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Home साहित्य

स्त्री का इंतजार

Jitendra Kumar by Jitendra Kumar
01/05/20
in साहित्य
स्त्री का इंतजार

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सीमा "मधुरिमा"सीमा “मधुरिमा”
लखनऊ 


सदियों से थी स्त्री
इंतजार में,
कब मिले मुक्ति उसे
इस बेतहाशा भागती हुई जिंदगी से l
सदियों से
जन्म के साथ शुरू हुआ
भागम भाग
कभी भाई के नखरे ढोने में तो
कभी पिता के l

सच तो हैं कई बार
स्त्री बिन कोख़ से जन्मे ही माँ बन जाती हैं
अपने भाई और पिता की
और उठाती है नखरे माँ सी ही
फिर ब्याह दी जाती एक नए घर l

जहाँ फिर आता उसके हिस्से में
बनना माँ …
सास ससुर और पति की माँ
हाँ वो माँ ही तो होती है l

तभी तो उठाती है नखरे
सुनती है झिड़कियां और मनाती है रूठो को भी
फिर वो जन्म दे एक नन्ही जान को ..
बनती है पूरी माँ …
फिर तेजी आती है उसके भागम भाग में

तिल तिल बड़ा करती नन्ही जान को
फिर भूल जाती नींद
लगाती अलार्म घड़ी में
और एक अलार्म मन में भी l

देर रात बिस्तर को सौपकर
मन के अलार्म को सौपकर सो जाती
फिर घड़ी के अलार्म के पहले ही उठ ख़डी होती
बच्चों को उठाती
तैयार करती
कपड़े मोज़े जूते के साथ ही टिफिन भी बनाती
विद्यालय निकलते बच्चों को पीछे से छोड़ गए सामान को टिफिन पेन्सिल बॉक्स भी देने दौड़ पड़ती

उफ्फ्फ्फ़ कहकर बैठती दो पल को
फिर मन दुत्कार देता आराम हराम है
स्वतः उठ ख़डी होती फिर भोजन पकाते करती घर के अन्य जतन l
सदियों से थी स्त्री इन्तजार मेँ
मुक्ति के …
आज लॉकडाउन में
रुक गया है जीवन
मिल गयी है स्त्री को मुक्ति अनेकों कार्यों से l

फिर भी बेचैन है उसका स्त्रीतत्व
यही तो चाहा था उसने
ज़ब शांति हो जीवन में उसके
और वह लिख सके कोई कविता
या फिर जी सके को बीता हुआ प्रेम l

इन्तजार पूरा हुआ
अब स्त्री के चारों तरफ शांति है
फिर भी नहीं कह पा रही है वो कोई कविता
नहीं रच पा रही कोई प्रेम
आज बेचैन है स्त्री
थम गयी है जैसे उसकी दुनिया l

ऐसा थामना तो नहीं चाहा था उसने
आज बेचैन है स्त्री
आज इंतज़ार में है स्त्री
फिर से उस भागम भाग की
जिससे पूरी होती थी एक स्त्री
जिसमें जीवन था एक भागता हुआ चक्र और
एक स्त्री उसी चक्र में घूमते हुए l
रचते रहती थी प्रेम कविता
और कविता रचते रचते ही
कभी चुरा लेती थी खुद के लिए प्रेम
यही तो कर रही सृष्टि भी l

 

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