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उम्मीद में चलना कि सुबह होगी…

Jitendra Kumar by Jitendra Kumar
26/07/20
in साहित्य
उम्मीद में चलना कि सुबह होगी…

google image

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कुमार मंगलमकुमार मंगलम

कुमार मंगलम की प्रारंभिक शिक्षा बिहार में गाँव से हुई l फिर उन्होंने स्नातक और परास्नातक की पढ़ाई काशी हिंदू विश्वविद्यालय से की l कुँवर नारायण के काव्य में दार्शनिक प्रभाव विषय पर गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय, गाँधीनगर से एम.फिल, फिलहाल समकालीन हिंदी कविता में शहर और गाँव की विविध छवियों का अध्ययन, विषय पर इग्नू नई दिल्ली से शोधरत हैं l 

 


हम चले जा रहे थे
सड़क पर
लहू बोते
गलत पते पर पहुँचने वाले चिट्ठियों की तरह

हमें अपने गाँव से जीने की उम्मीद नहीं
अपने माटी में मरने का सुख
लिए जा रही थी

हमें बैरंग वापस नहीं लौटना था।

अपनी जमीन न सही
अपनी जमीन से नजदीक होने
और होते जाने के बीच
सारे दर्द को भूल

भूख से, उपेक्षा से, दुत्कार से
मर जाना कहीं अधिक उपयुक्त लगा।

 

जब हम चले
तो यह उम्मीद थी
कि कोई तो हमें
इस तरह देख घर पहुंचा ही देगा

कुछ पैसों के साथ
पॉकेट में अनिवार्यतः पता रख लिया था

जैसे जैसे हम अपने घरों की दूरी
को कम करते जाते थे
मौत से भी दूरी कम होती गयी

जिंदा तो हम वैसे भी घर नहीं पहुँचते
जिस दिन डेरा छोड़ा था उसी दिन मर गए थे
वहाँ पहुंचे सशरीर तो भी जिंदा ही होते बस
बेवश और लाचार
आत्मा मर चुकी थी

अच्छा हुआ लावारिश समझ
रास्ते में ही अंतिम संस्कार कर दिया
कोई सहृदय, दयावान नहीं आया था

हममें से ही हमसा कोई राहगीर रहा होगा

वो खुशकिस्मत जिन्हें अपने घर मिले
जिन्हें अपना मुकाम मिल गया

हम बियाबान में थे और घर में भी बहार नहीं आई थी
जब हम मरें
हम कदम बहुत थे
पासबाँ कोई न था, दरो-दीवार न थी

बस एक बेवश मौत थी
अंतहीन रास्ता था
नींद न थी।

हम मेहनतकश थे
सड़क बना सकते थे तो

उस सड़क पर फूल भी खिला सकते थे

हमने अपने लहू को रोपा
और रक्तबीज सा
लाल फूल खिला

जिसे किसी अनुष्ठान में
किसी नेता के सम्मान में
नहीं चढ़ना था

बेहया के फूल की मानिंद
इसे भी उपेक्षित रहना था

आखिरकार लाखों बलि चढ़े
तब यह फूल खिले थे सड़कों पर।

हम सिर्फ आँकड़े थे
अथवा एक पौव्वा और एक सौ रुपल्ली में
बदल जाने वाले वोट भर थे

सो हमारे लिए योजनाएं और वादे सिर्फ कागजी थे

हकीकत सिर्फ एक

कभी न समाप्त होने वाला
एक असमाप्त दिशा भर
जिस ओर हमारा घर था

और हमें सबसे बेफिक्र होकर
उस ओर चलते जाना था
जिसे पूरब कहते हैं।


“रात के आठ बजे”

मैं सो रहा था उस वक्त
बहुत बेहिसाब आदमी हूँ
सोने-जगने-खाने-पीने
का कोई नियत वक्त नहीं है
ना ही वक्त के अनुशासन में रहा हूँ कभी

मैं सो रहा था साहब उसवक्त
मेरी क्या गलती थी
मेरे पास कुछ पाँच हज़ार जमा थे गाढ़े समय के लिए
छुपा के रखे थे पाँच-पाँच सौ के दस नोट

मैं अभी अभी रिक्सा खींच कर आया था घर
सोचा थोड़ा सुस्ता लूँ
तब तक झपकी लग गयी थी
कुछ शोर सुनाई दिया था
मित्रों…लॉकडाउन…घर…बंद…बाज़ार… बंद
स्वास्थ्य…अर्थव्यवस्था… बीमारी…महामारी

मेरे घर में अगले दिन के लिए राशन नहीं था
गेहूँ मिल में दे आया था पिसाने को
सोचा था आज की रात किसी तरह काम चल जाएगा
कल सुबह दाल और सब्जी लेता आऊंगा

मैं रोज लेबर चौराहे पर बैठता हूँ साहब
बड़े लोग आते और दिन भर के काम के लिए
मोल ले जाते
मुझे तो सप्ताह में एक ही दिन काम मिलता था
शरीर झुक गया था
ऊपर से गाली पड़ती अलग
मैं कामचोर नहीं था साहब
लेकिन घर पर बैठे रहने से भोजन तो नहीं मिलता
जैसे भी कर के नून रोटी का जुगाड़ हो ही जाता था

हम कहाँ जाते साहब
हम तो तिरेन में भी पाखाने में बैठ के आये थे
सो पैदल ही गाँव चल दिए
जब यहाँ काम ही नहीं रहा

मैं कहाँ जाता साहब
कहाँ बंद होता
खुली सड़क ही अपना आशियाना था

साहब! हम जैसे बहुत बेचैन लोग
अन्ततः मर जाने के लिए ही होते हैं
या फिर मारे जाने के लिए
क्या फर्क पड़ता है कि
कोई महामारी हो
कोई बंदी हो
अकाल हो, सूखा हो, बाढ़ हो
जब तक जिंदा हैं
का बोझ ढोते हैं
और जब मर जाते हैं
आपके लिए मुश्किल हो जाती है।


“इंद्र एक दुष्टात्मा है”

कामी, जड़, लोभी और डरा हुआ
फसलों के दाने आने के दिनों में
वज्रपात सा गिरता है
अनाजों पर

वायु उदण्ड है
जब इंद्र की दुष्टता अपने चरम पर होती है
अपने तेज प्रवाह से
फसलों को गिरा देता है

सूर्य आलसी हुआ है इनदिनों
चंद्रमा की शीतलता खो गयी है
बादल चंचल हुए हैं
जिनपर हमारी रक्षा का भार था
वे देव दानव हुए हैं

देव भेस में आये इन दानवों का
किसने आवाहन किया है
जो मनुष्यता पर बर्फ बन गिर रहे हैं।


“प्रधानमंत्री का खाना”

प्रधानमंत्री केरल के चुनाव से पहले अप्पम या पुट्टू खा सकते हैं और बिहार के चुनाव के समय लिट्टी-चोखा खा सकते हैं। लेकिन उनके लिट्टी-चोखा खाने से माछ-भात अथवा चुरा-दही खाने वाला मैथिल नाराज हो सकता है, अथवा मालाबारी मसालों में बना मछली खाने वाला भी नाराज हो सकता है।

प्रधानमंत्री गोवा के चुनाव के समय फेनी नहीं पी सकते अथवा बनारस के किसी चुनावी रैली में गोदौलिया से गुजरते समय भाँग नहीं पी सकते।

प्रधानमंत्री को अपने डायबिटीज को दरकिनार कर
बंगाल के चुनाव के समय सोन्देश और उड़ीसा के चुनाव के समय रसोगुल्ला या राजभोज खाना पड़ सकता है।

यह केवल प्रधानमंत्री के चयन अथवा स्वाद का मामला भर नहीं है।

प्रधानमंत्री तय नहीं करते कि उन्हें आज की रात खिचड़ी खाना है या आज वे गोश्त भून कर खाएंगे।

प्रधानमंत्री कितने बेवश हो सकते हैं कि उन्हें अपने स्वाद का चयन भी चुनाव की तिथियों से मिला कर करना पड़ता है।

भारत स्वाद के मामले में एक विलक्षण राष्ट्र है और भारत के राष्ट्राध्यक्ष का स्वाद-बोध किसी राज्य में सम्पन्न होने वाले चुनाव से पहले जगता है।

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