दीपशिखा गुसाईं
को फाउंडर “अपनत्व” समाज सशक्तिकरण केंद्र
देहरादून (उत्तराखंड)
लोग कहते आज गांव रहे ही कहाँ क्योंकि जब वहां गांववाले ही नहीं तो गांव कैसा l पर किसने कहा वहां गांववाले नहीं है जो चले गए इस संसार से या जो जीते जी छोड़ गए उनकी रूह आज भी वही हैं शायद सदियों तक रहेगी भी l गांव कभी ख़त्म नहीं होते उनकी यादें उनकी कल्पनाये, चाहे जैसे भी हमेशा जीवित रहेंगी और अगर मैं पहाड़ियों की बात करूँ तो वो हमारे लिए ऑक्सीजन की तरह है l
इसके बगैर अस्तित्व ही नहीं हमारा
गांव बिल्कुल आज भी नहीं बदला है, ना ही कभी बदल सकता है। गांव का मतलब हम पहाडियों के लिए सिर्फ अपने गांव से नहीं है, नजदीकी कस्बे या शहर को जब बस छोड़ कर आगे बढती है, खिड़की से चीड़ या बांज के पेड़ों को छूकर आती हवा जब हल्के से गाल सहलाती है और ऐसा लगता है जैसे सालों से शहर की भीड़ में अकेले छूट गए मन को किसी ने चूमा है l हमारा गांव वहीं से शुरु हो जाता है। सफर के दौरान हम अपने गांव में होते हैं और सफर के अन्त में अपने घर पहुंचते हैं।
गांव के घर बदल गए हैं हालांकि कुछ पुराने घर अभी भी मिट्टी और पत्थरों से बनकर शान से खड़े हैं। गांव में आबाद घर ढूंढना मुश्किल होता जा रहा है, लेकिन जब तक एक भी घर आबाद है, मेरा गांव आबाद रहेगा। गांव का मतलब समझ रहे हैं ना? लोग अभी भी वैसे ही हैं, सरल और उनके चेहरे झुर्रियों से भरे हुए । वक़्त से पहले की ये झुर्रियाँ उनकी मुश्किल जिन्दगी की गवाही देती हैं और इसी चेहरे पर खिलती निश्छल मुस्कान जिन्दगी पर उनकी जीत की।
आप जब घर पहुंचते हैं तो सीधे अपने घर नहीं पहुंचते
आप आइये मेरे गांव मिलवाती हूँ घर के रास्ते में मिलने वाले मेरे अपनों से। जो घर के बाहर ना दिखे उसे आवाज देकर बुलाते हुए।दादी, चाची और ताई के रिश्तों से गले मिलते हुए आप सालों से मन में जमा कोहरा पिघलाते हैं। घर जाने पहले जो अपने पहाड़ की कठोरता पर रो दिया करती थी और उससे बिछड़ने से हुए भारी मन को समझा रही होती वही अपने गांव की चाची ताई से गले मिलकर नहीं रो पाती है,बस थोड़ी देर यूं ही उनसे चिपकी रहती है और अचानक सब हल्का लगने लगता है,सब सही लगने लगता है।
गांव में कुछ नहीं बदला है।वही शान्त और सुकून से भर देने वाला गांव है। हालांकि कभी कभी इतनी शान्ति खलने लगती है लेकिन ये उस सन्नाटे से हज़ार हज़ार गुना बेहतर है जो शहर ने मेरे अन्दर भर दिया है, मैं बहुत लम्बी लम्बी सांसें भरते हुए इस शान्ति को अपने अन्दर भर लेना चाहती हूँ।
शान्ति और सन्नाटे का फर्क तो जानते हैं ना?
गांव की बहुत सारी पगडंडियाँ मिट गई हैं, हमारे वक़्त में जो रास्ते गुलजार रहा करते थे अब उनके निशां तक नहीं हैं लेकिन ये पहली बार नहीं हुआ है।
जब कभी मैं दूर एक सीधी पहाड़ी जिस पर कोई रास्ता नहीं था उसे दिखाते हुए कहती अपनी बेटी से कि फलानी पहाड़ी से मेरी दादी का डोला उतरा था, तो वो हँसते हुए कहती कि वहां तो कोई रास्ता नहीं है क्या डोला चोटी से लुढका दिया था? गांव का पानी नहीं बदला, वही ठंडी मिठास है बस फर्क़ इतना है कि अब इतनी मिठास की आदत नहीं रही, क्योंकि कड़वाहट और जहर ज्यादा जो घुल गई हमारे रगों में इन शहरों की आपाधापी में, तो बीमार होना लाजमी है इतनी मिठास से l
चलिए आगे की कहानी फिर कभी मेरे पहाड़ और उसने पानी की…
“दीप”