने जो देखा, उसे बताते हुए भी शर्म आ रही है। हमारी सेना ने मैदान छोड़कर जंगल की तरफ भागना शुरू कर दिया। कुंवर सिंह की सेना पीछे से हमें मारती-काटती रही। जनरल लीग्रैैंड को गोली लगी। वह मेरे सामने ही तड़प रहा था। करारी हार देखकर हमारे सिख सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। हमसे हाथी छीन लिए। हमारे कहार डोलियां रखकर भाग खड़े हुए। ब्रिटिश सैनिक प्यास से परेशान थे। कड़ी धूप के कारण कई ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया। चारों तरफ रोने और चीखने के अलावा और कुछ सुनाई नहीं दे रहा था।

वीर सावरकर ने अपनी किताब ‘1857 का महासमर में इनकी युद्धनीति को छत्रपति शिवाजी की तरह बताया है। उन्होंने लिखा है, ‘शिवाजी महाराज के बाद कुंवर सिंह भारत के दूसरे ऐसे बड़े योद्धा थे, जिन्होंने अंग्रेजों से मुकाबले के लिए गुरिल्ला युद्ध नीति का इस्तेमाल किया था। इसके सहारे उन्होंने अंग्रेजों को बार-बार छकाया। कई बार हराया। जब जन्म लिया था, तब भी उनकी मातृभूमि स्वतंत्र थी और 26 अप्रैल 1858 को निधन हुआ तब भी स्वतंत्र थी। फिर भी इस महान योद्धा को उतना सम्मान और इतिहास में वैसा नाम नहीं मिला, जो अन्य को मिला। सवाल उठाया जाता रहा कि कुंवर सिंह ने जवानी में क्यों नहीं अपनी ऊर्जा का इस्तेमाल किया। बुढ़ापा आने पर ही क्यों सचेत हुए।

पटना विश्वविद्यालय में प्रोफेसर एवं इतिहासकार जयश्री मिश्रा इसे खारिज करती हैैं। वह कहती हैैं कि ऐसी बात नहीं है। कुंवर सिंह की जगदीशपुर में बड़ी जमींदारी थी। उन्होंने आजादी की लड़ाई को आजीवन जारी रखा। पहले गुप्त अभियान चला रहे थे। प्रत्यक्ष तौर पर तब आए जब वर्ष 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत हुई। सबसे पहले कुंवर सिंह ने अपनी ताकत जुटाई और फिर परतंत्रता के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। जुलाई 1857 में पटना में क्रांतिकारियों के नेता पीर अली को अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया था। दानापुर (पटना) के सैनिकों ने प्रतिक्रिया में 27 जुलाई 1857 को अंग्रेज सरकार के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और सोन नदी को पार करके आरा पहुंच गए। सैनिकों ने कुंवर सिंह के नेतृत्व में जेल तोड़कर कैदियों को आजाद कराया। इसे ‘आरा विजय के नाम से जाना जाता है। उसके बाद जगह-जगह घमासान शुरू हो गया।

दो अगस्त 1857 को कुंवर सिंह ने बीबीगंज और बिहिया के जंगलों में घमासान युद्ध में अंग्रेजी सेना को चुनौती दी। उन्हें इसमें हार का सामना जरूर करना पड़ा, मगर उनका हौसला नहीं टूटा। कुछ दिनों के बाद ही वह अपने साथियों के साथ रीवा की ओर निकल गए। वहां उनकी मुलाकात नाना फडऩवीस से हुई। फिर तात्या टोपे की मदद के लिए बांदा और कालपी की ओर प्रस्थान किया। यह वह समय था, जब कुछ अपने ही लोगों की दगाबाजी के चलते उन्हें कामयाबी नहीं मिली। तात्या की हार के बाद वह लखनऊ आ गए। इसी दौरान बिहार लौटते समय बलिया के मुड़कटवा मैदान में फिर एक बार अंग्रेजों से मुकाबला हुआ। यहां उन्होंने सौ से ज्यादा अंग्रेज सैनिकों को मार गिराया। जब जगदीशपुर आने के लिए वह सैनिकों के साथ गंगा पार कर रहे थे तो जनरल डगलस की गोली उनके हाथ में लगी। उन्होंने अपनी तलवार से स्वयं अपना हाथ काटकर गंगा नदी मेें प्रवाहित कर दिया। इसके तीन दिनों बाद उनका निधन हो गया।

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